मुनि सुतीक्ष्ण श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी को अपने साथ लेकर महर्षि अगस्त्य के आश्रम पहुंचे। यह आश्रम कहाँ रहा होगा, इस पर विचार किया जाना चाहिए! भारतवर्ष में महर्षि अगस्त्य के अनेक आश्रम हैं। इनमें से कुछ मुख्य आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में हैं। उत्तर भारत के उत्तराखण्ड प्रांत के रुद्रप्रयाग नामक जिले में अगस्त्य मुनि नामक नगर है।
यहाँ महर्षि अगस्त्य ने तप किया था तथा आतापी-वातापी नामक दो असुरों का वध किया था। इस आश्रम के स्थान पर वर्तमान में एक मन्दिर बना हुआ है। आसपास के अनेक गाँवों में मुनि अगस्त्य को इष्टदेव के रूप में पूजा जाता है। माना जाता है कि महर्षि अगस्त्य दक्षिणापथ जाने से पहले इस आश्रम में रहते थे। यह रामायण काल से पहले की बात है।
महर्षि अगस्त का एक मुख्य आश्रम महाराष्ट्र के नागपुर जिले में है। यहाँ महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। श्रीराम के गुरु महर्षि वशिष्ठ का एक आश्रम अगस्त्य के इसी आश्रम के निकट था। महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को इस कार्य हेतु कभी समाप्त न होने वाले तीरों वाला तरकश प्रदान किया था।
महर्षि अगस्त का एक मुख्य आश्रम महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोला के निकट प्रवरा नदी के किनारे स्थित है। यहाँ भी महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था।
श्रीराम के वनवास गमन के पथ के अनुसार यह अनुमान लगाया जाना सहज है कि मुनि सुतीक्ष्ण श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी को अपने साथ लेकर महाराष्ट्र के नागपुर जिले में स्थित आश्रम पहुंचे होंगे।
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महर्षि अगस्त्य को भी श्रीराम के आगमन की सूचना थी। चूंकि महर्षि वसिष्ठ इक्ष्वाकुओं के कुलगुरु थे तथा वसिष्ठ एवं अगस्त्य के आश्रम निकट थे, इसलिए अगस्त्य को इक्ष्वाकुओं की श्रेष्ठ परम्पराओं एवं श्रीराम के व्यक्तित्व एवं उनके जीवन के लक्ष्य की पूरी जानकारी रही होगी। इसलिए अन्य ऋषियों की तरह अगस्त्य भी श्रीराम के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
जहाँ दूसरे ऋषियों को श्रीराम के रूप में अपने इष्टदेव के दर्शनों की अभिलाषा थी, वहीं अगस्त्य के लक्ष्य भिन्न थे। वे श्रीराम के हाथों राक्षसों का संहार करवाना चाहते थे। इस प्रकार इस काल में महर्षि अगस्त्य और श्रीराम के जीवन-लक्ष्य एक जैसे थे। वे दोनों ही राक्षसों का संहार करके आर्य-संस्कृति की रक्षा करना चाहते थे। विगत हजारों साल से राक्षस देव-संस्कृति एवं आर्य-संस्कृति को नष्ट करने में लगे हुए थे। इसलिए वे लंका, जावा, सुमात्रा एवं बाली आदि द्वीपों से भारत की मुख्य भूमि पर प्रवेश करते थे एवं दक्षिणापथ से जनस्थान होते हुए दण्डकारण्य, आर्यावर्त तथा ब्रह्मर्षि देश तक धावे मारते थे।
राक्षसों के राजा रावण ने अयोध्या राज्य में प्रवेश करके श्रीराम के पूर्वपुरुष राजा अनरयण्य का वध किया था। इसलिए श्रीराम चाहते थे कि इन राक्षसों की शक्ति को नष्ट किया जाए। यही कारण था कि कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ, अनुज भरत, समस्त अयोध्यावासियों एवं माताओं के बार-बार आदेश एवं अनुरोध के उपरांत भी श्रीराम चित्रकूट से अयोध्या नहीं लौटे थे अपितु गहन दण्डकारण्य में प्रवेश करके विंध्याचल पार करते हुए महर्षि अगस्त्य के आश्रम में आ पहुंचे थे।
श्रीराम के इस निर्णय में महर्षि विश्वामित्र के उस शिक्षण का भी बड़ा प्रभाव रहा जो विश्वामित्र ने उन्हें किशोरावस्था में अपने आश्रम पर आक्रमण करने वाले राक्षसों के संहार के निमित्त दिया था। इस प्रकार ऋषियों की रक्षा और राक्षसों का संहार श्रीराम के जीवन के दो मुख्य उद्देश्य बन गए थे। श्रीराम के इस क्षेत्र में पहुंचने से पहले केवल महर्षि अगस्त्य ही एकमात्र ऐसी शक्ति थे जो जनस्थान की ओर से आने वाले राक्षसों से निरंतर युद्ध कर रहे थे। महर्षि ने इन राक्षसों से युद्ध करने के लिए अनेक दिव्य शस्त्रों का निर्माण किया था।
महर्षि ने विशिष्ट प्रकार की युद्ध विद्याएं भी विकसित की थीं। जिस प्रकार श्रीराम चाहते थे कि उन्हें महर्षि से दिव्य शस्त्र एवं युद्ध-कौशल प्राप्त हो जाए। उसी प्रकार महर्षि अगस्त्य भी चाहते थे कि कोई क्षत्रिय राजकुमार इस कार्य का बीड़ा उठाए जो राक्षसों के विरुद्ध बड़ा युद्ध आहूत करे और उस युद्ध में दुष्ट राक्षसों की आहुति दे।
युद्ध विद्याओं पर महर्षि अगस्त्य का कितना गहरा प्रभाव था, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि महर्षि अगस्त्य को आज भी केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की दक्षिणी शैली वर्मक्कलै का आदि गुरु माना जाता है। वर्मक्कलै निःशस्त्र युद्धकला शैली है। मान्यता है कि भगवान शिव ने अपने पुत्र मुरुगन स्वामी अर्थात् कार्तिकेय को यह युद्धकला सिखायी थी तथा मुरुगन स्वामी ने यह कला महर्षि अगस्त्य को सिखायी थी। महर्षि अगस्त्य ने यह कला अन्य सिद्धों को सिखायी तथा इस कला पर तमिल भाषा में पुस्तकें भी लिखीं। महर्षि अगस्त्य को दक्षिणी चिकित्सा पद्धति अर्थात् ‘सिद्ध वैद्यक’ का भी जनक माना जाता है। किसी भी बड़े युद्ध में चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान होना परम आवश्य है ताकि घायल योद्धाओं का उपचार करके उनके प्राण बचाए जा सकें।
जब श्रीराम और रावण का युद्ध हुआ तो उसमें कम से कम दो बार अनुभवी एवं सिद्ध चिकित्सकों की आवश्यकता पड़ी। एक बार वैद्य सुषेण से श्रीलक्ष्मण का उपचार करवाया गया एवं दूसरी बार गरुड़जी से राम एवं लक्ष्मण का नागपाश कटवाया गया।
जब सुतीक्ष्णजी श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी को लेकर महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुंचे तो श्रीराम ने निःसंकोच होकर कहा-
तुम जानहु जेहि कारन आयउँ, तेहि ताते तात न कहि समझायउँ।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही, जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी, पूछेहु नाथ मोहि का जानी।
अर्थात्- जब श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य से कहा कि आप जानते हैं कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। इसलिए अधिक विस्तार से नहीं कहना चाहता हूँ। आप कृपा करके मुझे ऐसा मंत्र दीजिए ताकि मैं मुनियों के द्रोहियों को अर्थात् राक्षसों को मार सकूं। इस पर महर्षि अगस्त्य ने मुस्कुराकर कहा कि हे प्रभु! आप मुझसे ऐसा क्यों कह रहे हैं, मैं तो आपके समक्ष कुछ भी नहीं हूँ। मैं तो आपका भजन करके इस जन्म से मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे आपकी बहुत बड़ी महिमा में से थोड़ी सी महिमा का ज्ञान है।
यह प्रसंग इस बात की ओर संकेत करता है कि वीर पुरुष कभी घमण्डी नहीं होते, श्रीराम और अगस्त्य दोनों ही महावीर थे और दोनों ही घमण्ड से नितांत दूर थे।