मध्यकालीन समाज
भारत का सामाजिक ढांचा परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित था। मध्यकालीन राजपूताने में यह व्यवस्था और अधिक दृढ़ हो गई थी। समाज में जातियों का महत्त्व उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों एवं व्यवसायों पर निर्भर करता था। युद्ध, पूजा-पाठ एवं व्यापार आदि उच्च व्यवसायों को अपनाने वाली जातियों को सामाजिक संगठन में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। परिश्रम आधारित कार्यों में संलग्न जातियों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। मृत पशुओं की खाल निकालने, मैला ढोने, जूते बनाने आदि हेय समझे जाने वाले कार्यों को करने वाले अछूत समझे जाते थे। अछूत समझी जाने वाली जातियों को अपने जातीय कर्त्तव्यों का पालन करने अथवा बेगार के मामलों में छूट नहीं मिलती थी। जाति-व्यवस्था को दृढ़ बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जाति-पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। जाति पंचायतें जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिये खान-पान, शादी-विवाह तथा रीति-रिवाजों से सम्बन्धित नियम बनाती थी तथा उनकी पालना करवाती थीं। जातीय नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। उच्च समझी जाने वाली जातियों अर्थात् ब्राह्मण, राजपूत तथा महाजनों को समाज में आदर के साथ-साथ राज्य द्वारा विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं।
विविध जातियाँ और व्यवसाय
जातियों की विविधता और उनकी विभिन्नताओं के मामले में राजस्थान आज की तरह मध्यकाल में भी एक समृद्ध प्रदेश था। जातियों का निर्माण, उनकी सामाजिक प्रथायें तथा उनके आर्थिक क्रिया कलाप इतिहास में गहराई तक जड़ें जमाये हुए हैं। मध्यकालीन राजपूताने में जाति प्रथा का परम्परागत स्वरूप बना रहा किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण सामाजिक विन्यास में आर्थिक परिवर्तन आने लग गये थे। इस कारण लोगों को परम्परागत जातीय व्यवसायों के साथ-साथ विविध व्यवसाय अपनाने पर विवश होना पड़ा।
ब्राह्मण
परम्परागत सामाजिक ढांचे में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। ब्राह्मण जाति अनेक उप जातियों में विभाजित थी। समाज में नैतिक जीवन का आधार ब्राह्मण ही माना था। अध्ययन-अध्यापन, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पुरोहिताई आदि उनके परम्परागत जातीय पेशे थे। कुछ ब्राह्मण का व्यवसाय मन्दिरों में पूजा-पाठ करना था। कुछ पढ़े-लिखे ब्राह्मणों ने अध्ययन-अध्यापन को अपना व्यवासय बनाये रखा। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से भूमि अनुदान में दी जाती थी। कई ब्राह्मणों ने कथा-वाचन, ज्योतिष तथा वैदिक अध्यापन को व्यवसाय बना लिया था। ब्राह्मणों के कुछ परिवार, राजकुलों तथा सामन्तों के पारिवारिक पुरोहित बने हुए थे। उन्हें राजगुरू तथा राजव्यास आदि उपाधियों से सम्मानित किया जाता था। गाँवों में रहने वाले अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि कर्म को अपना लिया था। प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर स्थित नगरों तथा कस्बों के कुछ सम्पन्न ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य तथा साहूकारी का व्यवसाय अपना लिया था। ब्राह्मणों को विभिन्न महत्वपूर्ण राजकीय सेवाओं में भी नियुक्त किया जाता था। उन्हें कूटनीतिक तथा प्रशासनिक दायित्व दिये जाते थे। विभिन्न व्यवसायों को अपनाने के उपरांत भी ब्राह्मण अपनी पुरानी परम्पराओं को कायम बनाये रखने पर जोर देते थे। इसीलिए हिन्दू प्रजा उन्हें हिन्दू संस्कृति का संरक्षक समझती थी तथा उन्हें पर्याप्त सम्मान देती थी। कुछ ब्राह्मणों ने निर्धनता के कारण भोजन बनाने का कार्य करना आरम्भ कर दिया था। ऐसे ब्राह्मण समाज में कम आदर से देखे जाते थे। वे ब्राह्मण जो किसी के मरने पर भोजन, कपड़ा व दान स्वीकार करते थे, उनका भी ब्राह्मण समाज में नीचा स्थान माना जाता था।
राजपूत
परम्परागत भारतीय समाज में ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का स्थान आता था। मध्यकालीन राजपूताना में प्राचीन क्षत्रियों का स्थान राजपूतों ने ले लिया। राजवंश से सम्बन्धित होने एवं शासक जाति के सदस्य होने के कारण राजपूतों को समाज में विशेष आदर प्राप्त था। उनके पास वंशानुगत रूप से छोटी-बड़ी जागीरें थीं। इस काल के राजपूत अपनी मान-मर्यादा के प्रति अत्यधिक सजग थे। राजकीय सेवा, सैनिक सेवा अथवा सामान्तों की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना वे अपने कुल मर्यादा के प्रतिकूल समझते थे। नागरिक प्रशासन एवं सैनिक व्यवस्था में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। पद्मनाभ कृत कान्हड़दे प्रबन्ध में राजपूत जाति के 36 कुलों का उल्लेख है। ये कुल अनेक उपकुलों व परिवारों में विभाजित हो गये थे। राजपूत कुल चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो गया अथवा कितनी ही पीढ़ियाँ बीत चुकी हों, समान गोत्र में विवाह नहीं हो सकता था। एक गोत्र, एक परिवार ही समझा जाता था। राजपूतों की शादी में लड़की के पिता को टीके व दहेज के रूप में धन देना पड़ता था। इस कारण निर्धन राजपूतों में नवजात कन्या को मार देने की कुप्रथा प्रचलित हो गई।
वैश्य
वैश्यों को समाज में महाजन कहकर आदर दिया जाता था। वाणिज्य कर्म में संलग्न होने के कारण उन्हें बनिया भी कहा जाता था। ब्राह्मणों और राजपूतों की भाँति वैश्य भी अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित थे। राजपूताने में मुख्यतः अग्रवाल, ओसवाल, माहेश्वरी, पोरवाल आदि वैश्य जातियाँ निवास करती थीं। ये लोग व्यापार-वाणिज्य के साथ-साथ साहूकारी का काम अर्थात् सम्पत्ति गिरवी रखकर उसके बदले में नगद राशि ब्याज पर देते थे। इस कारण वैश्य समुदाय अत्यंत धन-सम्पन्न था। समाज में उसकी अत्यंत प्रतिष्ठा थी। समृद्ध वैश्य गांवों एवं नगरों में तालाब, कुएं, धर्मशाला, प्याऊ, पाठशाला एवं मंदिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाते थे। बहुत से सेठ सदाव्रत एवं दानशाला चलाते थे। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न एवं धन सम्पन्न वैश्यों को प्रशासन में उच्च पद दिये जाते थे। राज्यों में हाकिम, दीवान, मुसाहिब, दरोगा, वकील आदि पदों पर अधिकांशतः वैश्य वर्ग के व्यक्ति ही नियुक्त किये जाते थे। प्रतिष्ठित वैश्य मंत्री युद्धक्षेत्र में सैन्य-संचालन का काम भी करते थे। राज्य के बड़े-बड़े सामंत अपनी सेनाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में उपस्थित रहकर वैश्य मंत्री के निर्देशन में युद्ध लड़ते थे। वैश्य समुदाय का मुख्य व्यवसाय व्यापार-वाणिज्य तथा रुपयों का लेन-देन करना था। वे मुख्यतः थोक व्यापारी थे और सामान को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में लाने-ले जाने और क्रय-विक्रय का काम करते थे। कई वैश्य परिवार खालसा भूमि के राजस्व तथा सायर (चुंगी) की वसूली का इजारा (ठेका) लेते थे तथा साधारण किसान से लेकर शासकों तक को ब्याज पर कर्ज देते थे।
कायस्थ
कायस्थों का समाज में महत्वपूर्ण स्थान था। राजपूताने में भटनागर एवं माथुर कायस्था अधिक प्रभावशाली थे। मुगलों के आगमन के पश्चात् कायस्था कों राजस्व अभिलेख रखने, शासकीय अभिलेख तैयार करने एवं पत्राचार आदि करने के काम में विशेष प्रसिद्धि मिली। वे फारसी के जानकार एवं प्रशासनिक कार्य में दक्ष माने जाते थे। शासन व्यवस्था पर उनका अच्छा प्रभाव होता था इसलिये उन्हें कई बार युद्धों का नेतृृृत्व करने का भी अवसर दिया जाता था। जोधपुर एवं जयपुर राज्य में भी कायस्थों को विशेष महत्व दिया जाता था। उन्हें राजपूत राज्यों की ओर से दूसरे राज्यों में वकील नियुक्त किया जाता था।
चारण
मध्यकालीन राजपूत शासित समाज में चारणों का भी प्रमुख स्थान था। वे भी काव्य रचना करने, राजा के संदेश वाहक का काम करने, तथा विभिन्न भूमिकाएं निभाने में सिद्धहस्त थे। चारणों को अवध्य माना जाता था। जो राजा चारण का अपमान करता था अथवा हत्या करता था, उसके शासन को पापयुक्त माना जाता था। चारण का पेट भरना शासन का कर्त्तव्य माना जाता था। इसलिये उन्हें ब्राह्मणों की तरह दान दिया जाता था। चारणों को दान में दी गई जागीर राज्य द्वारा वापस नहीं ली जाती थी। चारणों की बारहठ, वीठू, आशिया, दधवाड़िया, खिड़िया, सिंढायच आदि शाखाएं बहुत प्रसिद्ध थीं। चारण स्वामिभक्त जाति होती थी जो युद्ध क्षेत्र में राजा के साथ रहकर उसके मनोबल उन्नयन का कार्य करती थी। चारण जाति ने मध्यकाल में विपुल डिंगल साहित्य की रचना की।
भाट
मध्यकालीन समाज में राजपूताने में हर जाति का भाट होता था। वह परिवार की वंशावली लिखता था। विवाह आदि पर्वों पर भाट उस जाति एवं परिवार का विरुद बखानते थे जिसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। भाटों का मुख्य व्यवसाय मांग कर खाना होता था किंतु भाट केवल अपने जजमान के यहां से ही मांगकर खाता था। कुछ भाट किसान हो गये थे तथा कुछ किसान छोटा-मोटा व्यवसाय भी करते थे। मारवाड़ राज्य में पचपद्रा से नमक ले जाने का काम करने वाले भाट व्यापारियों को बल्दिया कहते थे। जजमान इस बात का ध्यान रखता था कि भाट नाराज होकर सामाजिक रूप से अपने जजमान की बदनामी न कर दे।
राव
चारणों, भाटों की तराह राव जाति के लोग भी वंशावलियां लिखते थे। उन्होंने अपनी बहियों के माध्यम से प्रदेश के इतिहास और रीति रिवाजों को लेखनी बद्ध करके उसे सदियों तक जीवित रखा। रावों ने पिंगल भाषा में काव्य कृतियों एवं लोक गीतों की रचनाएं करके प्रदेश के शासक एवं जन सामान्य वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति की।
कृषक जातियाँ
मध्यकाल में राजपूताने की प्रमुख कृषक जाति जाट थी जो कृषि कर्म में अत्यंत निष्णात मानी जाती थी। जाटों से ही विश्नोई अलग हुए। विश्नोइयों का मुख्य कार्य कृषि कर्म ही था। कृषक वर्ग में कुनबी, कलबी, कीर, धाकड़, गूजर, माली, अहीर आदि जातियां भी थीं। मुसलमानों के आने से पहले भारत की कृषि जातियों में सम्पन्नता थी। मुसलमानों के आक्रमण के बाद किसानों की हालत खराब होने लगी किंतु राजपूताने के कृषक 17वीं शताब्दी तक अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में बने रहे। अठारहवीं शताब्दी में मराठों की लूटमार आरम्भ होने के कारण राजपूताने की कृषि उजड़ने लगी तथा किसानों पर ऋण चढ़ने लगा। अब राजपूताने की कृषक जातियां भी दो आब की जातियों की तरह दुखी हो गईं।
हाथ से काम करने वाली जातियाँ
मध्यकाल में राजपूताने में सैंकड़ों ऐसी जातियां निवास करती थीं जो अपने अलग कार्य के लिये जानी जाती थीं। नाई बाल काटता था। लुहार लोहे के हथियार, उपकरण एवं अन्य सामग्री बनाता था। धुनिया कपास धुनता था। जुलाहा कपड़े बुनता था। छींपा अथवा रंगरेज कपड़े रंगता था। दर्जी कपड़े सिलता था। खाती लकड़ी का काम करता था। धोबी कपड़े धोता था। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, मटके, दिये आदि बनाता था। सुनार सोने-चांदी के आभूषण बनाता था। तेली बीजों से तेल निकालता था। लखारा, मणियार, भडभूंजा, कलाल, मोची, भांभी, मेघवाल, सरगरा आदि जातियां अपना-अपना निर्धारित करती थीं।
आभूषण बनाने वाली जातियाँ
मध्यकाल में लखारा, सुनार तथा मणिहार आदि जातियों ने आभूषणों के निर्माण एवं उनके व्यवसाय का विकास किया। राजस्थान में सोने का उत्पादन नहीं होता था, इसलिये सोना बाहर से मंगावाया जाता था। मेवाड़ की खानों से चांदी का उत्पादन होता था। इस कारण चांदी के आभूषण बहुतायत से बनते थे। आदिवासी लोग ताम्बे, सीप, रंगीन पत्थर एवं मिट्टी से बने मनकों के आभूषण भी पहनते थे।
गायक जातियाँ
राजस्थान में रहने वाली गायक जातियों में कलावंत, ढाढ़ी, मिरासी, ढोली, रावल, डोम, राणा, लंगा, भोपा, सांसी, कंजर, जोगी तथा भवई आदि प्रमुख थीं। कालबेलिया, कठपुतली नट, लखारा तथा भाट आदि जातियाँ भी गाकर एवं नाचकर अपना पेट भरती थीं।
घुमक्कड़ जातियाँ
मध्यकाल की प्रमुख घुमक्कड़ जातियों में बनजारे तथा गाड़िया लुहार थीं। बनजारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर सामान बेचते थे। गाड़िया लुहार जाति राजपूतों से निकली थी। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जब अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार किया तब जो राजपूत वीर युद्ध में काम नहीं आ सके उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और प्रण किया कि जब तक चित्तौड़ पर पुनः हिंदुओं का अधिकार नहीं हो जाता तब तक चित्तौड़ की भूमि पर पैर नहीं रखेंगे। अकबर से चित्तौड़ की पराजय का बदला लेंगे। बसे-बसाये घरों में नहीं रहेंगे। जब चित्तौड़ दुर्ग में हिंदुओं का दिया नहीं जलेगा तब तक रात में दिया नहीं जलायेंगे। कुंओं से पानी भरने के लिये रस्सी नहीं रखेंगे तथा पलंग पर नहीं सोयेंगे। जब तक जियेंगे हथियार बनायेंगे। उन्होंने चित्तौड़ की धरती को वचन दिया कि वे फिर आयेंगे। यही क्षत्रिय गाड़िया लुहार कहलाने लगे। उनका परिवार बैल गाड़ियों पर रहता था तथा। ये लोग दूर-दूर तक घूमते रहते थे। चार सौ वर्ष बीत जाने पर भी गाड़िया लुहार पुनः चित्तौड़ नहीं लौट पाये। गाड़िया लुहार लोहे के छोटे-मोटे उपकरण, कृषि के औजार एवं घरेलू बर्तन बनाकर आजीविका कमाने लगे। आज भी वे यही कार्य कर रहे हैं।
चरवाहा जातियाँ
मध्यकाल में रेबारी, राजपूताने की प्रमुख चरवाहा जाति थी। ये लोग राजा एवं जमींदार के पशु चराया करते थे। कुछ रेबारियों के पास अपने पशु झुण्ड भी थे। भेड़ों एवं ऊँटों के टोले लेकर ये दूर-दूर तक के चारागाहों की यात्रा करते थे। अकाल पड़ने पर मारवाड़ एवं ढूंढाढ़ आदि प्रदेशों से मालवा की ओर चले जाते थे। ये लोग राजा के घोड़े चराने के काम पर भी रखे जाते थे। यह एक उच्च आर्य जाति थी तथा अपनी अलग संस्कृति का निर्वहन करती थी।
आदिवासी जातियाँ
मध्यकालीन राजपूताना में भील, मीणा, गरासिया, काथोड़िया, सहरिया तथा गमेती आदि आदिवासी जातियाँ निवास करती थीं। मेवाड़, आम्बेर, सिरोही, टोंक, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कोटा, बंूदी तथा झालावाड़ आदि क्षेत्रों में आदिवासी काफी संख्या में निवास करते थे। राजस्थान का दक्षिणी क्षेत्र विशेष रूप से कोटड़ा, झाड़ौल, सलूम्बर, सराड़ा, खेरवाड़ा तहसीलें और सम्पूर्ण डूंगरपुर राज्य आदिवासियों से भरे पड़े थे। आदिवासी लोग जंगलों और पहाड़ों में छितराये हुए मैदानों में खेती करते थे। कृषि वर्षा पर निर्भर थी। जंगलों से घास, चारा, लकड़ी, गांेद, कंदमूल, तेंदूपत्ते, जानवारों की खाल, आदि एकत्र कर उसे कस्बों और शहरों में लाकर बेचना इनका मुख्य व्यवसाय था। भील जाति मेवाड़ में सैनिक जाति के रूप में भी प्रख्यात थी। मीणा जाति आम्बेर राज्य में जागीरदार एवं चौकीदार के रूप में विख्यात थी। जमींदार मीणा प्रायः खेती एवं पशुपालन करते थे। कुछ लोग लूट-पाट भी करते थे। बारां जिले के शाहबाद और किशनगंज आदि क्षेत्रों में सहरिया जनजाति परम्परागत रूप से निवास करती थी।
दास वर्ग
प्राचीन आर्यों के समय से भारत में दास प्रथा प्रचलन में थी। मौर्य काल में दासों की स्थिति बहुत ही खराब थी। वे समाज में रहते हुुए भी अन्य नागरिकों की तरह जीवन यापन नहीं करते थे। उनका जीवन कष्टों और अभावों से भरा हुआ था। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणों के पश्चात् यह स्थिति और अधिक विकट हो गई। मुसलमान आक्रांता किसी भी व्यक्ति, स्त्री अथवा बच्चे को पकड़कर ले जाते थे और मध्य एशियाई देशों में ले जाकर बेच देते थे। जब मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में अपनी राजसत्ता स्थापित की तो देश में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। राजपूताना भी इससे अछूता नहीं रहा। राजपूताने के दास किसी जाति अथवा वर्ग से सम्बन्धित नहीं थे। न ही वे बाजारों में बेचे अथवा खरीदे गये थे। राजपूताने में दास प्रथा का जन्म शासक परिवारों की अवैध संतानों के रूप में हुआ। राजाओं एवं जमींदारों के महलों में काम करने वाली सेविकाएं इन संतानों की माता हुआ करती थीं। ये संतानें बड़ी होकर महल में सेवा चाकरी करने लगती थीं जिन्हें दास माना जाता था। इन्हें अछूत नहीं माना जाता था। कुछ प्रतिभाशाली दासों की नियुक्ति किलेदारों एवं दरोगा आदि के पदों पर की जाती थी। दासियांे को डावड़ी कहा जाता था। सुंदर दासियां महलों में अच्छा-खासा प्रभाव रखती थीं।
अछूत समझी जाने वाली जातियाँ
आर्यों ने श्रम आधारित जिस चार वर्णीय सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया था, उस व्यवस्था में मुसलमानों के प्रभाव से बहुत बड़ी विकृति उत्पन्न हुई। निम्न समझे जाने वाले कार्यों को करने वाली जातियां अछूत समझी जाने लगीं। इनमें मैला ढोने वाली, चमड़े का काम करने वाली तथा मृत पशुओं की खाल उतारने वाली जातियां सम्मिलित थीं। इस वर्ग में सम्मिलित जातियों में निरंतर विस्तार होता चला गया।
मुसलमान
मध्यकाल में राजपूताने के विभिन्न राज्यों में मुसलमान भी निवास करने लगे थे। इनमें से कुछ मुसलमान शाही सैनिकों एवं अधिकारियों के रूप में राजपूताने के राज्यों एवं मुस्लिम शासित क्षेत्रों में रहते थे किंतु अधिकांश मुसलमान वे थे जो ना-ना कारणों से हिन्दू धर्म त्यागकर मुसलमान हो गये थे। मुसलमानों की विभिन्न शाखाएं मध्यकाल में ही विकसित होने लगी थीं जिनमें कायमखानी, मेव, सैयद, पठान, काजी आदि सम्मिलित थे। इनमें भी जातियां बनने लगी थीं। छींपा जाति के मुसलमान भी राजपूताने में बड़ी संख्या में निवास करते थे। मुसलमानों के साथ ही कसाई भी बसने लगे थे।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मध्यकाल का समाज जटिल जातीय व्यवस्था में विभक्त था। हर जाति का अपना काम था। इस काम के आधार पर ही उन्हें समाज में अधिक या कम आदर प्राप्त होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। हाथ से काम करने वाली जातियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। सतत युद्धों के उपरान्त भी राज्यों की अर्थव्यवस्था संतोषजनक थी किंतु मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद समाज की अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आया। इस कारण विभिन्न जातियों को अपने परम्परागत कार्यों के साथ-साथ विभिन्न कार्य अपनाने पड़ रहे थे। जाति व्यवस्था को बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जातीय पंचायतें प्रमुख भूमिका निभा रही थीं।
सामाजिक जीवन
राजपूत राज्यों में प्राचीन आर्यों द्वारा विकसित पितृ-सत्तात्मक संरचना वाले संयुक्त परिवार निवास करते थे। परिवार का मुखिया अपनी तीन-चार और यहां तक कि पांच-पांच पीढ़ियों के साथ रहता था। भूमि का बंटावारा नहीं किया जाता था इसलिये सब भाई तथा उनकी संतानें मिलकर खेती, पशुपालन एवं विविध कार्य किया करते थे। इसके कारण कुटीर उद्योग एवं पारिवारिक व्यवसाय का प्रचलन था।
सोलह संस्कार
मनुष्य के जीवन के लिये सोलह संस्कार आवश्यक माने जाते थे। इनमें नामकरण, अन्न-प्राशन, चूड़ाकरण (झड़ूला), उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि आदि प्रमुख थे।
विवाह
समाज की संरचना बहुत सरल थी। कन्या का विवाह कम आयु में ही कर दिया जाता था। इसके पीछे धारणा यह थी कि कन्या को अपने पिता के घर में राजस्वला नहीं होना चाहिये। विवाह अपनी ही जाति में होता था किंतु एक ही रक्त वाले स्त्री-पुरुष परस्पर भाई-बहिन समझे जाते थे और उनका परस्पर विवाह नहीं होता था। इसलिये गोत्र आधारित विवाह किये जाते थे। राजपूतों एवं वैश्यों में बहु-विवाह प्रचलित था। राजपूत एवं अन्य धनी लोग उपपत्नियां भी रखते थे जिन्हें उनकी हैसियत के अनुसार रखैल, पासवान, पडदायत अथवा खवास कहा जाता था। विवाह के अवसर पर कुनबे वालों को भोज दिया जाता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलन में नहीं था। जाट, माली, गूजर, कुम्हार आदि श्रम आधारित जातियों में नाता प्रथा प्रचलित थी जिसमें विधवा स्त्री का विवाह उसके ससुराल पक्ष के अथवा किसी अन्य परिवार के पुरुष से कर दिया जाता था। जाति से बाहर विवाह करने वालों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था।
मृतक संस्कार
मृतक संस्कार को आवश्यक धार्मिक कर्त्तव्य समझा जाता था। शव को अग्नि में जलाया जाता था। उसकी राख एवं हड्डियों को नदियों में प्रवाहित किया जाता था। मृत्यु भोज देना अनिवार्य था। मृतक की आत्मा की शांति के लिये ब्राह्मणों एवं भूखों को भोजन दिया जाता था। समय-समय पर श्राद्ध कर्म भी किया जाता था।
वस्त्राभूषण
मनोरंजन प्रिय संस्कृति होने के कारण राजपूताने में विविध प्रकार के चटख रंगों के वस्त्र पहने जाते थे। शासक एवं सामंत वर्ग के लोग बड़ी धोती, लम्बी अंगरखी तथा रंग-बिरंगी पगड़ियां पहनते थे। कपड़ों पर सोने-चांदी के तारों एवं कसीदे का काम किया जाता था। मध्यम वर्ग के लोग धोती, अंगरखी, दुपट्टा, साफा या पगड़ी पहनते थे। निर्धन लोग कमर में ऊँची धोती तथा सिर पर पोतिया बांधते थे। औरतें घेरदार घाघरा, लम्बी आस्तीन वाली कुर्ती तथा ओढ़नी पहनती थीं। मुगलों के सम्पर्क के बाद बहुत से पुरुष जामा, कमरबंद और पाजामा पहनने लगे थे। स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। सम्पन्न लोग सोने के, मध्यम लोग चांदी के, निर्धन लोग ताम्बे एवं पीतल के आभूषण पहनते थे। स्त्रियां शुभ अवसरों पर हाथ-पैरों पर मेहंदी लगाती थीं। वे आंखों में काजल, माथे पर बिंदी तथा सिर में मांग लगाती थीं।
आमोद प्रमोद
मध्यकालीन राजपूताना में घरों के भीतर एवं चौराहों आदि पर सार्वजनिक रूप से चौपड़, शतरंज, गंजीफा, चर-भर, आदि खेल खेले जाते थे। कुश्ती, पट्टेबाजी, पतंगबाजी, कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई, तैराकी, हाथियों की लड़ाई, भैंसों की लड़ाई, आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। गायन, वादन एवं नृत्य के आयोजन पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर आयोजित किये जाते थे। राजपूत लोग शिकारों का आयेाजन करते थे। झूला झूलना, नाटक आयोजित करना, विभिन्न प्रतियोगिताओं तथा मेलों का आयोजन करना भी मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
खान-पान
समाज में शाकाहार एवं मांसाहार का प्रचलन था। वैश्य एवं ब्राह्मण शाकाहारी थे। अन्य जातियों में प्रायः मांसाहार होता था। दैनिक भोजन में गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, जौ, चना आदि अनाजों एवं अनेक प्रकार की दालों एवं हरी सब्जियों का प्रयोग होता था। विवाह आदि अवसरों पर अफीम से मनुहार की जाती थी। शराब का भी प्रचलन था। सात्विक प्रवृत्ति के लोग शराब नहीं पीते थे। भोजन के बाद एवं चौपालों पर हुक्के पीने का प्रचलन था। सामान्य दिनों में दाल-रोटी, सब्जी रायता आदि खाया जाता था। विवाह, त्यौहार एवं अतिथि आगमन पर खीर, पुए, लड्डू, गुलगुले आदि बनाये जाते थे। मुरब्बे, अचार, चटनी आदि भी प्रचलन में थे। दूध, दही, घी, छाछ एवं मक्खन का प्रयोग आर्थिक स्थिति के अनुसार होता था। मांसाहारी लोग हिरण, बकरा, भेड़ एवं सूअर आदि पशुओं तथा मुर्गा एवं बत्तख आदि पक्षियों का मांस खाते थे। समस्त राजपूताना में हिन्दू राज्य होने गाय का मांस पूरी तरह निषिद्ध था।
धर्म
मध्यकालीन रापजूताने में वैदिक एवं पौराणिक धर्म का प्रचलन था। विष्णु, लक्ष्मी, शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि देवी-देवताओं की पूजा होती थी। दान करना, यज्ञ करना, तीर्थ यात्राओं पर जाना, कीर्तन एवं रतजगा करना श्रेष्ण धार्मिक कर्त्तव्य माने जाते थे। मंदिर, प्याऊ एवं धर्मशाला बनाना, सदाव्रत बांटना, तालाब खुदवाना भी धार्मिक कर्म के रूप में प्रचलित थे। अमावस्या एवं संक्रांति के अवसरों पर नदियों एवं तालाबों में स्नान करने का महत्व था। समाज में विभिन्न व्रत एवं उपवास भी प्रचलन में थे। वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव एवं शाक्त मत भी प्रचलन में थे। शाक्त लोग देवी को भैंसे एवं बकरे की बलि चढ़ाते थे। शैव धर्म की नाथ शाखा राजपूताने में विशेष रूप से सक्रिय थी। राजपूताने के विभिन्न राज्यों में जैन धर्म का भी प्रभाव था। विभिन्न तीर्थंकरों के मंदिर बने हुए थे जिनमें पूजा होती थी। लोकदेवताओं की भी पूजा प्रचलन में थी। गोगा, पाबू, हड़बू, रामदेव, मल्लीनाथ, वीर तेजा, मांगलिया मेहा आदि लोक देवताओं की पूजा होती थी तथा उनके जन्मदिन एवं निर्वाण दिन पर मेले लगते थे। संतों एवं गुरुओं को विशेष आदर दिया जाता था। समाज पर कबीर, दादू, रैदास, मीरां आदि संतों के भजनों का प्रभाव था। रामस्नेही सम्प्रदाय भी प्रसिद्ध हो गया था। मुस्लिम लोग इस्लाम को मानते थे। अजमेर एवं नागौर में सूफियों के बड़े केन्द्र स्थापित हो गये थे।
सामाजिक एवं धार्मिक पर्व
मध्यकालीन राजपूताना में हिन्दुओं के समस्त छोटे-बड़े सामाजिक एवं धार्मिक पर्व मनाये जाते थे। होली, दीपावली, रक्षा बंधन, गणगौर, तीज, दशहरा, अक्षय तृतीया, नवरात्रि, प्रमुख त्यौहार थे। विभिनन त्यौहारों के अवसर पर मेलों का आयोजन किया जाता था। मुसलमानों में ईदुलफितर, ईदुलजुहा, बारा-बफात, मुहर्रम आदि मनाये जाते थे।
सामाजिक बुराइयाँ
मध्यकालीन राजपूताने में सती प्रथा सबसे बड़ी सामाजिक बुराई थी। यह राजपूतों में अधिक प्रचलन में थीं। राजपूतों में पति के मरने पर उसकी पत्नियां प्रायः सती हो जाती थीं। कई बार अग्रवाल आदि वैश्य स्त्रियां भी सती होती थीं। किसी के मरने पर मृत्युभोज आयोजित किया जाता था। दहेज प्रथा किसी न किसी रूप में हर जाति एवं वर्ग में प्रचलित थी। राजपूत परिवारों द्वारा अपनी पुत्रियों के विवाह के अवसर पर दास-दासी भी दहेज में दिये जाते थे। डाकन-प्रथा का बहुत ही बुरा प्रचलन था। किसी भी आयु की औरत को डाकन घोषित करके उसे जान से मार डाला जाता था। राजपूत जातियों में कन्या-वध का प्रचलन था। राजपूत परिवारों मंे विवाह के अवसर पर चारणों, ढोलियों तथा भाटों को त्याग दिया जाता था। इस प्रथा को त्याग-प्रथा कहा जाता था। त्याग प्राप्त करने वाले, अपने जजमानों से झगड़ा करके अधिक से अधिक त्याग प्राप्त करने की चेष्टा करते थे। इस भय के कारण भी कन्या वध अधिक संख्या में होता था। कुछ लोग लड़कियों से वेश्यावृत्ति करवाने, गृह दासी बनाने के लिये लड़कियों को खरीदते एवं बेचते थे। साधु लोग अपने चेले-चेली बनने के लिये भी लड़के-लड़कियां खरीदते थे। इसे चेला प्रथा कहते थे।
अर्थव्यवस्था
मध्यकाल में राजपूताना के राज्यों में अर्थव्यवस्था जटिल नहीं हुई थी। कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग, खनिज उत्पादन, जंगल के साथ-साथ वाणिज्य एवं व्यापार भी उस काल की अर्थ व्यवस्था में प्रमुख योगदान देते थे।
कृषि
राजा समस्त भूमि का सैद्धांतिक स्वामी था। व्यवहार में काश्तकार तब तक कृषि भूमि का स्वामी था जब तक वह लगान देता रहता था। राजा किसी को भी राज्य की भूमि जागीर, दान एवं अनुदान में दे सकता था। वह जागीर अथवा दान में दी हुई भूमि को वापस भी ले सकता था। राज्य की समस्त भूमि खालसा, जागीर, भोम, सासण के रूप में बंटी हुई थी। खालसा भूमि पर राजा का प्रत्यक्ष नियंत्रण होता था। लगान निर्धारित करने तथा उसकी वसूली का काम राज्य के कर्मचारी करते थे। सामंतों एवं जागीरदारों को राजकीय सेवा के बदले में भूमि जागीर में दी जाती थी। ऐसी भूमि का बेचान अथवा हस्तांतरण राजा की स्वीकृति से ही हो सकता था। भोमिया को दी गई जमीन भोम और ब्राह्मणों, भाटों, चारणों आदि को पुण्यार्थ दी गई भूमि सासण एवं माफी के नाम से जानी जाती थी। पशुओं के लिये रिक्त रखी गई भूमि चरणोत या गोचर कहलाती थी। इस पर पूरे गांव का अधिकार होता था।
भूमि की ऊर्वरता के आधार पर उसका श्रेणीकरण एवं वर्गीकरण किया गया था तथा उसी के आधार पर लगान अथवा भोग तय किया जाता था। एक चमड़े के पात्र (चड़स) से से सींची जाने वाली भूमि को कोशवाहक कहते थे। तालाब की भूमि को तलाई, नदी के किनारे वाली भूमि को कच्छ, कुएं के पास वाली भूमि को डीमडू, गांव के पास वाली भूमि को गोरमो, कहा जाता था। उपज के हिसाब से भी भूमि के अलग-अलग नाम होते थे। सिंचाई वाली भूमि को पीवल, पानी से भरी हुई को गलत हांस, जोती जाने वाली भूमि को हकत-बहत, काली उपजाऊ भूमि को माल, पहाड़ी जमीन को मगरो, गांव से दूर की भूमि को कांकड़, बागवानी में प्रयुक्त भूमि को बाड़ी कहा जाता था। भूमि के टुकड़ों को कातका या बतका कहते थे। खेती के लिये लोहे एवं लकड़ी के हल, कुदाल, फावड़ा, कस्सी एवं जेई आदि उपकरणों का प्रयोग होता था। हल खींचने का काम मुख्यतः बैल करते थे। ऊँटों से भी हल खींचा जाता था।
राजपूताना के राज्यों में सर्दी में होने वाली फसल को सियालू (रबी) एवं गर्मी में होने वाली फसल को उनालू (खरीफ) कहा जाता था। सियालू में गेहूं, जौ, चना तथा उन्हालू में बाजरा, ज्वार, मूंग, मोठ प्रमुखता से होते थे। मालवा से लगने वाले पठारी क्षेत्र में थोड़ा बहुत चावल, गन्ना, कपास एवं उड़द भी पैदा किया जाता था। प्रतापगढ़ तथा माल की भूमि में अफीम भी पैदा होती थी। सिंचाई के साधन सीमित थे। तालाबों, कुंओं एवं नहरों के माध्यम से सिंचाई होती थी। कुंओं एवं बावड़ियों से रहट, चड़स अथवा ढीकली के माध्यम से पानी खींचकर खेतों में पहुंचाया जाता था।
खालसा भूमि में राजा की ओर से तथा जागीर भूमि में जागीरदार की ओर से भू-राजस्व वसूल किया जाता था। सामान्यतः उपज का एक तिहाई अथवा एक चौथाई कर वसूल किया जाता था। कर निर्धारण की अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित थीं। इनमें से लाटा, कूंता, बंटाई आदि अधिक लोकप्रिय थीं। मुगलों से सम्पर्क होने के बाद राहदारी, बाब, पेशकश, जकात, गनीम आदि अनेक नये कर प्रचलन में आ गये थे। अकाल में किसानों की हालत बहुत खराब हो जाती थी। मुगलों से सम्पर्क के बाद राजपूताना राज्यों में इजारेदारी प्रथा आरंभ हो गई थी। इस प्रथा में राज्य द्वारा एक निश्चित अवधि के लिये एक निश्चित राशि के बदले में लगान वसूली का अधिकार किसी भी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। इसे मुकाता भी कहते थे। इजारा उस व्यक्ति को दिया जाता था जो इजारे की राशि की अधिक से अधिक बोली लगाता था।
उद्योग धंधे
राजपूताने में कच्चा माल, सस्ता श्रम तथा सस्ती खनिज सम्पदा उपलब्ध थी। इस कारण तैयार माल अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता था। उस काल में सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सूतली, सन की रस्सी, मूंझ की रस्सी टाटपट्टी, गलीचे, कम्बल, लकड़ी का सामान, मिठाई, कपड़ा, कागज, नमक, खार, सज्जी आदि के उद्योग अच्छे चलते थे। उद्योगों का स्वरूप प्रायः कुटीर उद्योग था जिसमें परिवार के सब सदस्य मिलकर काम करते थे। भरतपुर, मारवाड़, जयपुर, बीकानेर, मेवाड़ आदि राज्यों में कई जगहों पर नमक बनता था।
सूती कपड़ा उद्योग: देलवाड़ा, पाली, सिरोंज, अजमेर, सांगानेर, आकोला, भरतपुर, उदयपुर, चित्तौड़, कोटा, कैथून, मांगरोल, बूंदी आदि स्थान सूत कातने, कपड़ा बुनने, रंगाई, छपाई और बंधाई के बड़े केन्द्र बन गये। कोटा में मलमल बनाने का काम होता था। यहां की चूंदड़ी और कसूमल पगड़ियां प्रसिद्ध थीं। बूंदी राज्य में डोरिया, शैला, जोड़ा और अंगोछे बनते थे। मारवाड़ राज्य के मारोठ और जालोर परगनों में हाथ से कती और बुनी रेजी (गाढ़ा कपड़ा) बनता था। आम्बेर राज्य में सांगानेर और बगरू की छपाई एवं रंगाई प्रसिद्ध थी। कोटा की सुनहरी-रूपहरी छपाई एवं बारां की चूंदड़ी और पोमचा की बंधाई प्रसिद्ध थी। जयपुर और जोधपुर में भी बंधेज का काम होता था जिससे चूंदड़ी बनती थी।
ऊनी कपड़ा उद्योग: जैसलमेर, मारवाड़, बीकानेर तथा शेखावाटी में ऊनी वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था में था।
लोहे का सामान: नागौर में मुलतान से आये कारीगर लोहे के हथियार, सुनारी एवं लुहारी के उपकरण, खेती के औजार, तराजू के बाट आदि बनाते थे। सिरोही में भी अच्छी तलवारें बनती थीं। बूंदी में कटार, उस्तरे, चाकू तथा तलवारें बनती थीं। जोधपुर, पाली और सोजत में भी लोहे की सामग्री बनती थी। पाली में लोहे के संदूक, कड़ाहियां और बड़े-बड़े कड़ाह बनते थे।
आभूषण उद्योग: जयपुर में हीरे-जवाहरातों से जड़े आभूषण एवं लाल रंग की मीनाकार का काम होता था। जोधपुर में आभूषणों की घड़ाई तथा पटवे का काम (आभूषणों को रेशमी एवं सूती डोरी से बांधने का काम) होता था। जोधपुर में हाथी दांत की चूड़ियां बनती थीं।
बर्तन उद्योग: जयपुर आदि कई नगरों में पीतल, ताम्बे, कांसे एवं लोहे के बर्तन बनते थे। जयपुर में पीतल के बर्तनों पर नक्काशी का काम बहुत सुंदर होता था। नागौर में पीतल के बर्तन बनते थे।
चर्म उद्योग: पशुओं की बहुतायत होने से राजपूताने में चर्म उद्योग काफी विकसित अवस्था में था। चमड़े से मशक, जूते, तिरपाल, तम्बू, पैकिंग थैले, घोड़े की जीन, रस्से, चड़स आदि बनते थे जो देश के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ दूसरे देशों को निर्यात किये जाते थे। भीनमाल तथा जोधपुर आदि कई नगरों में जूतों पर कसीदाकारी की जाती थी।
काष्ठ उद्योग: राजपूताने के जंगलों में कई प्रकार की इमारती लकड़ी उपलब्ध होने से काष्ठ उद्योग भी विकसित अवस्था में था। लकड़ी के कृषि उपकरण, बैल गाड़ियां, ऊँट गाड़ियां, कोठियां, बक्से, पलंग, खाट एवं घर में काम आने वाली कई प्रकार की सामग्री बनती थी।
विविध उद्योग: राजपूताने के विविध नगरों में सुगन्धित तेल एवं इत्र बनाने का काम होता था। मुगलों के सम्पर्क के बाद इस काम में और तेजी आई। शरबत और शराब बनाने का उद्योग भी विस्तार पा चुका था। किशनगढ़, सांगानेर, जयपुर, जोधपुर आदि बहुत से स्थानों पर मोटा कागज बनता था। जयपुर एवं जोधपुर में लाख की चूड़ियां बड़े स्तर पर बनती थीं।
व्यापार एवं वाणिज्य
मध्यकाल में स्थानीय, अंतर्राज्यीय एवं अंतर्प्रादेशिक व्यापार खूब उन्नति कर गया था। विश्व के बहुत से देशों से विभिन्न सामग्री भारत लाई जाती थी और यहाँ से दूसरे देशों को ले जाई जाती थी। भारत की राजधानी दिल्ली तथा बहुत से उत्तरी राज्यों को दक्षिण में जाने के लिये राजपूताने से होकर निकलना पड़ता था। इस कारण राजपूताने के विभिन्न राज्यों में व्यापार एवं वाणिज्य की स्थिति बहुत अच्छी थी।
प्रमुख व्यापारिक मार्ग
उन दिनों में सड़कें पक्की नहीं होती थीं। कच्चे मार्गों पर यात्रा करना बहुत कठिन था। वर्षा एवं आंधी के कारण यात्रा बहुत थकाने वाली होती थी। डाकुओं और लुटेरों का खतरा भी बना रहता था। फिर भी पूरे देश में विभिन्न व्यापारिक मार्ग विकसित हो गये थे जिनमें से अनेक मार्ग राजपूताने के विभिन्न राज्यों से होकर निकलते थे। दिल्ली-आगरा से गुजरात और मालवा होकर दक्षिण जाने वाले राज्य राजपूताना से होकर गुजरते थे। दिल्ली से अजमेर के लिये दो प्रमुख मार्ग थे। एक दिल्ली से आगरा, भरतपुर एवं आमेर होकर था और दूसरा दिल्ली से अलवर और आमेर होकर। अजमेर से अहमदाबाद के दो प्रमुख मार्ग थे। एक अजमेर से माण्डलगढ़, चित्तौड़, उदयपुर तथा डूंगरपुर होकर था और दूसरा अजमेर से पुष्कर, पाली तथा पालनपुर होकर था। मुल्तान से अहमदाबाद का मार्ग भावलपुर, लोद्रवा तथा जैसलमेर होकर था। बीकानेर से अहमदाबाद का मुख्य मार्ग नागौर, मेड़ता, पाली और पालनपुर होकर था। दिल्ली से सिन्धु नदी का मुख्य मार्ग बीकानेर होकर था। उदयपुर से बांसवाड़ा और डूंगरपुर होकर भी मालवा जाने का मार्ग था। जयपुर से उज्जैन का मार्ग सांगानेर, टोंक, बूंदी, कोटा और झालरापाटन होकर था। राजपूत राज्यों की समस्त राजधानियां सहायक मार्गों द्वारा प्रमुख मार्गों से जुड़ी हुई थीं। राजपूताने के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र या तो मुख्य मार्गों पर स्थित थे अथवा सहायक मार्गों से सम्बन्न्धित थे। मुख्य तथा सहायक मार्गों पर व्यापारियों तथा अन्य यात्रियों की सुविधा के लिये सराय, कुएं तथा विश्राम स्थल बने हुए थे।
प्रमुख व्यापारिक केन्द्र
राजपूताना के आम्बेर राज्य में मालपुरा, सीकर और चिड़ावा, मारवाड़ में पाली, नागौर और भीनमाल, मेवाड़ में भीलवाड़ा, कमलमीर और रायपुर, बीकानेर राज्य में चूरू, नोहर और राजगढ़, कोटा राज्य में अंता, बारां और मांगरोल प्रमुख मण्डियां थीं। पाली नगर समस्त सम्पूर्ण भारत के प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों में से था। यहां भारत की बनी हुई वस्तुओं के साथ-सााथ अफ्रीका, यूरोप तथा चीन से भी सामान पहुंचता था। पाली के मार्ग से ही मालवा की अफीम चीन और पश्चिमी एशिया को निर्यात की जाती थी। अफीम से लदे हुए लगभग दो हजार ऊँट प्रति वर्ष पाली से होकर निकलते थे। टीन के बक्सों में बंद किया हुआ यूरोप का माल भावनरगर एवं अन्य बंदरगाहों पर उतारकर पाली भेजा जाता था। व्यापारिक करों तथा राहदारी शुल्क द्वारा पाली मण्डी से मारवाड़ राज्य को प्रतिवर्ष अच्छी आय होती थी। बीकानेर राज्य के राजगढ़ में भी प्रमुख व्यापारिक केन्द्र विकसित हो गया था जहाँ विभिन्न दिशाओं से आने वाले व्यापारिक काफिले ठहरते थे। कश्मीर, पंजाब, हांसी, हिसार आदि से माल आता था। दिल्ली की ओर से रेशम, चीनी, लोहा, तम्बाखू मालवा की ओर से अफीम, सिंध की ओर से गेहूँ, चावल, गुजरात की ओर से मसाले, टिन, दवाइयाँ, नारियल, हाथी दांत लेकर व्यापारी यहां से होकर गुजरते थे।
मुल्तान और शिकारपुर से जैसलमेर के मार्ग से छुआरा, गेहूँ, चावल, सूखे मेवे आदि आते थे। जैसलमेर- मुल्तान, शिकारपुर, हैदराबाद (सिन्ध), अमरकोट, खैरपुर, रौरी, बेकर अहमदपुर, भावलपुर आदि व्यावसायिक नगरों से जुड़ा हुआ था। पाली, नागौर, फलौदी, पोकरण, पूगल, बीकानेर, बाड़मेर, शिव, कोटड़ा, आदि नगरों से हुए हुए व्यापारी जैसलमेर पहुंचते थे। जैसलमेर नगर के मध्य में पूंजीपति लोग व्यापारिक लेन-देन के लिये बनजारों से घिरे हुए रहते थे। वस्त्र, मिष्ठान, आभूषण आदि विभिन्न सामग्रियों के क्रय-विक्रय के अलग-अलग स्थान निर्धारित थे। जैसलमेर में विभिन्न दिशाओं से अनाज से लदे हुए ऊँट आते थे।
व्यापारिक परिवहन
राजपूताना के विभिन्न राज्यों से विविध प्रकार की सामग्री का दुनिया भर के देशों में निर्यात किया जाता था। इसके लिये राजपूताना से सामग्री खरीद कर व्यापारिक काफिले विभिन्न बंदरगाहों तक पहुंचते थे जहां से यह सामग्री अन्य देशों तक पहुंचती थी। स्थलीय परिवहन के लिये बैलगाड़ियों, ऊँटों, ऊँट गाड़ियों, घोड़ों, टट्टुओं, गधों, हाथियों और रथों का उपयोग किया जाता था। व्यापारिक सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का काम बनजारे करते थे। एक सामान्य बनजारे के पास 200 से 500 तक मालवाहक पशु होते थे। बड़े बनजारों के पास इनकी संख्या 2000 तक होती थी। बनजारों के काफिले को बालद कहा जाता था। राजपूत राज्यों के राजा एवं जागीरदार, व्यापारियों से कर एवं शुल्क लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे। अधिकांश व्यापारी अपने काफिलों के साथ चारणों को रखते थे क्योंकि उस काल में चारणों को अवध्य माना जाता था, उन्हें लूटा नहीं जाता था तथा आदर दिया जाता था। इस कारण बहुत से लुटेरे चारणों का कहना मानकर काफिले को लूटे बिना ही चले जाते थे। व्यापारिक काफिलों के साथ सशस्त्र रक्षक भी चलते थे। फिर भी स्थानीय शासक अथवा जागीरदार से अभय प्राप्त किये बिना व्यापारिक परिवहन संभव नहीं था।
निर्यात
राजपूताना के विभिन्न राज्यों से कपास, सूती कपड़ा, छींट का कपड़ा, रंगा हुआ कपड़ा, चूंदड़ी का कपड़ा, चमड़ा, चमड़े की सामग्री, ऊन, ऊन से बने हुए कम्बल एवं गलीचे, रस्से, नमक, अफीम, भांग, गांजे, विभिन्न प्रकार के उपयोगी पशु तथा पशुओं की खालें, घी, तिलहन, तेल, अनाज आदि विभिन्न प्रकार की जिंसों का निर्यात किया जाता था। मुल्तानी मिट्टी तथा संगमरमर पत्थर भी बंदरगाहों तक पहुंचाये जाते थे। सांभर झील से प्राप्त नमक सांभरी नमक कहलाता था। इसकी मांग उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में अधिक थी। पचपद्रा का नमक कोसिया कहलाता था। इसकी मांग मध्यप्रदेश में अधिक थी। डीडवाना का नमक डीडू कहलाता था। इसकी मांग पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में थी। हाड़ौती तथा मेवाड़ में पोस्त की खेती की जाती थी। इसके रस से अफीम तैयार की जाती थी। जैसलमेर, मारवाड़, बीकानेर तथा शेखावाटी के मरुक्षेत्रों में भेड़पालन बहुतायत से होता था। इन क्षेत्रों से ऊन, ऊनी कम्बल, ऊनी दरियां, ऊन के मोटे रस्से, जहाजों पर बिछाने के लिये मोटे ऊनी गलीचे निर्यात किये जाते थे। आम्बेर राज्य के मालपुरा से ऊनी टोपियां, ऊनी लोई (पतली ऊनी चद्ददर) और कम्बलों का निर्यात होता था। नागौर तथा ओसियां भी ऊन तथा ऊन से बनी सामग्री का बड़ी मात्रा में निर्यात होता था।
आयात
मध्यकाल में मालवा, पंजाब, कश्मीर तथा गुजरात आदि विभिन्न क्षेत्रों के बड़े व्यापारियों की दुकानें मारवाड़ के विभिन्न राज्यों में खुली हुई थीं, उसी प्रकार राजपूताने के व्यापारियों की दुकानें भारत के विभिन्न क्षेत्रों में खुली हुई थीं। इन दुकानों पर दुनिया भर की सामग्री बिकने के लिये आती थी। समय-समय पर हाट बाजारों एवं मेलों का भी आयोजन होता था जिनमें समुद्रों के किनारे एवं पहाड़ी क्षेत्रों में पैदा होने वाली विभिन्न सामग्री यथा खजूर, सूखा मेवा, शराब, दाख, नारियल, नारियल की चटाइयां, मखमल, बुरहानपुरी साड़ियां, बनारसी साड़ियां, गुजराती रेशम, कश्मीरी शॉल, औरंगाबादी कपड़े, सारंगपुर की पगड़ियां, हाथी, घोड़े बिकने के लिये आते थे। इस सामग्री की राजपूताने में भारी मांग थी।
चुंगी एवं राहदारी
मध्यकाल में व्यापारिक आयात-निर्यात पर चुंगी तथा राहदारी लगती थी। विभिन्न राज्यों के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर चुंगी चौकियां स्थापित की हुई थी। राज्य में उत्पादित माल जब राज्य की सीमा से बाहर जाता था तो उसे निकासू कहते थे। इस पर अधिक चुंगी देनी होती थी। इसे सायर कहते थे। राज्यों की सीमा से गुजरने वाले सामान को बहतीवान कहा जाता था। इस पर बहुत कम शुल्क लगता था जिसे राहदारी कहते थे। राज्य में आने वाले माल को आमद कहा जाता था इस पर निकासू माल की अपेक्षा कम चंुगी लगती थी। इनके अतिरिक्त मापा, दलाली तथा परगना शुल्क भी लगता था। जागीरदारों को भी शुल्क देना पड़ता था। हर राज्य में अपनी चुंगी पद्धति होती थी। अनाज आदि वस्तुओं पर प्रति बैल, ऊँट अथवा खच्चर पर लदे हुए बोझ के हिसाब से चुंगी ली जाती थी, न कि सामान के मूल्य के आधार पर। किराणा सम्बन्धी वस्तुओं पर भी सामान के वजन के हिसाब से चुंगी ली जाती थी। मनिहारी के सामान पर सामान के मूल्य के आधार पर चुंगी ली जाती थी।
मुद्रा
व्यापार एवं विपणन के लिये राजपूताने में मुद्रा का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता आया है। मध्यकाल में विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रकार की मुद्राएं प्रचलित थीं। इनके आकार, तोल एवं मूल्य में भिन्नताएं थीं। महारणा कुंभा के समय से पहले भी राजपूताने में सोने, चांदी और ताम्बे के सिक्के प्रचलन में थे जिन्हें टक्का कहते थे। इनका वजन चार माशा होता था। तुर्कों और मुगलों के समय में दिल्ली सल्तनत और मुगलों के सिक्के चलन में आ गये जिनको फिरोज आलमशाही, शालमशाही, नौरंगशाही और अकबरी सिक्के कहते थे। इनमें चांदी की मात्रा अधिक होती थी। उस समय में ताम्बे के पैसे को फदिया, ढीगला तथा ढब्बूशाही सिक्का कहा जाता था। मुगल शासकों के समय में लगभग समस्त राजपूत राजाओं के पास सिक्का ढालने का अधिकार नहीं रहा किंतु मुगलों के कमजोर पड़ते ही समस्त राज्यों ने अपने-अपने सिक्के ढालने आरम्भ कर दिये। बड़े राज्यों में कुछ बड़े जागीरदारों को भी सिक्का ढालने की अनुमति दे दी गई। मेवाड़ में सलूम्बर के जागीरदार को तथा मारवाड़ राज्य में कुचामन के जागीरदार को सिक्का ढालने का अधिकार दिया गया। समस्त राज्यों में राजपूताने के समस्त राज्यों के सिक्कों को स्वीकार किया जाता था किंतु उनकी विनिमय दर अलग-अलग होती थी तथा एक्सचेंज के बदले में सिक्के के वास्तविक मूल्य में से बट्टा काट लिया जाता था। विनिमय दर समय-समय पर घटती-बढ़ती रहती थी। इसका मूल कारण सट्टा होता था। साहूकारों द्वारा सिक्का विनिमय किये जाने के अवसर पर लोगों को ठगा जाता था।
हुण्डी
वस्तुओं के आयात-निर्यात का भुगतान हुण्डी प्रथा से होता था। इसे आज के बैंकरर्स चैक अथवा ड्राफ्ट की तरह समझा जा सकता है। जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर रुपयों की आवश्यकता होती थी तब हुण्डी के द्वारा भुगतान भेजा जाता था। इस राशि पर 16 प्रतिशत मासिक ब्याज देना होता था। हुण्डी प्रायः मुद्दती होती थी इस कारण उस पर ब्याज अधिक लिया जाता था।
ब्याज
उस अवधि में सामान्यतः 9 से 12 प्रतिशत ब्याज दर प्रचलित थी। साहूकार बढ़ी हुई दरों पर कर्ज देकर मूल से देकर मूल से भी अधिक ब्याज वसूल कर लेते थे। और गरीब किसाना का सर्वस्व लूट लेते थे। परंतु कहीं-कहीं आध रुपया तो कहीं एक रुपया प्रति सैंकड़ा के हिसाब से काटा लिया जाता था और कटवामिति ब्याज लिया जाता था। बड़े मंदिरों के पुजारी भी ब्याज पर रुपया उधार दिया करते थे।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मध्यकालीन राजपूताना में कई प्रकार के उद्योग धंधे विकसित अवस्था में थे जिसके कारण लोगों को रोजगार की विशेष कठिनाई नहीं थी तथा लोगों की आय भी संतोषजनक थी।