तैमूर लंग ने खिज्र खाँ सैयद को मुल्तान तथा दीपालपुर का गवर्नर नियुक्त किया था। ई.1414 में खिज्र खाँ ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया तथा स्वयं को समरकंद का प्रतिनिधि घोषित करके दिल्ली का सुल्तान बन गया। ई.1421 में खिज्र खाँ बीमार पड़ा और मर गया।
खिज्र खाँ ने मरते समय, अपने पुत्र मुबारक खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। वह मुइजुद्दीन मुबारकशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। उसने समरकंद से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और स्वतन्त्रतापूर्वक दिल्ली में शासन करने लगा। उसने अपने नाम की मुद्राएँ चलवाईं और अपने नाम का खुतबा पढ़वाया।
सुल्तान मुबारकशाह ने सल्तनत में अनुशासन लाने के लिए अमीरों की शक्ति कम करने के प्रयास किये। वह प्रायः अमीरों का एक जिले से दूसरे जिले में स्थानांतरण कर देता था। इससे किसी अमीर का किसी एक स्थान में अधिक प्रभाव नहीं बढ़ने पाता था परन्तु इससे अमीरों की शासन पर पकड़ ढीली पड़ने लगी और उनमें सुल्तान के प्रति असन्तोष भी बढ़ने लगा।
अपने पिता खिज्र खाँ की भाँति मुबारकशाह का जीवन भी पंजाब तथा दो-आब में विद्रोहों का दमन करने में व्यतीत हुआ। पंजाब में सबसे भयानक विद्रोह जसरथ खोखर का था। कटेहर, मेवात, इटावा, ग्वालियर तथा कालवी में भी विद्रोह हुए परन्तु समस्त जगह विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबा दिया गया।
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ई.1433 में काबुल के शासक शेख अली ने पंजाब पर आक्रमण किया। उसने लाहौर को लूटा और बहुत से स्थानों पर अधिकार कर लिया। आक्रमणकारी शीघ्र ही मुल्तान तक पहुँच गए। सुल्तान मुबारकशाह भी एक सेना लेकर आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए आगे बढ़ा और उन समस्त जिलों पर फिर से अधिकार कर लिया जो विद्रोहियों के अधिकार में चले गए थे।
मुबारकशाह ने दो हिन्दुओं को अपने दरबार में अमीर नियुक्त किया। दिल्ली सल्तनत के इतिहास में इससे पहले कभी भी हिन्दुओं को अमीर नहीं बनाया गया था। सुल्तान के इस कदम से मुस्लिम अमीरों को बड़ी चिढ़ हुई और वे सुल्तान मुबारकशाह के शत्रु हो गए। अंततः प्रधानमन्त्री सरवर-उल-मुल्क ने षड्यन्त्र रचकर 20 फरवरी 1434 को सुल्तान मुबारकशाह की हत्या करवा दी। उस समय सुल्तान यमुनाजी के किनारे स्थित मुबारकबाद का निरीक्षण कर रहा था।
मुबारकशाह का कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसने मुहम्मद मीन फरीदी नामक एक लड़के को गोद ले रखा था। मुबारकशाह की मृत्यु के उपरान्त यही दत्तक पुत्र मुहम्मदशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। प्रधानमन्त्री सरवर-उल-मुल्क ने सल्तनत की शक्ति अपने हाथों में रखने का प्रयत्न किया। उसने खान-ए-जहाँ की उपाधि धारण की और अपने समर्थकों को सल्तनत में उच्च पद देने आरम्भ किये। इससे तुर्की अमीरों में असंतोष बढ़ने लगा।
अंत में दिल्ली के तुर्की एवं भारतीय अमीरों ने कमाल-उल-मुल्क के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा बुलंद किया। सुल्तान मुहम्मदशाह पहले से ही प्रधानमंत्री सरवर-उल-मुल्क से अप्रसन्न था। इसलिए सुल्तान ने भी विद्रोही अमीरों का साथ दिया। यह सूचना मिलने पर प्रधानमंत्री सरवर-उल-मुल्क ने स्वयं को सीरी के दुर्ग में बंद कर लिया। सुल्तान की सेना ने किला घेर लिया तथा वजीर को बंदी बनाकर मौत के घाट उतार दिया।
सरवर-उल-मुल्क से छुटकारा पाकर सुल्तान मुहम्मदशाह ने कमाल-उल-मुल्क को अपना प्रधानमन्त्री बना लिया किंतु इससे भी सल्तनत में शांति स्थापित नहीं हो सकी। कुछ अन्य महत्त्वाकांक्षी अमीरों को सरवर-उल-मुल्क की जगह कमाल-उल-मुल्क के प्रधानमंत्री बनने से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। इसलिए वे फिर से विद्रोह करने पर उतारू हो गए।
इब्राहिम शर्की नामक एक अमीर ने विद्रोह का झण्डा बुलंद किया तथा कुछ परगनों पर अधिकार कर लिया। दिल्ली में सुलग रहे असंतोष का लाभ उठाते हुए ग्वालियर के राय ने दिल्ली को कर देना बन्द कर दिया। मालवा के शासक महमूद खिलजी ने दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण कर दिया।
इस पर दिल्ली के सुल्तान मुहम्मदशाह ने लाहौर तथा सरहिन्द के सूबेदार बहलोल खाँ लोदी को मालवा पर आक्रमण करने के आदेश दिए। बहलोल लोदी ने खिलजी की सेना में कसकर मार लगाई और उसे भगा दिया। इस पर सुल्तान ने बहलोल लोदी को खानेजहाँ की उपाधि दी तथा उसे अपना पुत्र कहकर पुकारा।
दरबार में इतना बड़ा सम्मान मिलने से बहलोल लोदी की महत्त्वाकांक्षाओं ने विस्तार लेना आरम्भ किया। अब वह सुल्तान बनने की सोचने लगा। नमक की पहाड़ी क्षेत्र के शासक जसरथ खोखर ने बहलोल खाँ लोदी को दिल्ली का तख्त छीनने के लिए प्रोत्साहित किया। बहलोल खाँ लोदी ने अपनी सेना लेकर राजधानी दिल्ली पर आक्रमण किया किंतु दिल्ली की सेना ने बहलोल खाँ लोदी को परास्त कर दिया। इन विद्रोहों के कारण दिल्ली सल्तनत पुनः कमजोर हो गई। इन्हीं परिस्थितियों में ई.1445 में सुल्तान मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई।
मुहम्मदशाह की मृत्यु के उपरान्त अमीरों ने उसके पुत्र अल्लाउद्दीन आलमशाह को दिल्ली का सुल्तान बनाया। नया सुल्तान अयोग्य था। वह शासन-कार्य की उपेक्षा करता था। कुछ दिनों बाद वह दिल्ली की राजनीति से तंग आकर ई.1451 में बदायूँ चला गया और वहीं पर रहने लगा। दरबारियों तथा अमीरों ने सुल्तान के इस कदम का विरोध किया परन्तु सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह ने उनकी एक नहीं सुनी। इस कारण सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह तथा वजीर हमीद खाँ के बीच बुरी तरह से ठन गई।
सुल्तान ने वजीर हमीद खाँ को मरवाने का प्रयत्न किया। इस पर हमीद खाँ सतर्क हो गया तथा उसने बहलोल खाँ लोदी को अपनी सहायता के लिए दिल्ली बुलवाया। बहलोल लोदी ने वजीर का निमंत्रण स्वीकार कर लिया तथा 19 अप्रेल 1451 को दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। सुल्तान बनने के बाद बहलोल लोदी ने सबसे पहला काम यह किया कि दुष्ट वजीर हमीद खाँ को जेल में बंद करवा दिया ताकि बहलोल लोदी निष्कंटक होकर दिल्ली पर शासन कर सके।
बदायूं में निवास कर रहे सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह को दिल्ली के समस्त समाचार मिल रहे थे किंतु मन मसोसकर बैठे रहने के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कर सका। उसके पास इतनी सेना नहीं थी कि वह फिर से दिल्ली पर अधिकार कर सकता। इसलिए वह बदायूं में रहकर रंगरलियों में डूबा रहा। बहलोल लोदी ने भी अपने पुराने स्वामी को छेड़ना उचित नहीं समझा। ई.1478 में सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह की बदायूं में ही मृत्यु हुई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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