जिस समय प्रतनु मोहेन-जो-दड़ो के नगरद्वार पर पहुँचा, वरुण सिंधु तट पर नहीं पहुँचा था किंतु एक-दो दिन में ही उसके सिंधु तट पर पहुँचने की संभावाना थी। वरुण के आगमन पर ही मोहेन-जो-दड़ो के पशुपति महालय में वार्षिक महोत्सव मनाया जाता है जिसमें मातृदेवी को गर्भवती करने के लिये चन्द्रवृषभ नृत्य का आयोजन होता है। इस समय मोहेन-जो-दड़ो में उसी वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं। दो वर्ष पूर्व के अनेक दृश्य प्रतनु के स्मृति पटल पर सजीव हो उठे। दो वर्ष पूर्व की भांति इस वर्ष भी अनेक सैंधव पुरों से सैंधवों के गुल्म पशुपति महालय के वार्षिक समारोह में भाग लेने के लिये मोहेन-जो-दड़ो पहुँच चुके थे।
मोहेन-जो-दड़ो से प्रतनु के निष्कासन की अवधि समाप्त होने में अभी कुछ दिन शेष थे। नियमानुसार वह दो वर्ष से पूर्व मोहेन-जो-दड़ो में प्रवेश नहीं कर सकता था किंतु उसमें इतना धैर्य नहीं रह गया था कि वह नगर से बाहर रुककर अवधि पूर्ण होने की प्रतीक्षा करे। वह जानना चाहता है कि रोमा कैसी है! इस बीच कुछ अप्रत्याशित तो नहीं घटित हो गया है! अतः उसने पणि का छद्म वेश धारण किया और छद्म नाम से ही नगर में प्रवेश किया।
रोमा तक पहुँचने के लिये प्रतनु को विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा। वृद्धा दासी वश्ती उसे पण्य-वीथि [1] में विचरण करती हुई मिल गई। जब उसने वृद्धा वश्ती का अभिवादन किया तो वश्ती पणिवेशधारी प्रतनु को पहचान नहीं सकी। एकांत पाकर प्रतनु ने उसे अपना परिचय दिया। दो वर्ष पुरानी घटनायें वृद्धा वश्ती के मानस पटल पर सजीव हो उठीं। वश्ती ने मोहेन-जो-दड़ो में व्यतीत हुए दो वर्षों के समस्त समाचार प्रतनु को कह सुनाये। प्रतनु को यह जानकर संतोष हुआ कि रोमा न केवल सुरक्षित है अपितु प्रतनु की ही प्रतीक्षा कर रही है।
वश्ती ने बताया कि किलात और रोमा के बीच का द्वन्द्व अब काफी उग्र रूप ले चुका है। किलात ने रोमा को चेतावनी दी है कि यदि वह किलात के समक्ष समर्पण नहीं करती है तो उसे धर्मद्रोही होने का दण्ड भुगतने के लिये तैयार रहना चाहिये। रोमा ने किलात को वचन दिया है कि वह पशुपति के वार्षिक समारोह के दिन चन्द्रवृषभ आयोजन के पश्चात् किलात के समक्ष समर्पण करेगी। किलात यह जानकर धैर्य धारण किये हुए है कि पशुपति के वार्षिक समारोह में अब कुछ दिन ही रहे हैं किंतु जैसे-जैसे दिवस व्यतीत होते जाते हैं, रोमा की उद्विग्नता बढ़ती जाती है। उसे विश्वास है कि प्रतनु पशुपति के वार्षिक समारोह तक लौट आयेगा और किलात से रोमा की मुक्ति का कोई न कोई उपाय ढूंढ निकालेगा।
वश्ती की बात सुनकर प्रतनु की शिराओं में रक्त की गति बढ़ गई। उसे लगा कि शिराओं का रक्त न केवल शिराओं से हृदयस्थल तक तीव्र गति से भाग रहा है अपितु उतनी ही तीव्रता से हृदय स्थल से शिराओं तक भी लौट रहा है। अब तक तो सब कुछ अस्पष्ट और धुंधला सा था। लक्ष्य के स्पष्ट नहीं होने से उत्साह भी मृतप्रायः था। अब लक्ष्य स्पष्ट है किंतु लक्ष्य वेधन का उपकरण! वह कहाँ है ?
प्रतनु जानता है कि लक्ष्य पूर्ति हेतु आशा और उत्साह ही सर्वाधिक वांछित उपकरण हैं। इन्हीं के बल पर वह अब तक के समस्त संघर्ष का परिणाम अपने पक्ष में करता आया है किंतु यह कैसी विकट परिस्थिति है! लक्ष्य समक्ष है, लक्ष्य वेधन हेतु आशा एवं उत्साह रूपी उपकरण भी उपलब्ध है किंतु समय की अत्यल्पता संघर्ष के उपकरण को भोथरा बना रही है।
प्रतनु के आग्रह पर वृद्धा वश्ती पर्याप्त रात्रि व्यतीत हो जाने पर नृत्यांगना रोमा को लेकर उसी भवन में पहुँची जिसमें वह रोमा को दो वर्ष पहले लेकर आई थी। कक्ष में पहुँच कर जब रोमा ने श्वेत कर्पास से निर्मित अंशुक से स्वयं को प्रकट किया तो धक् से रह गया प्रतनु। क्या दो वर्ष सचमुच ही व्यतीत हो गये!
दो वर्ष! कम नहीं होता दो वर्ष का अंतराल। विशेषकर तब जबकि परिचय का अवसर केवल दो घड़ी ही रहा हो। प्रतनु को यह अंतराल दो वर्षों की अवधि से युक्त न लगकर कई युगों की अवधि से आपूरित लगा। क्या-क्या नहीं देखा उसने इन दो वर्षों में! मोहेन-जो-दड़ो से नागों के मायावी विवर तक की यात्रा। रानी मृगमंदा के अटपटे प्रश्न। रानी मृगमंदा, निर्ऋति तथा हिन्तालिका की मिश्रित प्रतिमा का रहस्य-भंग। रानी मृगमंदा, निर्ऋति तथा हिन्तालिका का सानिध्य। नाग कुमारियों द्वारा तूर्ण का आयोजन और उसमें रानी मृगमंदा द्वारा आघाटि वादन के समय चिच्चिक और वृषारव के परस्पर संवाद के माध्यम से प्रणय निवेदन। नाग-गरुड़ युद्ध के पश्चात् रानी मृगमंदा द्वारा गुल्मपतियों के समक्ष प्रतनु से विवाह का प्रस्ताव और प्रतनु द्वारा अस्वीकार। रानी मृगमंदा का समर्पण। नागों के विवर से पिशाचों की भूमि और वहाँ मुखिया टिमोला से लेकर मादा पिशाच मोएट। पशुचर्म की आशा में पशुओं पर प्रहार करने के लिये प्रतनु के हाथों में थमे प्रस्तर खण्ड। आर्य अश्वारोहियों से भेंट। समस्त दृश्य प्रतनु के मस्तिष्क में चित्र के सदृश उभर आये।
इन समस्त उपक्रमों में पूरी तरह निरत रहते हुए भी प्रतनु के समक्ष एक ही लक्ष्य रहा है- निर्वासन अवधि के उस पार खड़ी रोमा। रोमा ही उसका एक मात्र लक्ष्य रही है। रोमा के लिये ही वह शर्करा से चलकर पहली बार मोहेन-जो-दड़ो आया था और आज वह पुनः उसी की आशा में दुबारा आया है। कहाँ-कहाँ भटकता नहीं फिरा है वह रोमा के लिये! जब कभी वह रानी मृगमंदा, निर्ऋति अथवा हिन्तालिका के निकट होता था, उसे रोमा का स्मरण हो आता था। यहाँ तक कि जब मादा पिशाच मोएट ने उसे बंधनमुक्त किया था उस समय भी उसे रोमा का ही स्मरण हो आया था।
आज जबकि पशुपति महालय की प्रधान नृत्यांगना, सैंधव सभ्यता की अनिंद्य-अप्रतिम सुंदरी, सर्व-भावेन सामथ्र्यवान महादेवी रोमा उसके सामने है, उसे रानी मृगमंदा के साथ व्यतीत हुए क्षणों का स्मरण हो रहा है। क्यों होता है ऐसा ? प्रतनु कुछ समझ नहीं पाता।
उसे रोमा द्वारा दो वर्ष पूर्व की भेंट में कहे गये शब्दों का स्मरण हो आया- ‘जहाँ रोग जन्म लेता है वहीं उसकी औषधि भी होती है। प्रकृति का यही नियम है।’ यहीं, इसी रोमा को देखकर तो उसके हृदय में अनुराग का रोग उत्पन्न हुआ था। निश्चय ही रोमा ही उस रोग की औषधि है।
विगत भेंट का एक-एक दृश्य स्मरण हो आया प्रतनु को। रोमा की इसी बात पर तो प्रतनु ने अपने हृदय में नृत्यांगना के प्रति नवीन भाव के संचरण का अनुभव किया था कि जहाँ रोग जन्म लेता है वहीं उसकी औषधि भी होती है। प्रतनु ने यह भी अनुभव किया था कि उस दिन रोमा के लिये उसके मन में उत्पन्न हुआ आकर्षण नितान्त काल्पनिक आकर्षण नहीं था, जो उसके हृदय में मोहेन-जो-दड़ो आने से पहले केवल रोमा के नृत्य और सौंदर्य की ख्याति को सुनकर उपजा था। वह रूप जनित आकर्षण भी नहीं था जो पशुपति उत्सव में रोमा को देखकर उपजा था। वह तो कोई और ही नवीन भाव था। प्रतनु ने अनुभव किया था कि वह संभवतः आत्मीयता का भाव था जो प्रत्युपकार की भावना से उपजा था।
नहीं-नहीं! गलत सोचा था प्रतनु ने। वह आत्मीयता का भाव तो था किंतु नितान्त प्रत्युपकार की भावना से उत्पन्न नहीं हुआ था। प्रत्युपकार कैसा! प्रत्युपकार तो सकारण है और आत्मीयता अकारण। ठीक ही तो कहा था तब नृत्यांगना रोमा ने- ‘आत्मीयता का कोई कारण नहीं होता। आत्मीयता तो स्वयं ही कारण है और स्वयं ही परिणाम।’ प्रतनु को लगा कि इन दो वर्षों के अंतराल में रोमा द्वारा कहा गया एक-एक शब्द स्वयं-सिद्ध हो गया है।
उस दिन अश्रुपूरित आँखों से रोमा ने यह भी कहा था कि आत्मीयता का अनुभव आज नहीं कर रहे हो किंतु कल करने लगोगे। कितना सही कहा था रोमा ने! उस दिन प्रतनु ने रोमा के प्रति जो कुछ भी अनुभव किया था, उसका कारण भले ही शरण में आई रमणी के प्रति सदाशयता रहा हो अथवा रोमा द्वारा प्रतनु के शिल्प लाघव की प्रशंसा करने के लिये रोमा के प्रति उत्पन्न आभार किंतु उस दिन की आत्मीयता और आज की आत्मीयता में अन्तर है।
वह क्या था जो प्रतनु को मायावी नागलोक के सम्पूर्ण वैभव, रानी मृगमंदा और उसकी सखियों के समर्पित प्रेम से दूर भगा कर यहाँ पुनः मोहेन-जो-दड़ो में खींच लाया था! वह कौनसा आकर्षण था जिसने प्रतनु को पिशाचों के बीच भी प्रत्यक्ष मृत्यु-मुख से निकल भागने के लिये प्रेरित किया था!
क्या यह केवल आत्मीयता का ही भाव था! अथवा कुछ और! आत्मीयता तो उसे रानी मृगमंदा और उसकी सखियों से भी थी। वह भी संभवतः आत्मीयता का ही भाव था जो उसने आर्य अश्वारोहियों के मुखिया के प्रति अनुभव किया था। आत्मीयता जैसा ही कोई भाव उसके मन में अपने उस उष्ट्र के प्रति भी था जो दीर्घ यात्रओं में उसका एकमात्र सहचर रहा था। यहाँ तक कि आत्मीयता तो उसने क्षण भर के लिये घृणित देह वाली मादा पिशाच मोएट से भी अनुभव की थी जिसने उसे अनायास प्राणदान दिया था। नहीं-नहीं उसके मन में रोमा के प्रति नितांत आत्मीयता नहीं है, कुछ और भी है जो उसे सम्पूर्ण मन प्राण और चेतना के साथ उसे आकर्षित करता है।
प्रतनु ने देखा कि कर्पास अंशुक से विलग होकर रोमा उसी की ओर बढ़ी चली आ रही है। रोमा ने अपनी दोनों भुजायें फैला रखी हैं। वह उन्माद की अवस्था में है। प्रतनु ने भी अपनी भुजायें फैला दीं। अगले क्षण सैंधव सभ्यता की अनिंद्य-अप्रतिम सुंदरी दिव्य नृत्यांगना रोमा उससे ऐसे लिपट गयी जैसे कोई आलम्ब आकांक्षिणी सुकोमल वल्लरी दृढ़ वृक्ष के चारों ओर लिपट जाती है।
जाने कितना समय उसी अवस्था में व्यतीत हो गया। जैसे चंचरीक कमलिनी के प्रणय आग्रह से आबद्ध होकर उसकी सुकोमल पांखुरियों में बेसुध होकर ठहर जाता है, उसी तरह प्रतनु रोमा की भुजाओं में लिपट कर रह गया। दासी वश्ती के खंासने से व्यवधान पाकर वे दोनों प्रणयी, अदृश्य प्रणय लोक से पुनः स्थूल वर्तमान में लौटे।
मौन ही रहा यह अभिसार। दोनों ही ओर से कोई शब्द नहीं, कोई संवाद नहीं। जाने जीवन में ऐसा क्यों होता है कि जब बहुत कुछ बोलने की इच्छा होती है, मनुष्य वहाँ कुछ भी नहीं बोलता! यह भी कितनी विचित्र बात है कि सर्वाधिक प्रभावी संप्रेषण मौन रह कर ही हो पाता है। शब्द तो सीमित अर्थ ही लिये हुए होते हैं। फिर अभी तक सिंधु सभ्यता उन बहुत सारे शब्दों की रचना कहाँ कर पाई है जिनके माध्यम से मानव मन के सारे भाव संप्रेषित हो जायें! प्रतनु ने अनुभव किया कि सिंधु सभ्यता ही क्या संसार की कोई भी सभ्यता अभी तक बहुत सारे शब्दों से वंचित है। कौन जाने मानव कभी आगे भी पूरे शब्दों की रचना कर पायेगा या नहीं!
[1] वह गली जिसमें व्यापार होता हो अर्थात् हाट।