Thursday, November 21, 2024
spot_img

150. लाखों पहाड़ी हिन्दुओं ने स्वातंत्र्य देवी के श्रीचरणों में अपने प्राण न्यौछावर किए!

तैमूर की सेना को दिल्ली से लेकर मेरठ, तुगलुक नगर, सहारनपुर एवं हरिद्वार आदि अनेक स्थानों पर हिन्दुओं का सशस्त्र विरोध झेलना पड़ा जिसमें कई लाख हिन्दू मारे गए। इनमें सैनिक एवं असैनिक दोनों प्रकार के हिन्दू सम्मिलित थे। यद्यपि कई लाख की संख्या बड़ी लगती है किंतु विभिन्न लेखकों द्वारा प्रदत्त विवरण से यह संख्या सही प्रतीत होती है।

15 जनवरी 1399 को तैमूर की सेना ने शिवालिक के पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश किया। इस पहाड़ी प्रदेश में सर्वप्रथम राय बहरोज ने मुस्लिम सेना का प्रतिरोध किया। कुछ ग्रंथों में बहरोज का नाम ब्रह्मदेव मिलता है। वह आसंतीदेव वंश का शासक था जो कि कुमायूं पर्वतीय क्षेत्र के प्राचीन कत्यूरी वंश की एक शाखा थी।

जिस समय तैमूर लंग ने कुमायूं प्रदेश में प्रवेश किया, उस समय आसंतीदेव राजवंश का शासन था। उत्तरांचल में प्रचलित लोककथाओं के अनुसार कुमायूं क्षेत्र पर जियारानी का शासन था जो कि राजा बहरूज अथवा ब्रह्मदेव की माता थी। जियारानी के बचपन का नाम मोलादेवी था। वह हरिद्वार के पुण्ढीर राजा अमरदेव की पुत्री थी तथा उसका विवाह कुमायूं के राजा पृथ्वीपाल से हुआ था। जियारानी स्वयं युद्धक्षेत्र में रहकर युद्ध करती थी। उसने रानीबाग में तैमूरलंग की सेना से मुकाबला किया जिसमें जियारानी विजयी रही।

तैमूर लंग एवं हिन्दुओं के बीच हुए युद्धों का वर्णन ‘मुलफुजात-ए-तोमूरी’ नामक ग्रंथ में भी मिलता है। कुमायूं में प्रचलित लोककथा में उपलब्ध विवरण तथा ‘मुलफुजात-ए-तोमूरी’ नामक ग्रंथ में उपलब्ध विवरण में पर्याप्त अंतर है। यद्यपि कुछ लोग अबु तालिब हुसैनी को ‘मुलफुजात ए तोमूरी’ का लेखक मानते हैं किंतु इस ग्रंथ को आत्मकथा की शैली में लिखा गया है जिसमें दिए गए तथ्यों के आधार पर लगता है कि इस ग्रंथ का मूल लेखक तैमूर लंग स्वयं था। यह ठीक वैसा ही ग्रंथ प्रतीत होता है, जैसा कि बाबर द्वारा लिखित तुजुक-ए-बाबरी अथवा बाबरनामा।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

‘मुलफुजात-ए-तोमूरी’ के अनुसार राय बहरोज अर्थात् ब्रह्मदेव के पास बड़ी सेना थी। इस क्षेत्र में ऊंची, तंग तथा दृढ़ घाटियां थीं। इसलिए वह पहाड़ों के राजाओं में सबसे ऊंचा ही नहीं अपितु हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं में बड़़ा माना जाता था। तैमूर ने लिखा है कि मेरे आगमन को सुनकर राय बहरोज ने अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली। उस प्रदेश के सारे दुष्ट राय, उसके पास एकत्रित हो गए थे। इन आदमियों को अपने सैनिकों, घाटियों एवं स्थानों का बड़ा अभिमान था। इसलिए राय बहरोज अचल रहा और उसने लड़ने का निर्णय किया।

19 जनवरी 1399 को तैमूर लंग एवं बहरोज की सेनाओं के बीच संघर्ष हुआ। मुलफुजात ए तोमूरी में लिखा है- ‘शैतान जैसे हिन्दू लोग घात करने के लिए छिपे हुए थे। उन्होंने मेरे सैनिकों पर आक्रमण किया परन्तु मेरे सैनिकों ने बाणों की वर्षा करके उनसे बदला लिया और तलवारें निकालकर उन पर टूट पड़े और रास्ता चीरते हुए घाटी में पहुंच गए। वहाँ पर हिन्दुओं से डट कर लड़ाई हुई। वीरतापूर्वक लड़ते हुए मेरे सैनिकों ने तलवारों, चाकुओं और खंजरों से शत्रुओं का वध किया। इतने लोग मारे गए कि रक्त की धाराएं बहने लगीं।’

To purchase this book, please click on photo.

मुस्लिम सैनिकों ने हिन्दू स्त्रियों एवं बच्चों को बंदी बनाने के अतिरिक्त लूट का काफी माल एकत्रित किया। 24 जनवरी 1399 को तैमूर लंग शिवालिक एवं कोका पर्वत के मध्य में पहुंचा। यहाँ पर राय रतनसेन के नेतृत्व में हिन्दुओं ने तैमूर लंग की सेना का मार्ग रोका। ‘मुलफुजात ए तोमूरी’ के अनुसार यह घाटी बहरोज की घाटी की अपेक्षा अधिक ऊँची और संकरी थी और राव रतनसेन की सेना भी बहरोज की सेना से अधिक बड़ी थी। तैमूर ने अपनी सेना को रतनसेन की सेना पर आक्रमण करने का निर्देश दिया।

यजदी के अनुसार गाजियों द्वारा लगाए गए तकबीर के नारों (इस्लाम के युद्धघोष) के पर्वत में गूंजने से पूर्व ही वे काफिर भाग खड़े हुए। जबकि ‘मुलफुजात ए तोमूरी में लिखा है कि हिन्दू सैनिक तैमूरी सैनिकों के आक्रमण के पश्चात् ही युद्ध क्षेत्र से भागे।

इस युद्ध में हजारों हिन्दू मारे गए, हजारों पकड़े गए तथा लूट का माल बड़ी मात्रा में तैमूर के सैनिकों के हाथ लगा। 25 जनवरी 1399 को तैमूर नगरकोट के मार्ग पर चला। यहाँ भी हिन्दुओं ने तैमूर की सेना का सामना किया किंतु यहाँ भी तैमूर पूर्ण रूपेण विजयी रहा। किसी भी मुस्लिम स्रोत में तैमूर की सेना द्वारा नगरकोट के किले पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि नगरकोट क्षेत्र के हिन्दुओं ने तैमूर लंग का सामना नगरकोट की पहाड़ियों में किसी अन्य स्थान पर किया होगा।

तैमूर को मार्ग में स्थान-स्थान पर हिन्दू प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। जफरनामा तथा मुलफुजात ए तोमूरी के अनुसार एक महीने के भीतर अर्थात् 25 जनवरी से 23 फरवरी 1399 तक तुर्की सेना शिवालिक पर्वत तथा कोका पर्वत के मध्य में रही, तदुपरांत वह जम्मू पहुंची। इस बीच काफिरों, मुशिकों और अग्निपूजकों से 20 युद्ध हुए। इस अवधि में हिन्दुओं के 7 बड़े किलों पर अधिकार किया गया। मुलफुजात ए तोमूरी में लिखा है कि इसी क्षेत्र के अन्य हिन्दू शासकों में एक देवराज नामक शासक भी था जिसने तैमूर की सेना से संघर्ष किया था।

23 फरवरी 1399 को तैमूर की सेना जम्मू के निकट पहुंची। इस क्षेत्र के हिन्दुओं ने अपने परिवार के सदस्यों को अग्निदेव को सौंप दिया तथा स्वयं तैमूर से लड़ने के लिए आए। अंततः 27 फरवरी को तैमूर की सेना जम्मू में घुसी। मुलफुजात ए तोमूरी के अनुसार उन दुष्टों अर्थात् जम्मू के हिन्दुओं ने अपने स्त्रियों तथा बालकों को पर्वतों पर भेज दिया। उनका राय, काफिर तथा जाहिल हिन्दुओं का समूह लेकर मरने-मारने के लिए उद्धत था। वह पर्वत के दृढ़ स्थान पर खड़ा हो गया। अंततः 28 फरवरी 1399 को चिनाब नदी के तट पर दोनों पक्षों में तुमुल संघर्ष हुआ। इस युद्ध में राय आहत हुआ तथा बंदी बना लिया गया।

तैमूर लंग ने जम्मू के राय से बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया। 2 मार्च 1399 तक तैमूर जम्मू में रहा। 3 मार्च को वह चिनाब नदी पार करके सिंधु नदी की तरफ चला गया। स्वदेश जाने से पूर्व उसने खिज्र खाँ सैयद को मुल्तान तथा दीपालपुर का गवर्नर बना दिया। इस प्रकार भारत के काफिरों को मारकर, उन्हें मुसलमान बनाकर, उनकी औरतों और बच्चों को गुलाम बनाकर, उनकी धन-सम्पत्ति को लूटकर 19 मार्च 1399 को तैमूर ने सिंधु नदी पार कर ली तथा अपने देश समरकन्द चला गया।

बहुत से लोगों का मानना है कि तैमूर लंग को हरिद्वार से लेकर शिवालिक की पहाड़ियों के बीच स्थानीय हिन्दू शक्तियों ने परास्त किया किंतु यह बात सही प्रतीत नहीं होती। यह सही है कि हिन्दुओं ने स्थान-स्थान पर तैमूर की सेना का प्रतिरोध किया किंतु तैमूर को पराजित करने में हिन्दुओं को कोई बड़ी सफलता मिली हो, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हिन्दुओं को तैमूर के विरुद्ध सफलता का मिलना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था जितना कि हिन्दुओं द्वारा अपना मनोबल ऊंचा बनाए रखकर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना। स्वाभिमान की कसौटी पर दिल्ली से लेकर जम्मू तक के हिन्दू पूरी तरह खरे उतरे थे।

तैमूर लंग तो भारत से चला गया किंतु अपने पीछे बर्बादी के गहरे घाव छोड़ गया। उसके अभियान में दो विलक्षण बातें हुईं। पहली तो यह कि उत्तर भारत के हजारों हिन्दुओं ने पहली बार बिना किसी राजा के नेतृत्व के स्वयं को अपनी इच्छा से युद्ध के लिए समर्पित किया। दूसरी विलक्षण बात यह हुई कि तैमूर ने दिल्ली सल्तनत की कमर तोड़ दी जिसके कारण अब उत्तर भारत के हिन्दू राजा अपने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के लिए नए सिरे से प्रयास आरम्भ कर सकते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source