आजाद हिन्द फौज की सफलताओं का मूल्यांकन
आजाद हिन्द फौज के नायकों और सैनिकों में देश भक्ति की उज्जवल भावना थी। उन्होंने भारत को अँग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिये भारत में प्रवेश करने की योजना बनाई परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चों पर जापान की पराजय के साथ ही आजाद हिन्द फौज की योजना असफल हो गई किंतु आजाद हिन्द फौज की झोली में कई सफलताएं हैं-
(1.) आजाद हिन्द फौज ने भारत की स्वतन्त्रता के प्रश्न को ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकालकर अन्तर्राष्ट्रीय चिंता का विषय बना दिया।
(2.) भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में यह एक अनूठी घटना थी। इससे पहले ऐसा अद्भुत प्रयास और किसी ने नहीं किया था।
(3.) संसार के अन्य देशों के इतिहास में ऐसी घटना देखने में नहीं आती कि हजारों देशभक्तों ने अपने देश को साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिये देश के बाहर रहकर सशस्त्र सेना का निर्माण किया हो और साम्राज्यवादियों की सेना पर धावा बोला हो।
(4.) आजाद हिन्द फौज के पास संसाधनों का अभाव था फिर भी सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़े। उनकी पुरानी किस्म की बंदूकंे, साम्राज्यवादियों को परास्त करने में सक्षम नहीं थीं। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। वे युद्ध के मोर्चे पर भूखे-प्यासे रहकर लड़े और देश की आजादी के लिये शहीद हो गये।
(5.) उन्होंने कई मोर्चों पर अपने से अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को कई बार पीछे धकेल कर भूमि पर अधिकार किया तथा उसे अपने अधिकार में रखा।
(6.) आजाद हिन्द फौज ने कुछ समय के लिये रंगून को अपने अधिकार में रखा तथा रंगून की रक्षा के लिये वीरता से लड़ाई की।
(7.) आजाद हिन्द फौज ने जिस अनुपम त्याग, शौर्य और बलिदान का परिचय दिया भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का गौरवमय अध्याय है। हमें उसकी वीर गाथाओं से सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।
(8.) आजाद हिन्द फौज के सेनापति नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतवासियों को जयहिन्द का नारा दिया जो आज भी हर भारतीय की छाती गर्व से फुला देता है।
(9.) नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारत की भूमि से बाहर रहकर स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की जिसे जापान, इटली तथा जर्मनी आदि देशों ने मान्यता प्रदान की। ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
(10.) आजाद हिन्द फौज ने कांग्रेसी नेताओं के मन में घबराहट उत्पन्न कर दी। उन्हें लगा कि सुभाष बाबू किसी भी दिन अपनी सेना लेकर दिल्ली में उतर जायेंगे तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में आने के बजाय सुभाषचंद्र बोस के हाथों में चली जायेगी। इस कारण कांग्रेस ने, अँग्रेजों से सत्ता लेने के प्रयास तेज कर दिये। गांधी ने करो या मरो तथा अभी नहीं तो कभी नहीं जैसे नारे दिये। अहिंसावादियों की अहिंसा का हिमालय पिघल गया। जवाहरलाल नेहरू ने घबराकर वक्तव्य दिया कि हम भारत की भूमि पर सुभाष का सामना तलवारों से करेंगे।
(11.) जब अँग्रेज सरकार ने आजाद हिन्द फौज के 60,000 सैनिकों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो रॉयल इण्डिया नेवी के 200 सामुद्रिक बेड़ों ने विद्रोह कर दिया और बम्बई के बंदरगाह पर आकर लंगर डाल दिया। जहाजों पर तैनात तोपों का मुंह बंदरगाह के प्रवेश द्वार की तरफ कर दिया गया। 22 और 24 फरवरी 1946 को चिंचपोकली एवं आर्य नगर आदि उपनगरों की जनता ने सड़कों पर उतर कर विद्रोही सैनिकों के समर्थन में प्रदर्शन किया। भारत की वायुसेना और नौ सेना में बगावत फैल गई। बम्बई, कराची, कलकत्ता, मद्रास आदि नौ बंदरगाहों में हड़ताल हो गई। विद्रोही सैनिकों ने आजाद हिंद फौज के बिल्ले धारण किये। अँग्रेज अधिकारियों ने हड़ताली सैनिकों पर गोलियां चलाईं। हड़ताली नौ-सैनिकों ने गोली का जवाब गोली से दिया।
(12.) वायु सैनिकों एवं नौ सैनिकों की हड़ताल से प्रभावित होकर थल सेना में भी बगावत फैल गई। जबलपुर भारतीय सिगलन कोर के 300 जवानों ने हड़ताल पर जाने की घोषणा की। इस घोषणा से द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चों पर विजय प्राप्त करने वाले अँग्रेजों के हाथ-पैर फूल गये। इस हड़ताल के ठीक एक माह बाद ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन की घोषणा की ताकि भारतीयों को अंतिम रूप से सत्ता का हस्तांतरण किया जा सके। यही कारण था कि नेताजी की मृत्यु के दो वर्ष बाद ही भारत को आजादी मिल गई।
क्या सुभाषचंद्र बोस फासिस्ट थे !
साम्राज्यवादी अँग्रेजों तथा दक्षिणपंथी-कांग्रेसियों ने सुभाषचंद्र बोस पर फासिस्ट होने का आरोप लगाया है। यहाँ तक कि वामपंथी-कांग्रेसी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू ने भी सुभाष बाबू पर यह आरोप लगाया है परन्तु यह आरोप सही नहीं है। सुभाष बाबू फासिस्टवादी नहीं थे, वे राजनीतिक यथार्थवादी थे। वे भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त देखना चाहते थे। वे अँग्रेजी साम्राज्य को किसी भी प्रकार से भारत से बाहर कर देना चाहते थे। उन्होंने न तो अँग्रेजों के बनाये संविधान की परवाह की और न गांधीजी के आधे-अधूरे और लिजलिजे अहिंसावाद को अपनाया। सुभाष ने जीवन की शुरुआत राजनीति के क्षेत्र से की किंतु वे शीघ्र ही समझ गये कि भारत की आजादी का रास्ता युद्ध के मोर्चों पर जाकर ही खोला जा सकता है। उन्होंने 1930 से 1938 ई. तक मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू एवं गांधी के साथ कांग्रेस में रहकर राजनीति की। कांग्रेस द्वारा अपमानित किेय जाने से क्षुब्ध होकर उनका राजनीति से मोहभंग हो गया और वे देश छोड़कर चले गये। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों से लाभ उठाते हुए, भारत की मुक्ति का उपाय ढूंढा और आजाद हिन्द फौज लेकर देश की सीमा पर आ डटे। वे जान चुके थे कि राष्ट्रों का निर्माण और उनकी मुक्ति के निर्णय युद्ध के मोर्चों पर होते हैं जिन्हें शांति और समझौते की मेजों पर बैठकर अन्य लोगों द्वारा हथिया लिया जाता है। फिर भी उन्होंने युद्ध के मोर्चे खोले और भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।
यह सही है कि सुभाष ने फासिस्टवादी और नाजीवादी शक्तियों की सहायता ली किंतु वे स्वयं कभी भी फासिस्टवादी या नाजीवादी नहीं बने। उनके विरुद्ध एक भी ऐसा प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि वे फासिस्टवादी या नाजीवादी थे। सुभाष बाबू को बदनाम करने के लिये ही अँग्रेजों एवं कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें फासिस्टवादी कहा। सुभाष बाबू को तोजो का कुत्ता कहकर भी अपमानित किया गया। ऐसी स्थिति में भी सुभाष ने आजाद हिन्द फौज की ब्रिगेडों के नाम गांधी ब्रिगेड तथा नेहरू ब्रिगेड रखे। यदि वे फासिस्टवादी होते तो ऐसा किसी भी हालत में नहीं करते, वे अपनी ब्रिगेडों के नाम इटली, जर्मनी और जापान के नेताओं के नाम पर रखते। ऐसा करने से उन्हें कौन रोक सकता था? वे सुभाष ही थे जिन्होंने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से अपने संदेश प्रसारण में गांधीजी को राष्ट्रपति की उपाधि से प्रथम बार सम्बोधित किया। उनके शब्दों का ही जादू था कि आजादी के बाद गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा जाने लगा तथा हर भारतीय अपने भाषण के अंत में जयहिन्द बोलने लगा।
सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रवादी थे!
सुभाषचंद्र बोस भारत के राजनीतिक गगन पर सबसे दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह हैं। जब भविष्य में भारतीय राजनीति के अनेक चमकते सितारे बुझकर निष्प्रभ हो जायंगे तथा विस्मृति की ठोकरें खाकर इधर-उधर बिखर जायेंगे, तब भी सुभाषचंद्र बोस, धु्रव तारे की तरह अटल रहकर भारतवासियों को दिशा दिखाते रहेंगे। सुभाषचंद्र बोस यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे। उनके अनुसार गांधीवाद के पास समाज निर्माण की कोई वास्तविक योजना नहीं थी। सुभाष का मानना था कि भारत में साम्यवाद भी नहीं पनप नहीं सकता, क्योंकि साम्यवाद, राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करता और वह समस्त विश्व में विद्रोह कराना चाहता है। जबकि आम भारतीय राष्ट्रवादी है, वह विद्रोही नहीं है। भारत संसार के उन गिने चुने देशों में से है जहाँ के नागरिक अपने देश को, अपने परिवार एवं अपने शरीर से भी अधिक प्रेम करते हैं। सुभाष के इन्हीं विचारों के कारण उन पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि वे फासिस्ट थे जबकि सत्य यह है कि वे राष्ट्रवादी थे। वे जीवन के आरम्भ में भी राष्ट्रवादी थे और जीवन के मध्य तथा अन्त में भी राष्ट्रवादी रहे। राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये उन्होंने युद्ध क्षेत्र में प्राण न्यौछावर किये।
सुभाष बाबू संसार के अकेले ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने नौकरशाहों की सबसे बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण की, वे राजनीति में चरम शिखर तक पहुंचे तथा सशस्त्र सेना का निर्माण कर उसके अध्यक्ष बने।