किसी समय ईरान में मिर्जा गयास बेग नामक आदमी रहता था। वह था तो मिर्जाओं के वंश में से किंतु उसकी माली हालत बहुत खराब थी। एक दिन ऐसा भी आया कि घर में ठीक से खाने को न रहा। जब उसने सुना कि मलिक मसूद नामक व्यापारी अपने काफिले के साथ हिन्दुस्थान जा रहा है तो गयास बेग भी उसके साथ हो लिया।
विकट रेगिस्तानी मार्ग में गयास बेग की औरत असमत बेगम ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम मेहरून्निसा रखा गया। ईरान से भारत तक के लम्बे सफर में अनेक बाधायें आयीं। कभी रेतीली आंधियों से मुकाबला हुआ तो कभी डाकुओं से। कभी पीने के पानी की कमी से जूझना पड़ा तो कभी पशुओं की महामारी से। फिर भी किसी तरह यह काफिला हिन्दुस्थान पहुँच गया। मलिक मसूद ने गयास बेग को अकबर के दरबार में नौकरी दिलवा दी।
गयास बेग उद्यमी व्यक्ति था। उसने अपनी सेवा और स्वामिभक्ति से अकबर और उसके सेनापतियों को प्रसन्न कर लिया और उन्नति करता हुआ तीन सौ सवारों का मनसबदार बन गया।
मेहरून्निसा का ईरानी खून हिन्दुस्तान की जलवायु में अच्छा रंग लाया और शीघ्र ही वह एक सुंदर युवती में परिवर्तित हो गयी। एक दिन जब शहजादे सलीम की दृष्टि मेहरून्निसा पर पड़ी तो वह उसे पाने के लिये आतुर हो गया। यह तब की बात है जब मेहरून्निसा ने यौवन की दहलीज पर पहला कदम ही रखा था और उधर सलीम के हरम में औरतों की संख्या आठ सौ से ऊपर जा पहुँची थी।
गयास बेग तथा असमत बेगम की पहुँच सीधे अकबर तथा उसकी बेगमों तक थी इसलिये बिना विवाह किये मेहरून्निसा को पाना संभव नहीं था। सलीम ने अपनी माता तथा अन्य बेगमों से कहा कि मेहरून्निसा का विवाह मुझसे कर दिया जाये किंतु अकबर इस विवाह के लिये राजी नहीं हुआ। सलीम की इच्छा के विपरीत अकबर ने स्वयं रुचि लेकर मेहरून्निसा का विवाह अपने नौकर अलीकुली से कर दिया और सलीम हाथ मलता ही रह गया।
जब सलीम जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा तो उसके मन में मेहरून्निसा को पाने की ललक फिर से जागी। एक बार मेहरून्निसा के पति अलीकुली ने अकेले ही एक शेर को मारा। इस पर जहाँगीर ने उसे शेर अफगन की उपाधि दी और उसे बर्दवान का फौजदार नियुक्त कर दिया। जब शेर अफगन बर्दवान पहुँच गया तो जहाँगीर ने बंगाल के सूबेदार कुतुबुद्दीन को आदेश दिया कि शेर अफगन विद्रोह की तैयारियां कर रहा है, इसलिये उस पर निगाह रखी जाये। कुतुबुद्दीन ने शेरअफगन को गिरफ्तार करने का प्रयास किया किंतु इस संघर्ष में दोनों ही मारे गये। शेर अफगन के मारे जाने पर जहाँगीर ने मेहरून्निसा और उसकी बेटी को अपने पास बुलवा लिया। कुछ दिनों बाद जहाँगीर ने मेहरून्निसा से विवाह कर लिया और अपनी नयी बेगम का नाम रखा- नूरमहल।
मेहरून्निसा भाग्य के इस तरह पलटा खाने से बहुत दुखी हुई किंतु शीघ्र ही उसे पता लग गया कि यह उसका अपकर्ष नहीं था अपितु भाग्योत्कर्ष के कारण ही ऐसा हुआ था। वह जितनी सुंदर थी, उससे कहीं अधिक बुद्धिमती थी। वह जितनी कोमलांगी थी, उससे कहीं अधिक कठोर हृदया थी। वह जितनी मधुर भाषिणी थी उससे कहीं अधिक चतुरा थी। धीरे-धीरे वह जहाँगीर की प्रीतपात्री बन गयी। जहाँगीर उसके सौंदर्य पाश में ऐसा बंधा कि सारे महत्वपूर्ण निर्णय उसी से पूछकर करने लगा। कुछ ही दिनों बाद जहाँगीर को लगने लगा कि उसने मेहरून्निसा को नूरमहल की उपाधि देकर उसके साथ न्याय नहीं किया है इसलिये जहाँगीर ने नूरमहल को नयी उपाधि दी- नूरजहाँ।
कुछ ही दिानों में नूरजहाँ का नूर जहाँगीर के हरम से निकल कर उसके दरबार और पूरे देश में फैलने लगा। उसके पिता मिर्जा गयास बेग को एत्मादुद्दौला की तथा भाई को आसफखाँ की उपाधि मिली। अब वे दोनों बादशाह के दरबार में सर्वप्रमुख व्यक्ति हो गये।
अब नूरजहाँ ही जागीरें, मनसब और उपाधियाँ बाँटने लगी। वह बादशाह का चिह्न धारण करके महल के झरोखे में बैठ जाती। उसने अपने नाम से सिक्के ढलवाये तथा वह विधवा औरत से साम्राज्ञी बन गयी। शाही फरमानों में जहाँगीर के साथ नूरजहाँ का भी नाम लिखा जाने लगा। जिस फरमान में नूरजहाँ का नाम नहीं होता था, उसे राजकीय कर्मचारी नहीं मानते थे।
एक दिन ऐसा भी आया जब जहाँगीर ने अपने अमीरों से कहा कि मैंने अपना सारा राज्य नूरजहाँ को दे दिया है। अब मुझे क्या चाहिये? कुछ भी तो नहीं, सिवाय एक सेर शराब और आधा सेर कबाब के!