बीस वर्ष तक दिल्ली सल्तनत पर शासन करने के बाद सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ई.1266 में मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसने अपनी मृत्यु से पहले ही अपने गुलाम तथा राज्य के प्रधानमंत्री बलबन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया जो कि सुल्तान का श्वसुर भी था। दिल्ली सल्तनत के इतिहास में आगे बढ़ने से पहले हमें दिल्ली के नए सुल्तान बलबन की पिछली जिंदगी में झांकना होगा।
गयासुद्दीन बलबन का जन्म इल्तुतमिश की भांति तुर्कों के इल्बरी कबीले में हुआ था। बलबन के बचपन का नाम बहाउद्दीन था। बलबन का पिता दस हजार कुटुम्बों का खान था। जब बलबन किशोर अवस्था में था, उसे मंगोलों ने पकड़ लिया तथा उसे ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी नामक एक तुर्क के हाथों बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी, बलबन की प्रतिभा से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसे शिक्षा दिलवाकर सुयोग्य तथा सभ्य व्यक्ति बना दिया। ख्वाजा उसे दिल्ली ले आया। ई.1232 में सुल्तान इल्तुतमिश ने बलबन को खरीद लिया।
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इल्तुतमिश ने बलबन की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे ‘खास सरदार’ बना दिया जिससे वह चालीस गुलामों के दल का सदस्य हो गया। सुल्तान रुकुनुद्दीन फीरोजशाह के काल में सुल्तान का विरोध करने के कारण बलबन को कारागार में डाल दिया गया परन्तु रजिया सुल्तान के काल में बलबन फिर से अपने पुराने पद पर बहाल हो गया।
थोड़े ही दिन बाद रजिया ने बलबन को ‘अमीरे शिकार’ बना दिया। यदि बलबन ने निष्ठापूर्वक रजिया सुल्तान की सेवा की होती तो इस बात की प्रबल संभावना थी कि अबीनीसियाई हब्शी गुलाम याकूत के स्थान पर बलबन को ही अमीरे आखूर नियुक्त किया जाता तथा बलबन ने रजिया सुल्तान का विश्वास जीत लिया होता किंतु बलबन भी अन्य तुर्की अमीरों की तरह इस बात में विश्वास करता था कि एक औरत को सुल्तान नहीं बनना चाहिए। इसलिए बलबन ने रजिया को पदच्युत करने में विद्रोहियों का साथ दिया था।
जब रजिया का भाई अल्लाउद्दीन मसूदशाह दिल्ली का सुल्तान हुआ तो उसने बलबन को ‘अमीरे आखूर’ के पद पर नियुक्त किया और उसे हांसी तथा रेवाड़ी की जागीरें भी प्रदान कर दीं। ई.1245 में मंगोलों ने सिंध क्षेत्र पर आक्रमण किया। इस पर सुल्तान मसूदशाह ने बलबन को एक विशाल सेना देकर मंगोलों के विरुद्ध सैनिक अभियान पर भेजा। बलबन ने मंगोलों को न केवल सिंध से बाहर कर दिया अपितु मंगोलों की भागती हुई सेना का पीछा करके बड़ी क्रूरता से उनका संहार किया। इस कारण मंगोल बलबन के नाम से ही कांपने लगे। इससे प्रसन्न होकर सुल्तान मसूदशाह ने बलबन को ‘अमीरे हाजिब’ के पद पर नियुक्त कर दिया।
ई.1246 में बलबन ने मसूदशाह के स्थान पर उसके चाचा नासिरुद्दीन को सुल्तान बनाने के अभियान में प्रमुखता से भाग लिया। जब नासिरुद्दीन दिल्ली का सुल्तान बन गया तो नासिरुद्दीन ने बलबन को अपना प्रधान परामर्शदाता तथा ‘नायब-ए-मुमालिक’ अर्थात् सल्तनत का प्रधानमंत्री बनाया।
एक गुलाम के लिए इतनी बड़ी सल्तनत के प्रधानमंत्री पद पर पहुँच जाना बड़ी उपलब्धि थी। कहा जाता है कि जब नासिरुद्दीन ने बलबन को प्रधानमंत्री बनाया तो उसने बलबन से कहा- ‘मैंने शासन तंत्र तुम्हारे हाथ में सौंप दिया है इसलिये कभी ऐसा काम मत करना जिससे तुम्हें और मुझे अल्लाह के सामने लज्जित होना पड़े।’
नासिरुद्दीन शांत स्वभाव का सुल्तान था इसलिये बलबन सदैव उसके प्रति स्वामिभक्त रहा। ई.1249 में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन के साथ कर दिया। इससे सल्तनत में बलबन का रुतबा बढ़ गया तथा वह सुल्तान का अत्यंत विश्वासपात्र बन गया।
ई.1249 में सुल्तान नासिरुद्दीन ने बलबन को ‘उलूग खान’ की उपाधि दी। इस प्रकार वह ‘मलिक’ से ‘खान’ बन गया। सल्तनत के समस्त अमीरों अर्थात् चालीसा मण्डल का ‘प्रधान’ और सुल्तान का ‘नायब’ अर्थात् प्रधानमंत्री तो वह था ही। इस प्रकार नासिरुद्दीन की धार्मिकता तथा उदारता के कारण बलबन को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने और आगे बढ़ने का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ। बलबन ने अपने समस्त दायित्वों एवं कर्त्तव्यों को बड़ी योग्यता के साथ पूरा किया।
बलबन की बढ़ती हुई शक्ति के कारण बहुत से अमीर उससे ईर्ष्या करने लगे। प्रतिभावान लोग प्रायः निरंकुश तथा मनमौजी हुआ करते हैं। बलबन के काम करने का तरीका भी मनमौजी था। यहाँ तक कि कई बार सुल्तान नासिरुद्दीन भी उसके कामों से असंतुष्ट हो जाता था। ई.1252-53 में जब बलबन दिल्ली से बाहर था तब कुछ अमीरों ने सुल्तान के कान भरकर बलबन को अपदस्थ करवा दिया। सुल्तान के आदेश से बलबन हांसी की जागीर पर चला गया।
बलबन के साथ ही सुल्तान नासिरुद्दीन ने बहुत से पुराने अमीरों को उनके पदों से हटा दिया। काजी मिनहाज उस् सिराज को भी उसके पद से हटा दिया गया। शीघ्र ही बलबन को पदच्युत करने के दुष्परिणाम सामने आने लगे और सल्तनत का काम बिगड़ने लगा। अतः विवश होकर ई.1254 में सुल्तान ने बलबन को फिर से दिल्ली बुला लिया। अब बलबन राज्य का सर्वेसर्वा हो गया और सुल्तान की मृत्यु तक राज्य का वास्तविक शासक बना रहा। वास्तव में इल्तुतमिश के बाद सुल्तान नासिरुद्दीन ही इतनी दीर्घ अवधि तक शासन कर सका था। इसका सम्पूर्ण श्रेय बलबन को जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में बलबन ने इस्लाम के प्रसार के लिये कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने दिया।
18 फरवरी 1266 को सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसने अपने जीवन काल में अपने श्वसुर गयासुद्दीन बलबन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। सुल्तान की मृत्यु के बाद बलबन बिना किसी विरोध के दिल्ली का सुल्तान हो गया। इब्नबतूता तथा इसामी आदि परवर्ती लेखकों ने उसे राज्य हड़पने वाला बताया है किंतु आधुनिक इतिहासकारों ने इस धारणा को निराधार बताया है।
ई.1266 में सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद बलबन दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बन गया। इसी कारण बलबन के लिए कहा जाता है कि- ‘वह गुलाम से बना मलिक, मलिक से बना खान और और खान से बन गया सुल्तान।’ बलबन ने भारत में एक नवीन राजवंश की स्थापना की जिसे इतिहासकारों ने बलबनी वंश तथा द्वितीय इल्बरी वंश कहा है।
गियासुद्दीन बलबन ने सुल्तान बनने के बाद ‘जिल्ले इलाही’ की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है- ‘अल्लाह का प्रतिबिंब।’ कुछ समय बाद उसने ‘नियामत-ए-खुदाई’ की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है- ‘खुदा का वैभव।’ अर्थात् बलबन स्वयं को इस धरती पर अल्लाह के प्रतिबिम्ब एवं खुदा के वैभव के रूप में देखता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता