आर्य चतुरंगिणी कई दिनों से असुरों के इस पुर को घेर कर खड़ी थी किंतु असुरों की रक्षण व्यवस्था इतनी प्रबल थी कि आर्य उसे भेद पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। सरस्वती के त्वरित प्रवाह की भांति चलने वाला आर्यों का चतुरंगिणी रूपी नद यहाँ आकर ठहर सा गया था। जिस चतुरंगिणी के प्रवाह में असुरों के शत-शत पुर रेत के ढूह के समान तिरोहित हो गये थे उसी विजयी चतुरंगिणी के समक्ष असुरों का यह पुर दुर्गम चुनौती बनकर खड़ा था।
जैसे ही आर्य सैन्य पुर पर आघात करने के लिये आगे बढ़ता वैसे ही प्राचीर पर खड़े असुर बाणों एवं प्रस्तरों की सघन वर्षा करके उसका मार्ग अवरुद्ध कर देते। विपुल प्रयास करके भी आर्य सैनिक पुर के निकट नहीं पहुँच पाये थे। दिवस पर दिवस व्यतीत होते जा रहे थे किंतु न तो राजन् सुरथ, न सेनप सुनील और न ही आर्य अतिरथ इस कठिनाई से निकलने का कोई मार्ग ढूंढ पा रहे थे। जन के पुरोहित के रूप में समरांगण में उपस्थित ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा की भी चिंता का कोई पार न था। वे प्रतिदिन अग्नि, इन्द्र, मित्र तथा वरुण आदि देवों का आह्वान कर राजन् सुरथ को विजयी होने का आशीर्वाद देते थे किंतु आशीर्वाद था कि फलीभूत होता दिखायी नहीं देता था।
क्या इस अभियान पर यहीं विराम लग जायेगा! कठिनाइयों के कितने समुद्र पार करके आर्य वाहिनी इस स्थिति तक पहुँच पायी थी! अब तक तो हर कठिनाई का अंत एक बड़ी सफलता में हुआ था किंतु क्या अब और कोई सफलता आर्यों के भाग्य में नहीं लिखी है! कितना समय तो उन्हें असुरों के विरुद्ध अभियान चलाने के लिये आर्य-जनों से समर्थन एवं सैनिक जुटाने में लग गया था!
यह एक सुखद संयोग ही था कि राजन् सुरथ भरत, जह्नु, अनु और भृगु आदि जिस किसी भी आर्य-जन में अपनी चतुरंगिणी लेकर पहुँचे, उनका उत्साह से स्वागत हुआ। एक भी जन ऐसा नहीं था जिसने आर्य सुरथ की योजना का विरोध किया हो। राजन् सुरथ के प्रयास से प्रत्येक जन ने अपना राजन् बनाया तथा अपने जन के वीरों को अपने राजन् के नेतृत्व में चतुरंगिणी के साथ विदा किया। प्रत्येक आर्य जन से राजन् सुरथ को कुछ न कुछ अतिरिक्त सहयोग अवश्य मिला। किसी जन से अश्व तो किसी जन से रथ। किसी जन से सैनिक तो किसी जन से अस्त्र-शस्त्र। उसी का परिणाम था कि जैसे-जैसे चतुरंगिणी आगे बढ़ी उसका आकार भी बढ़ता गया था।
जब आर्य सुरथ और सेनप सुनील को विश्वास हो गया कि अब वे असुरों से युद्ध करने में सक्षम हैं तो उन्होंने आर्य भूमि से बाहर निकल कर असुरों के पुरों पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इसी के साथ आरंभ हुआ असुरों को मरुस्थल की ओर धकेलने का महाअभियान। असुरों के पुर टूटते गये और चतरुंगिणी आगे बढ़ती रही। एक के बाद एक सरिता का तट और एक के बाद एक असुरों का पुर। आर्यों की विजय पताका सब ओर फहरायी गयी।
बहुत से आर्यों ने अपनी छाती पर व्रण खाये। बहुत से आर्य-वीरों के अंग भंग हो गये। बहुत से आर्यों ने अपने प्राण गंवाये किंतु असुरों को सप्तसिंधु प्रदेश से खदेड़ने का कार्य निरंतर आगे बढ़ता रहा। सिंधु नद के महाप्रवाह की भांति चतुरंगिणी आगे बढ़ती रही। अब तक कोई आसुरि शक्ति चतुरंगिणी का मार्ग नहीं रोक पायी थी किंतु अस्किनी के तट पर स्थित असुरों का यह दुर्ग अचानक ही चतुरंगिणी का मार्ग रोक कर खड़ा हो गया।
कुछ आर्यवीरों ने राजन् सुरथ को सुझाव दिया कि अब तक पर्याप्त संख्या में असुरों को सप्तसिंधु प्रदेश से निष्कासित किया जा चुका है। अतः इस पुर को छोड़कर चतुरंगिणी पुनः परुष्णि के तट पर स्थित अपने जन को लौट जाये और आर्य जनों को संगठित करने तथा आर्य-जनपदों की स्थापना करने का कार्य आरंभ किया जाये। राजन् सुरथ सहमत नहीं हैं इस सुझाव से। उनकी मान्यता है कि यदि असुरों का यह पुर नष्ट नहीं किया जा सका तो अब तक के सारे प्रयास निष्फल हो जायेंगे। जिन असुरों को सप्तसिंधु प्रदेश से बाहर खदेड़ा गया है, वे आर्यों की इस पराजय की सूचना पाकर फिर से लौट आयेंगे। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा और सेनप सुनील को लगा कि राजन् सुरथ ठीक कहते हैं। परिणाम चाहे जो भी हो इस पुर को तो टूटना ही होगा।
कई दिनों के चिंतन के पश्चात् राजन् सुरथ ने एक योजना तैयार की। विगत रात्रि में आयोजित समिति में इस योजना पर विस्तार से चर्चा की गयी। योजना अच्छी थी और सभी को विश्वास था कि यदि कुछ अप्रत्याशित नहीं घटा तो यह सफल रहेगी। योजना के अनुसार आर्य अतिरथ की हस्ति सेना ऊषा के आगमन से बहुत पहले असुरों के पुर की ओर चल दी। पर्याप्त अंधकार होने के कारण विशालाकाय हस्ति भी दूर से देखे नहीं जा सकते थे। इसलिये यह सैन्य बिना किसी व्यवधान के पुर की ओर चलता ही चला गया। हस्तियों की ओट में अश्वारूढ़ सैन्य था जिसका संचालन स्वयं राजन् सुरथ कर रहे थे।
योजना के अनुसार यदि असुर हस्तियों को पुर तक पहुँचने से पहले ही देख लेते तो भी हस्ति सेना को तब तक बाणों की वर्षा झेलनी थी जब तक कि अश्वारूढ़ सैनिक ठीक प्राचीर के निकट तक नहीं पहुँच जाते। पदाति सैन्य को अश्वसेना के पीछे रखा गया ताकि जब तक अश्वसेना पुर में धंसारा करे तब तक पदाति सैन्य पीछे से पहुँच कर उनकी सहायता के लिये उपलब्ध हो जाये। रथ सैन्य शिविर में रहा तथा यत्र-तत्र अग्नि प्रज्वलित कर यह भ्रम बनाये रहा कि अभी आर्य सैन्य शिविर में ही है।
आर्य सुरथ की योजना का पहला भाग अक्षरशः सफल रहा था। प्राचीर पर सन्नद्ध असुर सैन्य आर्यों के युद्ध शिविर में प्रज्वलित अग्नि पर ही दृष्टि गड़ाये रहा और अंधकार में तेजी से अग्रसर होते हस्तिसैन्य को नहीं देख पाया। जैसे ही सूर्य की प्रथम किरण धरित्री पर गिरी तो आर्यों के विशाल सैन्य को प्राचीर के ठीक निकट देख कर असुरों का रक्त जम गया। कहाँ से प्रकट हुआ यह विशाल सैन्य! गगन मार्ग से चला आया अथवा धरित्री फोड़ कर निकला!
असुरों ने पत्थर और बाणों की वर्षा आरंभ की किंतु अश्वारोही आर्यों की टुकड़ी विशालाकाय हस्तियों की ओट में पुर के मुख्य द्वार पर जा अड़ी। आर्य अतिरथ ने हस्तियों की एक पूरी पंक्ति ही मुख्य द्वार पूर हूल दी। विशालाकाय हस्तियों का प्रबल आघात पाकर मुख्य द्वार चरमरा कर टूट गया और आर्य अश्वारोही हहराती लपटों के समान पुर में प्रवेश कर गये। ठीक यही वह समय था जब पदाति सैनिकों की पंक्तियाँ भी पुर में जा पहुँचीं।
पुर का द्वार टूटा हुआ जानकर असुर प्राचीरों से नीचे उतर आये। दोनों पक्षों में घमासान मच गया। दो प्रहर दिवस जाते-जाते असुरों के रक्त तथा मज्जा की कीच से विशाल क्षेत्र सन गया। असुर और अधिक विरोध नहीं कर सके। बचे हुए असुरों ने अपने शस्त्र त्यागकर पराजय स्वीकार कर ली। सेनप सुनील ने पुर की प्राचीर पर खड़े होकर अपना विकराल खड्ग मुक्त भाव से आकाश में लहराया और उच्च स्वर में जयघोष किया- ‘कृण्न्वतो विश्वम् आर्यम्।’
समस्त आर्य वीरों ने सेनप सुनील का जयघोष सुनकर हर्षध्वनि की और जो जहाँ स्थित था, वहीं से उसने अपने शस्त्र हवा में लहराये। आर्य अतिरथ ने अपने विशालाकाय हस्ति पर खड़े होकर आर्यों की सूर्य-पताका लहरायी। चिर-प्रतीक्षित विजय प्राप्त हो चुकी थी। आज की विजय आर्यों के लिये बड़ी विजय थी। इसी के साथ उन्होंने कुभा[1] सुवास्तु [2] तथा क्रुमु [3] के तट असुरों से मुक्त करवा लिये थे।
आर्य सुरथ ने युद्ध में मृत आर्यों का अग्नि संस्कार तथा मृत असुरों का शवाधान करवाया। पराजित असुरों ने आर्य भूमि छोड़कर मरूस्थल के लिये तत्काल प्रस्थान करना स्वीकार कर लिया।
[1] काबुल।
[2] स्वात।
[3] कुर्रम।