Thursday, November 21, 2024
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सतनामियों के ताबीज

औरंगजेब की ताकत उसकी सेना में बसती थी। उसकी सेना में तलवार, तीर और तोप से लड़ने की तो ताकत थी किंतु इतनी ताकत नहीं थी कि वे सतनामियों के ताबीज से लड़ सकें।

दिल्ली और आगरा के लाल किलों का स्वामी औरंगजेब चाहता था कि वह अपने जीवन काल में ही भारत की समस्त जनता को इस्लाम में परिवर्तित कर ले किंतु भारत में इतने सारे छोटे-छोटे धार्मिक समुदाय रहते थे जिनकी गिनती करना संभव नहीं था और वे अपने धर्म एवं सम्प्रदाय में इतनी गहराई से विश्वास करते थे कि वे सिर कटवाने को तैयार थे किंतु इस्लाम स्वीकारने को तैयार नहीं थे।

इन्हीं धार्मिक समुदायों में से एक था नारनौल क्षेत्र का सतनामी सम्प्रदाय। नारनौल कस्बा दिल्ली से 75 मील-दक्षिण पश्चिम में स्थित है तथा वर्तमान में हरियाणा प्रांत के महेंद्रगढ़ जिले में आता है। नारनौल के निकट बीजासर नामक बसा हुआ है। औरंगजेब के पूर्वज बाबर के भारत में आने के समय बीजासर गांव में बीरभान नामक एक किसान रहता था। वह बहुत सच्चा और भला आदमी था। ईश्वर की भक्ति में उसकी बड़ी रुचि थी। वह संत रैदास का शिष्य हो गया।

संत रैदास के आशीर्वाद से बीरभान बहुत सुंदर भजन गाने लगा। धीरे-धीरे बीरभान स्वयं भी एक भक्त के रूप में प्रसिद्ध हो गया और आसपास के गांवों के लोग उसके भजन और उपदेश सुनने आने लगे। बहुत से लोग बीरभान को अपना गुरु मानने लगे। बीरभान की मुख्य शिक्षा यह थी कि ईश्वर ही एक मात्र सत्य है इसलिए मनुष्य अपने जीवन में सदैव सत्य भाषण करे, किसी को धोखा न दे, किसी का अपमान न करे, किसी का दिल न दुखाए। किसी से न डरे।

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ये बातें गांवों के सरल एवं सीधे-सादे लोगों को बहुत अच्छी लगीं और बीरभान के शिष्यों ने एक अलग सम्प्रदाय बना लिया जो स्वयं को सतनामी कहते थे। ये लोग बहुत साधारण जीवन व्यतीत करते थे तथा विलासिता के समस्त साधनों से दूर रहते थे। सतनामी साधु अपने सिर के सारे बाल मुंडवाते थे। यहाँ तक कि भौहें भी साफ करवा लेते थे। इस कारण लोग उन्हें मुंडिया भी कहते थे। इस पंथ का कोई धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं था तथा वे समस्त संसार को अपना परिवार मानते थे।

सतनामी संत, धनी लोगों की गुलामी करने को अच्छा नहीं मानते थे। उनका उपदेश था कि गरीब को मत सताओ। जालिम बादशाह और बेईमान साहूकार से दूर रहो। दान लेना अच्छा नहीं है। ईश्वर के सामने सब मनुष्य बराबर हैं।

ग्रामीण क्षेत्र में प्रकट होने से सतनामी सम्प्रदाय की लोकप्रियता विभिन्न जातियों में हो गई। इस कारण जाट, रैगर, सुनार, खाती आदि विभिन्न श्रमजीवी जातियों के लोग इसके अनुयायी हो गए। उन दिनों मालखाने के मुगल कर्मचारी एवं सिपाही भूराजस्व की वसूली के लिए किसानों को विभिन्न प्रकार के कष्ट दिया करते थे। सतनामियों ने घोषणा की कि उत्पीड़न सहना पाप है। इसलिए सतनामी सम्प्रदाय के किसान अपने साथ हथियार लेकर चलने लगे।

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औरंगजेब का समय आते-आते सतनामी समुदाय दिल्ली के आसपास व्यापक रूप से फैल गया तथा नारनौल इस पंथ का गढ़ बन गया। ईस्वी 1672 में नारनौल के निकट एक गांव में मालखाने के एक प्यादे और एक सतनामी किसान के बीच झगड़ा हो गया। मुगल प्यादे ने गुस्से में आकर सतनामी किसान के सिर में लाठी दे मारी। इससे किसान बुरी तरह से जख्मी हो गया।

जब कुछ सतनामियों ने प्यादे का विरोध किया तो प्यादे के साथियों ने सतनामियों की झोंपड़ियों में आग लगा दी। इस पर सतनामी भड़क उठे। वे बड़ी संख्या में इकट्ठे हो गए और उन्होंने प्यादे को पीट-पीट कर मार डाला। उन्होंने प्यादे के साथ आए दूसरे सिपाहियों को भी पीटा और उनके हथियार छीन लिए।

नारनौल का फौजदार कारतलखान इस घटना के बारे में सुनकर आग-बबूला हो गया। उसने सतनामियों को गिरफ्तार करने के लिए कुछ घुड़सवार और प्यादे भेजे। तब तक सतनामी भी तैयार हो गए थे। उन्होंने बड़ी संख्या में एकत्रित होकर फौजदार की सेना का सामना किया। इस लड़ाई में कुछ मुगल सिपाही मारे गए और बहुत से जख्मी हो गए। सतनामियों ने कुछ मुगल सिपाहियों को पकड़कर बंदी बना लिया।

इस सूचना से फौजदार की चिंता का पार नहीं रहा। क्योंकि यदि यह खबर बादशाह तक जा पहुंचती तो फौजदार को हटा दिया जाता। इसलिए फौजदार ने आनन-फानन में नए घुड़सवार और सिपाही भर्ती किए। आसपास के हिन्दू और मुसलमान जमींदारों और जागीरदारों से भी फौजें मंगवाईं।

इस तरह नारनौल के फौजदार कारतलखान ने बड़ी सेना के साथ सतनामियों के विरुद्ध कूच किया। सतनामियों ने भी सरकारी फौज का डटकर मुकाबला किया। यह युद्ध इतना भयंकर हो गया कि न केवल मुगल सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए अपितु स्वयं फौजदार भी मार दिया गया। नाराज सतनामियों ने नारनौल पर अधिकार कर लिया और अपनी सरकार स्थापित कर ली। उन्होंने नारनौल तथा आसपास के देहाती क्षेत्र में अपनी चौकियां तैनात कर दीं और लगान वसूली करना भी शुरू कर दिया।

लाल किले की ठीक नाक के नीचे यह काम हो गया और लाल किला बेधकड़क सोता रहा। जब तक औरंगजेब को इस घटना का पता लगा तब तक सतनामियों ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। औरंगजेब ने आम्बेर नरेश विष्णु सिंह की अध्यक्षता में सतनामियों के विरुद्ध एक सेना भेजी। आम्बेर के इतिहास में इस राजा को बिशनसिंह कच्छवाहा भी कहा जाता है। सतनामियों ने विष्णुसिंह की सेना को भी मार भगाया।

उत्तर भारत के मुगल फौजदारों एवं जागीरदारों में राजा विष्णुसिंह की पराजय की खबर तेजी से फैल गई तथा सतनामियों के बारे में तरह-तरह की अफवाहें कही जाने लगीं। यहाँ तक कि सतनामियों की शक्ति को एक चमत्कार समझा जाने लगा।

इस घटना के बारे में फारस का इतिहासकार खफ़ी ख़ान लिखता है कि इसी बीच आसपास के जमींदारों और राजपूत सरदारों ने अवसर का लाभ उठाकर बादशाह को भूराजस्व देना बंद कर दिया। यहाँ तक कि सतनामियों तथा जाटों ने दिल्नी शहर को जाने वाले अनाज की आपूर्ति बंद कर दी। इससे दिल्ली में अनाज कम हो गया और जनता भयभीत हो गई।

उन्हीं दिनों सतनामी समुदाय की एक वृद्धा सतनामियों का नेतृत्व करने के लिए सामने आई। वह सतनामियों में माता मीनाक्षी के नाम से प्रसिद्ध थी। उसके बारे में यह विख्यात हो गया कि माता मीनाक्षी लकड़ी के घोड़े पर बैठकर सतनामियों की फौज के आगे-आगे चलती है। उसके पास जादुई ताकत है तथा उसने सतनामियों को यह भरोसा दिलाया है कि मेरा आशीर्वाद उन सतनामियों के साथ है जो औरंगजेब के विरुद्ध लड़ रहे हैं।

माता मीनाक्षी ने हजारों की संख्या में ताबीज बनाकर सतनामियों के झंडों पर बांध दिए। सतनामियों के ताबीज के कारण सतनामी योद्धाओं में यह विश्वास हो गया कि सतनामियों पर न तीर काम करता है न तलवार। न ही तोप के गोले उन पर कोई असर डालते हैं। औरंगजेब की सेना ने कई बार प्रयास किया किंतु सतनामी वीर पूरे आत्मविश्वास और उत्साह के साथ डटे रहे। जब औरंगजेब की यह सेना भी पराजित होकर भाग गई तो हजारों सतनामी दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे। उनका निश्चय लाल किले पर कब्जा करने का था। जब दिल्ली केवल सोलह मील दूर रह गई तो विशाल शाही सेना ने सतनामियों का मार्ग रोका।

इस बार सतनामियों के विरुद्ध शाही सेना द्वारा बंदूकों एवं तोपों का प्रयोग किया जाना था जबकि सतनामियों के पास केवल तलवारें, बल्लम और भाले जैसे अस्त्र-शस्त्र ही थे किंतु सतनामियों को विश्वास था कि माता मीनाक्षी का ताबीज होने के कारण उन्हें कोई ताकत हरा नहीं सकती।

मुगल सिपाहियों ने अपने सेनापतियों के माध्यम से औरंगजेब तक संदेश भिजवाया कि सतनामी लोग माता मीनाक्षी द्वारा दिए गए ताबीज के कारण सुरक्षित हैं। उन पर तोप के गोलों और बंदूक की गोलियों का असर नहीं होगा। इस पर औरंगजेब के धूर्त मस्तिष्क में एक नया विचार आया। उसने घोषित किया कि मैं भी जिंदा पीर हूँ तथा मेरे पास भी जादुई ताकत है।

औरंगजेब ने अपने हाथ से कुरान शरीफ की आयतें लिख-लिखकर झंडों पर सिलवा दीं और सैनिकों से कहा कि अब सतनामियों के ताबीज का जादू तुम पर नहीं चलेगा। औरंगजेब का विचार काम कर गया। इन ताबीजों के कारण शाही फौजों में भी हिम्मत आ गई।

शाही सेनाओं का उत्साह बढ़ाने के लिए औरंगजेब ने अपने एक शहजादे को आदेश दिया कि वह स्वयं युद्ध के मैदान में रहकर सतनामियों का सफाया करे। शहजादा दस हजार सैनिकों एवं शाही तोपखाने के साथ सतनामियों से लड़ने आया। औरंगजेब ने युद्ध के दौरान शहजादे की रक्षा करने के लिए अपनी स्वयं की अंगरक्षक सेना भी उसके साथ कर दी ताकि शहजादा भी स्वयं को सुरक्षित अनुभव करे। राजा विष्णुसिंह तथा सेनापति हामिद खाँ को भी इस सेना के साथ भेजा गया।

दिल्ली से लगभग 16 मील की दूरी पर दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। दोनों तरफ के हजारों सिपाही मारे गए जिनमें से सतनामियों की संख्या पांच हजार थी। अंत में शाही सेना द्वारा सतनामियों का पूरी तरह सफाया कर दिया गया तथा नारनौल पर कब्जा कर लिया गया। 

चूंकि मैदान छोड़ कर भागना सतनामियों के उसूलों के खिलाफ था। इसलिए वे आखिरी दम तक लड़ते रहे, जब तक कि मुगल फौजों ने उनकी बोटी-बोटी नहीं काट डाली। मुगलों की तरफ के दो सौ बड़े अफसर मारे गए तथा शाही फौज का काफी बड़ा हिस्सा लड़ाई में खप गया। राजा विष्णु सिंह कछवाहे का हाथी युद्ध के दौरान बुरी तरह घायल हो गया किंतु विष्णुसिंह स्वयं बच गया।

सतनामियों के इस विद्रोह के बाद मथुरा और आगरा के जाट भी अधिक उग्र हो गए। वे वीर गोकुला के बलिदान का बदला लेने के लिए पहले से ही उत्सुक थे। अब तो सतनामियों का आंदोलन भी जाटों के सामने एक मिसाल बन गया। माना जाता है कि भारत में चल रहे भक्ति आंदोलन ने भारत वासियों के मन में न्याय और स्वाभिमान की भावना जाग्रत की थी। उसी भावना के चलते मुगलों को स्थान-स्थान पर हिंदुओं का सामना करना पड़ रहा था।

सतनामी लोग प्रायः समाज के दबे और कुचले हुए लोग थे। उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे औरंगजेब जैसे प्रबल बादशाह के विरुद्ध उठ खड़े होते किंतु संत रैदास तथा उनके शिष्यों द्वारा दिए गए भगवद्भक्ति के मंत्र ने इन लोगों को इतना साहस प्रदान किया कि वे भारतीय इतिहास का अमिट हिस्सा बन गए। 

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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