फ्लोरेंस से लगभग 85 किलोमीटर की दूरी पर पीसा नामक शहर है जहाँ झुकी हुई मीनार स्थित है। दूरबीन के आविष्कारक गैलीलियो का जन्म ई.1564 में इसी पीसा शहर में हुआ था। हम सही समय पर रेल्वे स्टेशन पहुँच गए। फ्लोरेंस से प्रत्येक आधे घण्टे में पीसा के लिए ट्रेन है। यहाँ कई हॉल थे जिनमें बहुत से टिकट काउंटर बने हुए थे।
एक हॉल में कम से कम दो दर्जन कतारें लगी हुई थीं। समझ ही नहीं आ रहा था कि पीसा के लिए टिकट कहाँ से मिलेगी। प्रत्येक काउण्टर पर इटैलियन भाषा में ही सूचनाएं लिखी हुई थीं। हमें लगा कि हम भारत के ही पंजाब या आंध्रप्रदेश जैसे किसी प्रांत में आ गए हैं जहाँ रेल्वे स्टेशन, ट्रेन और बसों पर स्थानीय भाषाओं में ही सूचनाएं लिखी जाती हैं।
मैंने एक काउण्टर पर बैठे कर्मचारी से पूछा कि हमें पीसा का टिकट कहाँ से मिलेगा, तो उसने कहा कि हमारी कम्पनी पीसा के टिकट नहीं बेचती। इसके लिए हमें दूसरे हॉल में जाना पड़ेगा। अंततः इसी तरह की पूछताछ करते हुए हम लोग किसी तरह पीसा की टिकट वाले हॉल में पहुँचे। मैं एक कतार में लग गया।
यहाँ मैंने एक सरदारजी को देखा। यदि ये हिन्दी नहीं तो अंग्रेजी तो अवश्य ही समझते होंगे, मैंने मन में सोचा और उनसे पीसा के लिए टिकट खिड़की के बारे में पूछा। सरदारजी ने अपनी अंगुली एक थड़ी की तरफ घुमाई और बोले- ‘उत्थे जाओ!’
यह एक छोटी सी स्टॉल थी जहाँ सिगरेट से लेकर की-चेन, पर्स, बेल्ट जैसी चीजें बिक रही थीं। काउण्टर पर कोई अधेड़ महिला थी जिसके हाथ बहुत धीरे चल रहे थे। वह कई तरह के काम एक साथ कर रही थी। यहाँ तक कि लोगों को जीरोक्स कॉपी करके भी दे रही थी। अंततः मेरा नम्बर भी आ ही गया।
टिकट बहुत महंगा था। एक घण्टे की यात्रा की दूरी के लिए उसने 8.6 यूरो अर्थात् 688 रुपए प्रति व्यक्ति चार्ज किए। हम टिकट लेकर फिर से प्लेटफॉर्म के वेटिंग ऐरिया में आ गए और इलैक्ट्रोनिक पैनल को आशा भरी दृष्टि से देखने लगे। जैसे ही इलैक्ट्रोनिक पैनल पर हमारी ट्रेन का प्लेटफॉर्म नम्बर फ्लैश हुआ, हम लोग तेज कदमों से प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ गए। क्योंकि ट्रेन के चलने का समय हो चला था।
यह एक शानदार चमचमाती हुई लक्जरी ट्रेन थी। जैसे ही हम ट्रेन में सवार हुए, ट्रेन चल पड़ी। मानो केवल हमारी ही प्रतीक्षा कर रही थी। ट्रेन में भीड़ तो नहीं थी किंतु यह खाली भी नहीं थी। हमारे जैसे हजारों पर्यटक पीसा जा रहे थे। ट्रेन में मधु के पास बैठी एक यूरोपियन लेडी ने मधु की साड़ी को छूकर पूछा- ‘इज इट सारी?’ जब मधु ने उसे हाँ में जवाब दिया तो बोली- ‘इट इज वैरी ब्यूटीफुल। इण्डियन वीमन वीयर इट।’
मधु ने मुस्कुराकर उसकी बात का समर्थन किया तो वह बहुत खुश हुई। जिस प्रकार हम इटैलियन परिवारों को उत्सुकता भरी दृष्टि से देखते थे, वह एक इण्डियन परिवार को इतनी निकटता से देखकर खुश थी किंतु वह संभवतः इटैलियन नहीं थी, किसी दूसरे यूरोपीय देश की थी।
हम लगभग 12.30 बजे पीसा रेल्वे स्टेशन पर उतरे। स्टेशन के बाहर से ही बसें मिलती हैं। यहाँ ट्राम सेवा नहीं है। बस का टिकट काउंटर प्लेटफार्म पर ही एक ओर बना हुआ था। हम टिकट लेकर बस में बैठ गए। जब हम बस से उतरे तो हमें पीसा की मीनार दिखाई देने लगी।
यहाँ बहुत भीड़ थी। पीसा की मीनार को देखकर कोई भी दर्शक आश्चर्य में पड़ सकता है। यह अपने धरातल पर कम से कम 10 से 12 डिग्री झुकी हुई है। इतनी ऊंची बिल्डिंग का इतना झुक जाना और फिर भी नहीं गिरना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मीनार पर शानदार रंग-रोगन किया गया है जिसके कारण यह ऐसी दिखाई देती है मानो इसे आज ही बनाया गया हो!
इटली की सरकार ने इसे गिरने से रोकने के लिए इसके चारों ओर खुदाई करके काफी नीचे तक सीमेंट कंकरीट भर दिया है। कहा जाता है कि तब से इस मीनार का झुकना बंद हो गया है।
फ्लोरेंस की अपेक्षा यहाँ ठण्ड अधिक थी। इसलिए धूप और अधिक अच्छी लगने लगी। पिताजी तो मीनार के परिसर में जाते ही एक बड़े से लॉन में लेट गए। आज हम पॉलिथीन की बरसातियां लाना नहीं भूले थे, इसलिए उन बरसातियों ने तकिए का काम किया। इसी लॉन में हमने खाना खाया। रोम और फ्लोरेंस की तरह यहाँ भी सार्वजनिक निःशुल्क नागरिक सुविधाएं नहीं थीं।
यहाँ टॉयलेट के लिए 0.8 यूरो (64 भारतीय रुपए) लिया जा रहा था। हम खाना खाकर लॉन में बैठे ही थे कि मेरा ध्यान अपनी जेब पर गया। मेरी जेब में मधु का और मेरा पासपोर्ट रहता था किंतु इस समय दोनों पासपोर्ट मेरी जेब में नहीं थे। मुझे लगा कि अवश्य ही कहीं गिर गए हैं या छूट गए हैं। या फिर जेब कट गई है।
मैंने अपनी चिंता विजय तथा मधु को बताई तो मधु ने कहा कि उसने पासपोर्ट कल शाम को मेरे बैग में रखे थे। यह सुनकर मेरी चिंता काफी कम हो गई किंतु जब तक आंखों से देख न लें, तब तक निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। अतः हम लगभग साढ़े तीन बजे ही वहाँ से लौट पड़े। अन्यथा एक घण्टे और रुक सकते थे।
हम लोग कुछ ही कदम चले होंगे कि पीछे से पिताजी की आवाज आई। मैंने पीछे पलट कर देखा तो पिताजी हम से लगभग 20-25 कदम दूर थे और तेज कदमों से हमारी तरफ आ रहे थे। उन्होंने बताया कि उन्हें अभी-अभी दो जेबकतरों ने घेर लिया था। एक जेब कतरे ने उनसे समय पूछा, जब पिताजी घड़ी देखने लगे तो दूसरे व्यक्ति ने पिताजी के पीछे से उनके कुर्ते की दोनों जेबों पर हाथ रखकर जेबें टटोलनी शुरु कर दीं। पिताजी ने जैसे ही जोर से कहा- ‘व्हाट आर यू डूइंग’ वैसे ही वे दोनों जेबकतरे ‘सॉरी-सॉरी’ कहते हुए भाग छूटे।
हम हैरान थे, इतने लोगों के बीच दिन-दहाड़े वे ऐसा करने की हिम्मत रखते थे! क्या इटली की पुलिस को ज्ञात नहीं होगा कि ये दोनों जेब कतरे हैं और यहाँ विदेशी पर्यटकों के बीच घूम रहे हैं!
हमने मीनार के कैम्पस से बाहर आकर बस-टिकट की तलाश शुरु की। अब तक हमें ज्ञात हो चुका था कि जिस दुकान पर टिकट मिलते हैं, उनके बाहर BILGITTIE लिखा होता है। हमें एक रेस्टोरेंट के बाहर BILGITTIE लिखा हुआ दिख गया। रेस्टोरेंट में हमें वह महिला भी दिख गई जिसने मधु से ट्रेन में साड़ी के बारे में पूछा था। उसने टिकट खरीदने में हमारी सहायता की।
उसी रेस्टोरेंट के सामने से रेलवे स्टेशन के लिए बस मिलती थी। हम बस पकड़कर कुछ ही मिनटों में पीसा रेल्वे स्टेशन पर पहुँच गए। यहाँ केवल तीन टिकट विण्डो थीं। मैं एक विण्डो पर जाकर लाइन में लग गया। जैसे ही मेरा नम्बर आया, विजय ने मेरे पास आकर सूचित किया कि उसने वेंडिंग मशीन से टिकट खरीद लिया है। मैं पंक्ति से बाहर आ गया।
मैंने पिताजी को बताया कि यहाँ टिकट खिड़की पर रेलवे कम्पनी की ओर से स्टिकर लगाकर पर्यटकों को सावधान किया गया है कि वे टिकट खरीदते समय अपनी जेब का ध्यान रखें, यहाँ आपकी जेब कट सकती है। हम समझ गए कि गैलीलियो का पीसा आजकल जेब-कतरों की गिरफ्त में है।
फ्लोरेंस आकर मैंने रेलवे स्टेशन पर स्थित उसी क्योस्क पर सम्पर्क किया जहाँ से मैंने सुबह टिकट खरीदे थे। इस समय कोई और महिला कर्मचारी यहाँ काम कर रही थी। मैंने उससे पूछा कि क्या आपको यहाँ कोई इण्डियन पासपोर्ट मिला है, तो उसने अनभिज्ञता प्रकट की और मुझे सलाह दी कि मैं तुरंत पुलिस को फोन करूं। हमने पुलिस से सम्पर्क करने की बजाय पहले सर्विस अपार्टमेंट में जाकर अपना बैग चैक करने का निर्णय लिया।
हम इस बार ट्राम में नहीं बैठे, पैदल चलकर ही सर्विस अपार्टमेंट पहुँचे। केवल एक किलोमीटर पैदल चलकर हमने 1.5 यूरो के हिसाब से 5 टिकटों के पूरे 600 रुपए बचा लिए थे। जब घर में घुसे तो शाम के साढ़े पाँच बजने को थे। हमने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि पासपोर्ट बैग में ही थे।
चाय पीकर हमने हिसाब लगाया तो ज्ञात हुआ कि हमारी इस छोटी सी यात्रा पर हमें ट्रेन, बस एवं ट्राम के टिकटों के लिए 9,280 रुपए व्यय करने पड़े थे। जबकि खाने-पीने के लिए तो वैसे भी इटली की दुकानों में हमारे लिए कुछ नहीं होता और हमने, निःसंदेह, टॉयलेट के लिए भी कुछ व्यय नहीं किया था।
हमने चाय पीते-पीते एक बार फिर भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव के परिणाम देखे। भारत में इस समय रात्रि के नौ बज चुके थे। एकाध सीट को छोड़कर सभी सीटों के परिणाम आ गए थे। बीजेपी ‘अब की बार तीन सौ पार’ से भी आगे निकल गई थी और एनडीए ‘तीन सौ तिरपेन’ जीत चुकी थी। अचानक मुझे याद आया कि एक बार इटली वालों की पार्टी ने चुनावों में ‘टू सेवंटी टू’ (भारतीय लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा) का नारा दिया था जिसे पत्रकार लोग बिगाड़कर ‘तू सेवंती तू’ कहा करते थे।
किचन में एमरजेंसी
मधु ने सूचित किया कि इस बार आटा अधिक तेजी से समाप्त हो रहा है। इसलिए उसने रोम की मकान मालकिन द्वारा दी गई एक किलो मैदा और भानु द्वारा नोएडा से लाई गई एक किलो सूजी और एक किलो बेसन भी आटे में मिला लिए ताकि आटे की मात्रा बढ़ सके। हुआ यह था कि इस बार हमने चावल, पोहा, दलिया का बहुत कम उपयोग किया था जबकि इण्डोनेशिया की यात्रा में हम नाश्ते में पोहा तथा डिनर में चावल, दलिया एवं खिचड़ी ही बनाते थे।
चपातियां केवल दोपहर के भोजन में बनती थीं। जबकि इस बार सुबह के नाश्ते में परांठे बन रहे थे और दोपहर तथा शाम को चपातियां बन रही थीं। अतः आज से किचन में एमरजेंसी लागू कर दी गई और एक समय दलिया, खिचड़ी एवं चावल आदि बनने लगे। मैं पिछले दो दिन से डायरी नहीं लिख पा रहा था।
अतः आज शाम को बाहर जाने की बजाय डायरी लिखने बैठ गया। एक दिन की डायरी आज लिखी और एक दिन की डायरी लिखने का काम अगले दिन के लिए छोड़ा।