सिकन्दर लोदी ने दिल्ली सल्तनत के प्रत्येक अंग पर शिकंजा कस लिया। वह लोदी वंश के शासकों में सर्वाधिक योग्य एवं साहसी सेनानायक था। उसने शासन में अनेक नई व्यवस्थायें आरम्भ कीं किंतु अपनी धर्मांधता के कारण उसने हिन्दुओं, सूफियों एवं शियाओं का जीना हराम कर दिया। उसने ई.1489 से ई.1517 तक कुल 28 साल शासन किया। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उसे राजपूताना एवं मध्यभारत के राजपूतों से युद्ध करने पड़े।
सिकन्दर लोदी गुजरात के प्रबल सुल्तान महमूद बेगड़ा और मेवाड़ के प्रबल शासक महाराणा सांगा का समकालीन था। सिकंदर उन्हें परास्त तो नहीं कर सका किंतु उसने अपनी सेनाओं को इस योग्य अवश्य बनाया कि वे मेवाड़ तथा गुजरात की सेनाओं के सामने खड़ी हो सकें। सिकंदर ने मेवाड़ के महाराणा सांगा से भी युद्ध किया किंतु सिकंदर की सेनाओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
सिकंदर के काल में ग्वालियर पर शक्तिशाली तोमर शासन करते थे। उस काल में ग्वालियर, धौलपुर, मण्डरायल, अंतगढ़ और नरवर के सुदृढ़ किले तोमरों के अधीन हुआ करते थे। किसी समय आगरा एवं दिल्ली के किले भी तोमरों के अधीन थे किंतु अब वे लोदियों के अधीन थे।
सिकंदर लोदी अपनी सामरिक शक्ति को अच्छी तरह पहचानता था इसलिए वह बंगाल, गुजरात, मेवाड़ तथा ग्वालियर के प्रति आँखें मूंदे रहता था फिर भी उसे इन राज्यों से युद्ध करने पड़े। ग्वालियर के साथ वह मित्रता की नीति अपनाता था। ई.1489 में जब सिकंदर दिल्ली का शासक हुआ तो उसने ख्वाजा मुहम्मद फर्मूली को खिलअत देकर ग्वालियर भेजा।
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उन दिनों मानसिंह तोमरों का राजा था। उसने भी अपने भतीजे निहालसिंह को बहुत से उपहारों के साथ सुल्तान की सेवा में भेजा। इस प्रकार दोनों शासकों के बीच काफी समय तक मित्रता का प्रदर्शन होता रहा।
ई.1491 में सिकंदर लोदी ने बयाना पर विजय प्राप्त कर वहाँ के विद्रोही हाकिम शर्फ को निर्वासित कर दिया। शर्फ ग्वालियर नरेश मानसिंह की शरण में पहुंचा। हिन्दू राजाओं की मान्य नीति के अनुसार राजा मानसिंह तोमर ने शर्फ को अपने राज्य में शरण दे दी। सिकंदर लोदी उस समय अपने अमीरों की बगावत में उलझा हुआ था, इसलिए वह राजा मानसिंह तोमर के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका।
ई.1495 से ई.1503 तक सिकंदर लोदी ने संभल में प्रवास किया। उस दौरान ई.1501 में सिकंदर के कई मुस्लिम अमीर एवं हिन्दू मुकद्दम सिकंदर लोदी का साथ छोड़कर ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर की शरण में भाग गए। इनमें गणेशराय का नाम प्रमुख है। मानसिंह ने उन सबको भी अपने राज्य में शरण दे दी। सिकंदर लोदी इस बार भी मानसिंह के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका किंतु दोनों राज्यों के बीच कटुता उत्पन्न हो गई।
दोनों राज्यों के बीच पनप रही कटुता को कम करने के लिए राजा मानसिंह ने अपना दूत कुछ उपहारों के साथ आगरा भेजा। निजामुद्दीन अहमद ने लिखा है कि सुल्तान ने राजा मानसिंह के दूत से कुछ कठोर प्रश्न पूछे। राजा के दूत ने बहुत ही भद्दे शब्दों में उन प्रश्नों का उत्तर दिया जिससे दोनों राज्यों में कटुता और अधिक बढ़ गई।
वे कठोर प्रश्न कौन से थे, उनका उल्लेख किसी भी तत्कालीन मुस्लिम लेखक ने नहीं किया है। हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘ग्वालियर के तोमर’ में लिखा है कि संभवतः सुल्तान ने दूत से ग्वालियर की राजकुमारी सुल्तान को समर्पित करने के बारे में पूछा। इसी कारण दूत ने सुल्तान को कठोर उत्तर दिए होंगे। इसकी प्रतिक्रिया में सिकंदर लोदी ने दूत को मारकर ग्वालियर पर आक्रमण करने की धमकी दी।
हरिहर निवास द्विवेदी द्वारा प्रस्तुत यह अनुमान इसलिए सही लगता है क्योंकि उन्हीं दिनों सिकंदर लोदी ने बांधवगढ़ के हिन्दू नरेश शालिवाहन बघेला से भी उसकी पुत्री मांगी थी।
ग्वालियर के दूत द्वारा भरे दरबार में सिकंदर लोदी का अपमान किए जाने के बाद भी सिकंदर लोदी ग्वालियर पर सीधे आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। क्योंकि ग्वालियर का दुर्ग धौलपुर, मण्डरायल, अंतगढ़ और नरवर के सुदृढ़ किलों से घिरा हुआ था जो कि तोमरों के अधीन थे अथवा तोमरों के मित्र थे।
ई.1501 में दिल्ली की सेनाओं ने धौलपुर के किले पर आक्रमण किया। धौलपुर के राजा विनायकदेव को किला खाली करना पड़ा और वह ग्वालियर चला गया। इस विजय से उत्साहित होकर सिकंदर लोदी ने ग्वालियर की तरफ प्रयाण किया किंतु चम्बल नदी पार करते ही सिकंदर लोदी की सेना में हैजा फैल गया। इस कारण सिकंदर को चम्बल के किनारे ही रुक जाना पड़ा।
मानसिंह ने युद्ध को टालने का प्रयास करने के लिए अपने पुत्र विक्रमादित्य को बहुत से उपहारों के साथ सिकंदर लोदी के शिविर में भेजा। मानसिंह ने विश्वास दिलाया कि यदि सुल्तान राजा विनायकदेव को धौलपुर का किला लौटा दे तो राजा मानसिंह सुल्तान सिकंदर लोदी के विरोधियों को अपने दरबार से निकाल देगा।
सिकंदर लोदी स्वयं भी युद्ध नहीं चाहता था, इसलिए उसने राजा मानसिंह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तथा स्वयं वापस दिल्ली चला गया। राजा विनायकदेव ने फिर से धौलपुर के किले पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उस समय तो दोनों पक्षों के बीच युद्ध टल गया किंतु ई.1504 में एक बार पुनः युद्ध की परिस्थितियां उपत्पन्न हो गईं। सिकंदर लोदी की सेनाओं ने ग्वालियर के पूर्व में स्थित मण्डरायल दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
एक बार पुनः सिकंदर की सेना में हैजा फैल गया और उसके बहुत से सैनिक इस महामारी की चपेट में आकर मर गए। विवश होकर सिकंदर को पुनः दिल्ली लौट जाना पड़ा। ई.1505 में सिकंदर लोदी ने राजा मानसिंह के विरुद्ध जेहाद की घोषणा की तथा अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया ताकि वह राजा मानसिंह तोमर पर नकेल कस सके।
सिकंदर लोदी ने आगरा के लाल किले की मरम्मत करवाई और स्वयं अपने परिवार तथा अमीरों के साथ आगरा के लाल किले में रहने लगा। इस कारण ई.1504 से ई.1526 तक लोदियों की राजधानी दिल्ली के स्थान पर आगरा हो गई थी।
यहाँ से धौलपुर तथा ग्वालियर अधिक दूर नहीं थे। उसी वर्ष सिकंदर ने धौलपुर के किले पर अधिकार कर लिया तथा ग्वालियर के लिए चल पड़ा। मण्डरायल का किला पहले से ही सिकंदर लोदी के अधिकार में आ चुका था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता