दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने ई.1523 में ग्वालियर दुर्ग पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त कर ली। इस विजय के बाद सुल्तान इब्राहीम लोदी स्वयं को उत्तर भारत के शासकों में सर्वाधिक शक्तिमान समझने लगा। उसने मियां हुसैन फार्मूली, मियां मारूफ, मियां हुसैन तथा मियां मकन आदि के नेतृत्व में चालीस हजार अश्वारोहियों की एक सेना मेवाड़ के महाराणा सांगा के विरुद्ध अभियान करने भेजी।
पाठकों को स्मरण होगा कि इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर युद्ध के दौरान अपने अमीरुल-अमरा आजम हुमायूं शेरवानी को छल से बंदी बनाया था और अपने भाई जलाल खाँ की छल से हत्या करवाई थी। इस युद्ध में इब्राहीम लोदी अपने दो विरोधी अमीरों मियां हुसैन तथा मियां मारूफ से छुटकारा पाना चाहता था। अतः इब्राहीम लोदी ने मियां मकन को गुप्त आदेश दिया कि वह अवसर पाकर मियां हुसैन तथा मियां मारूफ को गिरफ्तार कर ले।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि मियां हुसैन को इस गुप्त मंत्रणा के बारे में पता लग गया और जब दिल्ली की सेनाएं मेवाड़ की सेनाओं के निकट पहुंचीं तो मियां हुसैन सुल्तान का पक्ष त्यागकर अपनी सेना के साथ महाराणा सांगा के पक्ष में चला गया। महाराणा सांगा अब तक कई युद्धों में दिल्ली की सेना में मार लगा चुका था। अतः वह दिल्ली की सेना की कमजोरियों से परिचित था। इस समय शाही सेना में 40 हजार अश्वारोही एवं 300 हाथी मौजूद थे। महाराणा सांगा के सैनिकों की संख्या ज्ञात नहीं है।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
दोनों पक्षों में जमकर घमासान हुआ जिसमें दिल्ली की सेना परास्त होकर भागने लगी। ‘तारीखे दाऊदी’ के अनुसार मेवाड़ की विजयी सेना ने इब्राहीम लोदी की सेना का बयाना तक पीछा किया तथा बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिकों की हत्या की।
मियां मकन किसी तरह जान बचाकर दिल्ली भाग गया। मुस्लिम लेखकों ने महाराणा की इस विजय के लिए मियां हुसैन की गद्दारी को जिम्मेदार ठहराया है किंतु यह बात सही प्रतीत नहीं होती। अब्दुल्ला ने लिखा है कि मियां हुसैन ने राणा के साथ युद्ध में भाग लिया जबकि रिज्कउल्ला ने लिखा है कि मियां हुसैन इस आक्रमण के समय धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था और अपने घोड़ों को तेजी से आगे नहीं बढ़ा रहा था।
अर्थात् रिज्कउल्ला के कथन से यह अर्थ निकलता है कि मियां हुसैन ने महाराणा का पक्ष ग्रहण नहीं किया था। अहमद यादगार ने लिखा है कि मियां हुसैन 4 हजार अश्वारोहियों सहित राणा से मिला। वह युद्ध क्षेत्र में मौजूद था किंतु उसने सुल्तान के नमक का विचार करके इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
इन लेखकों के वक्तव्यों से स्पष्ट हो जाता है कि मियां हुसैन इस युद्ध से दूर अवश्य रहा था किंतु वह राणा सांगा की तरफ से नहीं लड़ा था। अतः दिल्ली की सेना की पराजय के लिए मियां हुसैन जिम्मेदार नहीं था।
तत्कालीन मुस्लिम लेखकों ने लिखा है कि दिल्ली की सेना के पराजित होने का समाचार मिलने पर सुल्तान इब्राहीम लोदी स्वयं एक सेना लेकर सांगा से लड़ने के लिए आगरा से गंभीरी नदी तक आया। इसी समय मियां हुसैन तथा सुल्तान इब्राहीम लोदी के बीच सम्बन्ध सुधर जाने से मियां हुसैन फिर से सुल्तान की तरफ से लड़ने के लिए तैयार हो गया।
रिज्कउल्ला लिखता है कि जब मियां हुसैन फिर से सुल्तान की तरफ चला गया तो राणा सांगा भयभीत होकर वापस लौट गया। ग्रामीणों ने उसके शिविर को नष्ट कर डाला। अतः महाराणा अपना शिविर अपने साथ नहीं ले जा सका।
अन्य तत्कालीन मुस्लिम लेखकों के विवरण रिज्कउल्ला के विवरण से मेल नहीं खाते। अहमद यादगार कहता है कि मियां मकन के परास्त होकर भाग जाने के बाद मियां हुसैन ने मियां मारूफ के पास गुप्त-पत्र भिजवाया कि यद्यपि सुल्तान हम लोगों का महत्त्व नहीं समझता है तथापि हमें सुल्तान के तीस वर्षों के नमक का कर्ज अदा करना चाहिए। इसलिए हम दोनों मिलकर सांगा की सेना को नष्ट करते हैं।
अहमद यादगार आगे लिखता है कि अर्द्धरात्रि के समय एक ओर से मियां मारूफ ने तथा दूसरी ओर से मियां हुसैन ने राणा सांगा की सेना पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। राणा स्वयं भी घायल होकर अधमरा हो गया एवं अपने लोगों के साथ भाग खड़ा हुआ। मियां हुसैन ने 15 हाथी, 300 घोड़े एवं अत्यधिक धन-सम्पत्ति सुल्तान के पास भिजवाए। इस पर सुल्तान ने मियां मारूफ को एवं मियां हुसैन को सम्मानित किया।
अहमद यादगार द्वारा दिया गया यह विवरण तारीखे दाउदी तथा वाकयाते मुश्ताकी के विवरण से मेल नहीं खाता। वस्तुतः मियां मारूफ एवं मियां हुसैन के पास इतनी सेना नहीं थी कि वे महाराणा की प्रबल सेना को नष्ट कर सकें। इसलिए तत्कालीन मुस्लिम लेखकों द्वारा सत्य से बहुत दूर, केवल झूठ के पुलिंदे रचे गए। वास्तविकता यह थी कि इस युद्ध में महाराणा सांगा ने दिल्ली की सेना को बुरी तरह परास्त किया था।
इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि इस युद्ध के कुछ समय बाद चंदेरी के युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोदी ने मियां हुसैन की छल से हत्या करवाई तथा उसके हत्यारों को भरे दरबार में पुरस्कृत भी किया। यदि मियां हुसैन ने सांगा पर विजय पाई होती तो इब्राहीम लोदी मियां हुसैन की हत्या नहीं करवाता।
सुल्तान इब्राहीम लोदी अपने ही अमीरों की हत्याएं क्यों करवाता था, इस प्रश्न का जवाब स्वयं इब्राहीम लोदी ने एक बार तुर्की सुल्तानों में प्रचलित उस उक्ति के माध्यम से अनजाने में ही दिया था कि- ‘राजा का कोई सम्बन्धी नहीं होता, सभी लोग राजा के अधीनस्थ अमीर या प्रजा होते हैं।’
इब्राहीम के पिता सिकंदर लोदी ने अफगानी अमीरों को अपने समक्ष विनम्रता पूर्वक खड़े रहने के आदेश दिए थे किंतु इब्राहीम अपने पिता से भी आगे निकल गया। उसने अमीरों को बाध्य किया कि वे सुल्तान के समक्ष अपनी छाती पर अपने दोनों हाथों को कैंची की तरह एक पर एक रखकर खड़े हों।
इब्राहीम लोदी के दरबार में अब भी कुछ बूढ़े अमीर थे जो सुल्तान बहलोल लोदी के साथ कालीन पर बैठा करते थे और सिकंदर लोदी भी उन्हें अपने समक्ष खड़े रहने के लिए बाध्य नहीं कर पाया था, इन बूढ़े अमीरों ने इब्राहीम लोदी को अपने सामने बड़े होते देखा था, इसलिए उन्हें इब्राहीम लोदी के समक्ष अपने हाथ अपनी छाती पर कैंची की तरह रखने में शर्म अनुभव होती थी और वे भीतर ही भीतर सुल्तान के विरोधी हो जाते थे। जब यह विरोध मुखर हो जाता था तो सुल्तान उन अमीरों की हत्या करवा देता था।
इब्राहीम लोदी ने मियां भुआ को मरवा दिया जो कि उस काल में इस्लामिक कानून का विशेषज्ञ माना जाता था तथा सिकंदर खाँ लोदी ने उसे न्याय कार्य में सुल्तान की सहायता करने के लिए नियुक्त किया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता