Sunday, December 22, 2024
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अध्याय – 24 (अ) : मुगल सल्तनत की अस्थिरता का युग

नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ

हुमायूँ का प्रारम्भिक जीवन

बाबर के चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं जिनमें हुमायूँ सबसे बड़ा था। हुमायूँ का जन्म 6 मार्च 1508 को काबुल में हुआ था। उसकी माँ माहम सुल्ताना हिरात के शिया मुसलमान हुसैन बैकरा के खानदान से थी, उसे माहिज बेगम भी कहते थे। हुमायूँ को तुर्की, अरबी, फारसी भाषओं के साथ-साथ युद्ध करने की शिक्षा भी दी गई थी। हुमायूँ अपने पिता के जीवन काल में ही अनेक युद्धों में भाग लेने तथा प्रशासकीय कार्य करने अनुभव प्राप्त कर चुका था। उसने पानीपत तथा खनवा के युद्धों में भाग लेकर अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया था। बाबर ने उसे बंगाल तथा बिहार के अफगान अमीरों के विद्रोह का दमन करने की जिम्मेदारी दी थी। हुमायूँ ने इस कार्य में पूरी सफलता प्राप्त की। हुमायूँ की सफलताओं से प्रसन्न होकर बाबर ने उसे दो बार बदख्शाँ का शासन प्रबन्ध सौंपा। बदख्शाँ पर उजबेग लोग बार-बार आक्रमण करते थे परन्तु हुमायूूॅँ ने उजबेगों को दबाकर वहाँ पर शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित की। बाबर ने हुमायूँ को हिसार-फिरोजा तथा सम्भल का शासन सौंपा।

आगरा के तख्त की प्राप्ति

बाबर की मृत्यु के चार दिन बाद 30 दिसम्बर 1530 को हुमायूँ आगरा के तख्त पर बैठा। इस विलम्ब का कारण यह था कि बाबर के प्रधानमंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा ने हुमायूँ के बहनोई मेंहदी ख्वाजा को तख्त पर बैठाने का प्रयत्न किया किंतु बाद में प्रधानमंत्री को यह अनुभव हो गया कि यदि उसने ऐसा किया तो उसका अपना जीवन खतरे में पड़ जायेगा इसलिये उसने हुमायूँ का समर्थन कर दिया। उस समय हुमायूँ 23 वर्ष का था। उसके बादशाह बनने पर राज्य में खुशियाँ मनायी गईं और दान-दक्षिणा दी गई। राज्य के अफसरों तथा अमीरों ने उसका स्वागत किया और उसकी बादशाहत को सहर्ष स्वीकार किया। इस प्रकार हुमायूँ को तख्त प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

हुमायूँ की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ

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यद्यपि हुमायूँ को तख्त प्राप्त करने में विशेष कठिनाई नहीं हुई परन्तु उसका मार्ग बिल्कुल निष्कंटक नहीं था। उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं जिनका निराकरण करना आवयक था-

(1.) साम्राज्य की विशालता: बाबर ने थोड़े ही दिनों में अपने सैन्यबल से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। यह साम्राज्य पश्चिम में आमू नदी से लेकर पूर्व में बिहार तक फैला था। दक्षिण में मालवा तथा राजपूताना के राज्य उसके साम्राज्य की सीमा पर स्थित थे। इस साम्राज्य को कुछ समय के लिये तो संभाला जा सकता था परन्तु दीर्घकालीन शासन के लिये नवीन शासन व्यवस्थायें करनी आवश्यक थीं। बाबर द्वारा स्थापित साम्राज्य की कोई शासकीय आधारशिला नहीं रखी गई थी।

(2.) साम्राज्य की दुर्बलता: हुमायूँ को अपने पिता से एक अव्यवस्थित राज्य मिला था। बाबर ने अपना राज्य अमीरों तथा सरदारों में बाँट दिया था जो अपने-अपने क्षेत्र में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी थे। ये सरदार प्रति वर्ष एक निश्चित राशि सरकारी खजाने में भेजते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर बादशाह को सैनिक सहायता उपलब्ध करवाते थे। यह सामन्तीय प्रथा हुमायूँ के लिए खतरे से खाली नहीं थी। अमीर तथा सरदार कभी भी धोखा दे सकते थे और बादशाह तथा सल्तनत के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते थे।

(3.) शासन की व्यवस्था: अभी भारत को जीतने के लिये आवश्यक युद्ध पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुए थे कि बाबर की मृत्यु हो गई थी इसलिये हुमायूँ जिस समय तख्त पर बैठा, वह समय युद्ध कालीन परिस्थितियों का था। अभी मुगल तथा अफगान एक दूसरे को उन्मूलित करने में संलग्न थे और उनकी सेनाओं का संचालन निरन्तर होता रहता था। ऐसी स्थिति में हुमायूँ के राज्य में बड़ी राजनीतिक तथा आर्थिक गड़बड़ी फैली हुई थी तथा शासन अस्त-व्यस्त था।

(4.) सेना का असन्तोषजनक संगठन: मुगल सेना का संगठन भी संतोषजनक नहीं था। उसमें मंगोल, उजबेग, तुर्क, चगताई, फारसी, अफगानी तथा भारतीय मुसलमान भर्ती थे। प्रत्येक सेना प्रायः अपने कबीले के नेता की अध्यक्षता में युद्ध करती थी। विभिन्न कबीलों से सम्बन्ध रखने वाली इन सेनाओं में ईर्ष्या-द्वेष व्याप्त था। इस प्रकार मुगल सेना में एकता की भावना नहीं थी। इसलिये युद्ध के समय इस सेना पर बहुत अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता था। कई बार सैनिक टुकड़ियां परस्पर संघर्ष करने लगती थीं। यह स्थिति राज्य के लिये अत्यंत घातक थी।

(5.) भाइयों के कुचक्र: हुमायूँ को अपने भाइयों की ओर से भी बड़ा खतरा था। हुमायूँॅ के तीन भाई थे- कामरान, अस्करी तथा हिन्दाल। इनमें से कामरान अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था। उसमें सामरिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा भी थी। इसलिये संभव था कि वह हुमायूँ का प्रतिद्वन्द्वी बनकर स्वयं हिन्दुस्तान का बादशाह बनने का प्रयास करे। अन्य भाई भी हुमायूँ के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करते थे। इसलिये हुमायूँ को मंगोल शहजादों के कुचक्रों का भी सामना करना था।

(6.) अमीरों के षड्यन्त्र: अनेक मंगोल एवं चगताई अमीर शासन में अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने के लिये अलग-अलग शहजादों के समर्थक बन गये। वे इन शहजादों को हुमायूँ के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की सिद्धि करने लगे। इससे दूर-दूर तक विस्तृत शासन को संभालना और भी कठिन हो गया।

(7.) मिर्जाओं के षड्यन्त्र: मिर्जा उन कुलीन लोगों को कहते थे जो राजवंश से सम्बन्धित होने के कारण स्वयं को तख्त का अधिकारी समझते थे। हुमायूँ को इन मिर्जाओं से उतना ही बड़ा खतरा था जितना अपने भाइयों की ओर से। राज्य में कुछ बड़े ही प्रभावशाली तथा शक्तिशाली मिर्जा विद्यमान थे जो तैमूर के वंशज थे और बाबर के तख्त के उसी प्रकार दावेदार थे जिस प्रकार बाबर के पुत्र। इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली मुहम्मद जमाँ मिर्जा था जिसका विवाह बाबर की पुत्री मासूमा बेगम से हुआ था। पहले वह बिहार का शासक बनाया गया परन्तु बाद में उसे जौनपुर का शासक बनाया गया जो मुगल साम्राज्य की सीमा पर स्थित था। अपने प्रभाव तथा अपनी स्थिति के कारण वह कभी भी हुमायूँ के लिए संकट उत्पन्न कर सकता था। दूसरा प्रभावशाली मिर्जा मुहम्मद सुल्तान मिर्जा था जो सुल्तान हुसैन की लड़की का पुत्र था। हुमायूँ को इन मिर्जाओं से सतर्क रहना था क्योंकि ये लोग किसी भी संकटापन्न स्थिति में हुमायूँ के राज्य की बन्दरबांट कर सकते थे।

(8.) अफगानों की समस्या: बाबर ने पानीपत तथा घाघरा के युद्धों में अफगानों पर विजय प्राप्त कर ली थी परन्तु वह उनकी शक्ति को पूर्ण रूप से उन्मूलित नहीं कर सका था। बाबर के भय से अफगान छिन्न-भिन्न हो गये थे और उनका नैतिक बल समाप्त प्रायः था परन्तु उनमें से कई अफगान अब भी मंगोलों के आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने बाबर के मरते ही फिर से महमूद लोदी को अपना सुल्तान घोषित कर दिया और उसके झण्डे के नीचे संगठित होने लगे। बिबन, बयाजीद, मारूफ, फार्मूली आदि शक्तिशाली अफगान नेताओं ने अपनी सेनाओं के साथ विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। वे अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः स्थापित करने की ताक में थे। वे बंगाल तथा गुजरात के शासकों से मिलकर मुगलों को भारत से मार भगाने की योजनाएँ बना रहे थे। यदि हुमायूँ इन अफगानों का दमन करने का प्रयत्न करता तो उन्हें बिहार, बंगाल तथा गुजरात के शासकों से सहायता मिल सकती थी।

(9.) गुजरात के शासक बहादुरशाह की समस्या: हुमायूँ को जितना बड़ा खतरा बिहार तथा बंगाल के अफगानों से था उससे कहीं अधिक बड़ा खतरा गुजरात के शासक बहादुरशाह से था। बहादुरशाह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी नवयुवक था। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए उसके पास साधन भी थे। उसका राज्य बड़ा सम्पन्न था। उस के पास हिन्दुस्तान का सबसे अच्छा तोपखाना था और उसे अत्यंत योग्य अफसरों की सेवाएँ प्राप्त थीं। उसके पड़ौसी राज्य उसकी शक्ति से आतंकित रहते थे। राजपूताना, मालवा तथा दक्षिण भारत के राज्यों में बहादुरशाह का विरोध करने की क्षमता नहीं थी। ऐसे शक्तिशाली अफगान शासक की ओर अन्य अफगान सरदारों का आकृष्ट हो जाना स्वाभाविक ही था। फतेह खाँ, कुतुब खाँ, आलम खाँ आदि कई अफगान सरदार, मुगल दरबार के कोप का भाजन बनने पर गुजरात चले गये। बहादुरशाह ने उनका स्वागत किया और उन्हें जागीरों तथा पदों से पुरस्कृत किया। इस प्रकार बहादुरशाह हुमायूँ का बड़ा प्रतिद्वन्द्वी बन गया। उत्तर भारत में उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था और उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। इसलिये हुमायूँ को उससे भी सतर्क रहना आवश्यक था।

(10.) राजपूतों की ओर से खतरा: यद्यपि बाबर ने खनवा के युद्ध में राणा सांगा को परास्त कर दिया था जिसका राजपूत संघ पर घातक प्रभाव पड़ा था परन्तु राणा सांगा का पुत्र रत्नसिंह फिर से अपनी शक्ति बढ़ाने में लग गया था। अन्य राजपूत राज्य भी स्वयं को संगठित करने तथा अपनी शक्ति बढ़़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। राजपूत शासक मुगलों को घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा वे मुगलों को भारत से बाहर निकालने के लिये अफगानों से गठबन्धन कर सकते थे। इसलिये हुमायूँ को उनकी ओर से भी पूरा खतरा था।

(11.) साम्राज्य विभाजन की समस्या: तुर्कों तथा मंगोलों की प्राचीन परंपरा के अनुसार बाबर की मृत्यु के उपरान्त उसका साम्राज्य उसके पुत्रों में विभक्त हो जाना चाहिए था। यदि हुमायूँ इस परम्परा की उपेक्षा करके सारा राज्य अपने अधिकार में रखने का प्रयत्न करता तो सम्भव था कि उसके भाई उनके विरुद्ध विद्रोह कर देते और अमीर लोग उनके साथ एकत्रित होकर उनका समर्थन करते। अतः हुमायूँ ने अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने पिता का साम्राज्य अपने भाइयों में बांट दिया। उसने कामरान को पंजाब, काबुल, तथा बदख्शाँ, अस्करी को सम्भल तथा हिन्दाल को अलवर का राज्य दे दिया। साम्राज्य का शेष भाग हुमायूँ ने अपने पास रखा। इस प्रकार हुमायूँ ने अपने पिता के साम्राज्य को अपने भाइयों में बाँट दिया परन्तु सिद्धान्तः वह अपने पिता के तख्त का उत्तराधिकारी बना रहा और उसकी प्रभुत्व शक्ति अविभक्त बनी रही। कामरान इस व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं हुआ और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।

हुमायूँ की सामरिक उपलब्धियाँ

कालिंजर पर आक्रमण

कालिंजर का दुर्ग उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित था। वह विन्ध्याचल पर्वत पर कई सौ फुट ऊँची चट्टान पर बना हुआ होने के कारण सुरक्षित तथा अभेद्य समझा जाता था। तुर्कों ने कई बार इस पर अधिकार करने का प्रयास किया था। बाबर ने भी हुमायूँ को इस दुर्ग को जीतने के लिए भेजा था परन्तु हुमायूँ को कालिंजर के शासक राजा प्रताप रुद्र से समझौता करके दुर्ग का घेरा उठाना पड़ा था। बाबर की मृत्यु के बाद राजा प्रताप रुद्र कालपी पर अधिकार जमाने का प्रयत्न करने लगा। इन दिनों कालपी का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया था क्योंकि गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मार्च 1531 में मालवा पर अधिकार कर लिया था जिससे कालपी उसके लिए उत्तरी हिन्दुस्तान में आने के लिए प्रवेश द्वार बन गया था। इसलिये हुमायूँ ने कालिंजर पर फिर से अधिकार करने का निर्णय लिया तथा कालिंजर दुर्ग पर घेरा डाल दिया। हुमायूँ की सेना एक महीने तक कालिंजर दुर्ग पर गोलाबारी करती रही परन्तु दुर्ग को अधिकार में नहीं किया जा सका। हुमायूँ को कालिंजर में व्यस्त देखकर इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी ने जौनपुर पर अधिकार कर लिया और वहाँ से मुगल अफसरों को मार भगाया। इसलिये हुमायूं को एक बार फिर कालिंजर के राजा से समझौता करना पड़ा।

महमूद लोदी से संघर्ष

महमूद लोदी तथा उसके समर्थकों ने सबसे पहले बिहार को अपने अधिकार में कर लिया और वहीं पर एक बहुत बड़ी सेना एकत्रित कर ली। इसके बाद इन लोगों ने मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण करने आरम्भ किये। इन लोगों ने जौनपुर से मुगलों को मार भगाया और अवध में भी अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस समय हुमायूँ कालिंजर में था। वह चुनार होता हुआ जौनपुर की ओर बढ़ा परन्तु वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाने के कारण वह अफगानों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका। इसी समय उसे अपने भाई कामरान के विद्रोह की सूचना मिली। अतः वह आगरा चला गया।

कामरान का विद्रोह

जब कामरान ने देखा कि हुमायूँ अपने शत्रुओं से संघर्ष करने में व्यस्त है तो उसने अफगानिस्तान का प्रबन्ध अपने छोटे भाई अस्करी को सौंप दिया और स्वयं अपनी सेना के साथ पंजाब में घुस आया। कामरान ने मुल्तान तथा लाहौर पर अधिकार करके वहाँ पर अपने अधिकारी नियुक्त कर दिये। इसके बाद कामरान ने हुमायूँ को चालाकी भरे विनम्र पत्र लिखे कि वह मुल्तान तथा पंजाब के प्रान्त उसे दे दे। चूँकि हुमायूँ के पास अपने साम्राज्य के पश्चिमी भाग में शान्ति बनाये रखने का अन्य कोई उपाय नहीं था। इसलिये उसने कामरान की प्रार्थना स्वीकार कर ली।

महमूद लोदी की पराजय

कामरान को सन्तुष्ट करने के बाद हुमायूँ ने पुनः विद्रोही अफगानों की ओर ध्यान दिया। उसने लखनऊ से थोड़ी दूर पर स्थित दौरान नामक स्थान पर अफगानों के साथ लोहा लिया। अफगानों ने अपने खोये हुए राज्य की प्राप्ति के लिये बड़ी वीरता से युद्ध किया परन्तु वे परास्त हो गये। महमूद लोदी बिहार की ओर भाग गया। उसने फिर कभी युद्ध करने का साहस नहीं किया। जौनपुर पर हुमायूँ का अधिकार हो गया।

बहादुरशाह से संघर्ष

बहादुरशाह की गतिविधियाँ: गुजरात का शासक बहादुरशाह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था। वह निरन्तर अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहा था और मुगल साम्राज्य के लिए खतरा उत्पन्न कर रहा था। उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। मार्च 1531 में उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। मेवाड़ का राज्य, दिल्ली तथा मालवा के बीच स्थित था। यदि बहादुरशाह मेवाड़ पर अधिकार स्थापित कर लेता तो वह मुगल सम्राज्य की सीमा पर पहुँच जाता और सीधे मुगल साम्राज्य पर आक्रमण कर सकता था। बहादुरशाह ने हुमायूँ केे शत्रु शेरखाँ के साथ गठजोड़ कर लिया था और हुमायूँ के विरुद्ध उसकी सहायता कर रहा था। बहादुरशाह ने बंगाल के शासक के साथ भी सम्पर्क स्थापित कर लिया था जो हुमायूँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा था। वास्तव में बहादुरशाह का दरबार हुमायूँ के शत्रुओं की शरण स्थली बन गया था। बहुत से विद्रोही अफगान तथा असंतुष्ट मुगल अमीर बहादुरशाह के दरबार में चले गये थे। इनमें हुमायूँ का बहनोई मुहम्मद जमाँ मिर्जा भी था जिसने हुमायूूूँ के विरुद्ध विद्रोह कर रखा था और वह बयाना के कारागार से भागकर बहादुरशाह के पास पहुँचा था। इन अमीरों ने बहादुरशाह को समझाया कि हुमायूँ एक निकम्मा शासक है और उसकी सेना में कोई दम नहीं है। इसलिये उससे दिल्ली का तख्त प्राप्त करना कठिन नहीं है। बहादुरशाह ने हुमायूँ के विरुद्ध हाथ आजमाने का निर्णय कर लिया। बहादुरशाह को पुर्तगालियों से भी सैनिक सहायता का आश्वासन मिल गया। बहादुरशाह की गतिविधियां देखकर हुमायूँ भी समझ गया था कि उससे युद्ध होना अनिवार्य है। उसने बहादुरशाह को पत्र लिखा कि वह उसके शत्रुओं को, विशेषकर मुहम्मद जमाँ मिर्जा को अपने यहाँ शरण नहीं दे। बहाुदरशाह ने हुमायूँ को संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। इस पर हुमायूँ ने उससे युद्ध करने का निश्चय किया।

हुमायूँ का प्रस्थान: 1535 ई. में हुमायूं अपनी सेना के साथ आगरा से प्रस्थान करके ग्वालियर पहुँच गया और वहीं से बहादुरशाह की गतिविधियों पर दृष्टि रखने लगा। थोड़े दिनों बाद हुमायूँ और आगे बढ़ा तथा उज्जैन पहुँच गया। इन दिनों बहादुरशाह चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था। कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा विक्रमादित्य की माता, रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजकर उससे सहायता मांगी। यह हुमायूँ के लिए स्वर्णिम अवसर था परन्तु हुमायूं ने इससे कोई लाभ नहीं उठाया। उसने यह सोचकर कि बहादुरशाह काफिरों से युद्ध कर रहा है और यदि हुमायूँ ने काफिरों की सहायता की तो उसे कयामत के समय उत्तरदायी होना पड़ेगा, राजपूतों की कोई सहायता नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि चित्तौड़ पर बहादुरशाह का अधिकार स्थापित हो गया और उसकी शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई। उसने चित्तौड़ को खूब लूटा तथा अपार धन सम्पत्ति प्राप्त की।

बहादुरशाह पर आक्रमण: अब हुमायूँ की भी आँखें खुलीं और वह बहादुरशाह पर आक्रमण करने के लिए वह आगे बढ़ा। बहादुरशाह ने हुमायूँ का मार्ग रोकने के लिये मन्दसौर में चारों ओर से खाइयाँ खुदवा कर मोर्चा बांधा। उसने अपने तोपखाने को सामने करके अपनी सेना उसके पीछे छिपा दी। हुमायूँ को इसका पता लग गया। इसलिये हुमायूँ के अश्वारोहियों ने दूर से ही बहादुरशाह की सेना पर बाण वर्षा आरम्भ की तथा बहादुरशाह के तोपखाने को बेकार कर दिया। हुमायूँ ने उसके रसद मार्ग को भी काट दिया। इस पर बहादुरशाह मन्दसौर से भाग कर माण्डू चला गया। मुगल सेना ने तेजी से बहादुरशाह का पीछा किया। बहादुरशाह केवल पाँच स्वामिभक्त अनुयायियों के साथ चम्पानेर भाग गया। माण्डू के दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। चम्पानेर पहुँचने पर बहादुरशाह ने अपने हरम की स्त्रियों तथा अपने खजाने को ड्यू भेज दिया जो पुर्तगालियों के अधिकार में था। इसके बाद बहादुरशाह ने चम्पानेर में आग लगवा दी जिससे शत्रु कोई लाभ नहीं उठा सके। इसके बाद बहादुरशाह खम्भात भाग गया। हुमायूँ ने एक हजार अश्वारोहियों के साथ उसका पीछा किया। बहादुरशाह भयभीत होकर ड्यू भाग गया और उसने पुर्तगालियों के यहाँ शरण ली। हुमायूँ भी खम्भात पहुँच गया तथा उसे लूटकर जलवा दिया। हुमायूँ ने खम्भात में रहकर पुर्तगालियों के साथ मैत्री स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु वह सफल नहीं हो सका। पुर्तगालियों ने बहादुरशाह के साथ गठबन्धन कर लिया और उसकी सहायता करने का वचन दिया।

हुमायूँ का गुजरात पर अधिकार: हुमायूं खम्भात से चम्पानेर लौट आया। उसने चम्पानेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया जहाँ से उसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई। हुमायूँ ने इस सम्पत्ति को भोग-विलास में व्यय कर दिया। थोड़े ही दिनों बाद हुमायूँ चम्पानेर से अहमदाबाद की ओर बढ़ा और गुजरात पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने अस्करी मिर्जा को गुजरात का शासक नियुक्त किया। गुजरात की व्यवस्था करने के उपरान्त हुमायूँ ड्यू की ओर बढ़ा परन्तु इसी समय उसे उत्तरी भारत में विद्रोह होने की सूचना मिली। इसलिये उसने आगरा के लिए प्रस्थान किया।

बहादुरशाह की मृत्यु: हुमायूँ के लौटते ही बहादुरशाह तथा उसके समर्थकों ने मुगलों को गुजरात से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। अस्करी ने चम्पानेर के शासक तार्दी बेग से सहायता मांगी किंतु तार्दीबेग ने अस्करी की सहायता करने से मना कर दिया। हुमायूँ भी अस्करी की सहायता के लिये सेना नहीं भेज सका। इसलिये बहादुरशाह ने गुजरात तथा मालवा पर फिर से अधिकार कर लिया किंतु वह इस विजय का बहुत दिनों तक उपभोग नहीं कर सका। फरवरी 1537 में जब वह ड्यू के पुर्तगाली गवर्नर से मिलने गया, तब समुद्र में डूब कर मर गया।

हुमायूँ का शेर खाँ से संघर्ष

शेर खाँ हुमायूँ का सबसे भयंकर शत्रु सिद्ध हुआ। वह अफगानों का नेता था। उसने दक्षिण बिहार पर अधिकार स्थापित करके चुनार का दुर्ग भी जीत लिया। यह दुर्ग आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले स्थलों तथा नदियों के मार्ग में पड़ता था। इस कारण उसे पूर्वी भारत का फाटक कहा जाता था तथा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। हुमायूँ तथा शेर खाँ दोनों ही उसे अपने अधिकार में रखना चाहते थे।

चुनार के लिए संघर्ष: 1531 ई. में जब हुमायूँ कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाले हुए था तब उसे पूर्व में अफगानों के उपद्रव की सूचना मिली। अतः हुमायूँ कालिंजर का घेरा उठाकर चुनार के लिए चल दिया। चुनार पहुँचते ही उसने दुर्ग का घेरा डाला परन्तु वह दुर्ग को प्राप्त नहीं कर सका। चूँकि महमूद लोदी ने जौनपुर पर अधिकार कर लिया था, इसलिये हुमायूँ ने चुनार का घेरा उठा लिया और महमूद लोदी का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। महमूद लोदी से छुटकारा पाने के बाद हुमायूँ ने फिर चुनार की ओर ध्यान दिया। उसने शेर खाँ से कहा कि चुनार का दुर्ग वह उसे लौटा दे। हुमायूँ ने चुनार के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए हिन्दू बेग को चुनार भेज दिया। शेर खाँ ने दुर्ग देने से मना कर दिया। इस पर हुमायूँ भी सेना लेकर चुनार पहुँच गया। चार महीने घेरा चलता रहा परन्तु अफगानों ने मुगलों को दुर्ग नहीं दिया।

शेर खाँ से संधि: इसी बीच परिस्थितियों ने पलटा खाया और दोनों ही पक्ष समझौता करने के लिए तैयार हो गये। शेर खाँ अपनी शक्ति बंगाल की ओर बढ़ाना चाहता था। इसलिये वह मुगलों के साथ संघर्ष नहीं चाहता था। बंगाल का शासक नसरत शाह, शेर खाँ जैसे महत्त्वाकांक्षी सेनापति की बढ़ती हुई शक्ति से चिन्तित था और शेर खाँ से समझौता करने के लिए प्रस्तुत था। शेर खाँ ने इस अनुकूल परिस्थिति से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। उसने हुमायूँ के साथ सन्धि की बातचीत आरम्भ की तथा हुमायूँ से प्रार्थना की कि वह चुनार का दुर्ग शेर खाँ के अधिकार में छोड़ दे। इसके बदले में शेर खाँ ने अपने तीसरे पुत्र कुत्ब खाँ को एक सेना के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजना स्वीकार कर लिया। हुमायूँ ने शेर खाँ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और आगरा लौट गया। इस समझौते से हुमायूं की प्रतिष्ठा को धक्का लगा तथा शेर खाँ को अपनी योजनाएँ पूर्ण करने का अवसर मिल गया।

शेर खाँ की तैयारियाँ: शेर खाँ से समझौता करने के बाद हुमायूँ, बहादुरशाह की गतिविधि जानने के लिए ग्वालियर की ओर चला गया। इधर शेर खाँ अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने में लग गया। थोड़े ही समय में उसने बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली और वह पूर्व के समस्त अफगानों का नेता बन गया। उसने उन्हें यह आश्वासन दिया कि यदि वे संगठित होकर मुगलों का सामना करेंगे तो वह मुगलों को भारत से निकाल बाहर करेगा तथा भारत में पुनः अफगानों की सत्ता स्थापित कर देगा। इसका परिणाम यह हुआ कि दूर-दूर से अफगान सरदार उसके झंडे के नीचे आकर एकत्रित होने लगे। उसने गुजरात के शासक बहादुरशाह के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया जिसने धन से उसकी बड़ी सहायता की। शेर खाँ ने एक व्यवस्थित आर्थिक नीति का अनुसरण करके बहुत सा धन इकट्ठा कर लिया। इस धन की सहायता से उसने एक विशाल सेना तैयार की। यद्यपि शेर खाँ ने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को कुछ सैनिकों के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजने का वचन दिया था परन्तु उसने इस वादे को पूरा नहीं किया और अपनी सेना बढ़ाने में लगा रहा। उसने गंगा के किनारे-किनारे अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ किया और चुनार तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार कर लिया। शेर खाँ ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया जिसकी स्थिति उन दिनों बड़ी डाँवाडोल थी। शेर खाँ अपनी विशाल सेना के साथ गौड़ के द्वार पर आ डटा। बंगाल के शासक महमूदशाह ने शेर खाँ से संधि कर ली और उसे तेरह लाख दीनार देकर अपना पीछा छुड़ाया परन्तु शेर खाँ ने इसका यह अर्थ निकाला कि महमूदशाह ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है और वह उसे आर्थिक कर दिया करेगा।

जब हुमायूँ आगरा लौटकर आया तब उसे शेर खाँ की गतिविधियों की जानकारी मिली किन्तु हुमायूँ तुरन्त शेर खाँ के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने की स्थिति में नहीं था। इसी बीच हुमायूँ ने हिन्दू बेग को जौनपुर का गवर्नर बना कर भेजा और उसे यह आदेश दिया कि वह पूर्व की स्थिति से उसे अवगत कराये। शेर खाँ ने कूटनीति से काम लेते हुए चुनार तथा बनारस को छोड़कर, पूर्व के समस्त जिलों से नियंत्रण हटा लिया। उसने हिन्दू बेग के पास बहुमूल्य भेंटें भेजीं और हुमायूँ के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की। हिन्दू बेग को संतोष हो गया और वह शेर खाँ की ओर से निश्चिन्त हो गया। उसने हुमायूँ को संदेश भेजा कि पूर्व की स्थिति बिल्कुल चिन्ताजनक नहीं है। हुमायूँ भी निश्चिन्त हो गया। कठिनाई से एक-दो माह बीते थे कि हुमायूँ को सूचना मिली की शेर खाँ ने बंगाल पर फिर आक्रमण कर दिया है क्योंकि महमूदशाह ने उसे आर्थिक भेंट नहीं भेज थी। इससे हुमायूँ का सतर्क हो जाना स्वाभाविक ही था। शेर खाँ ने एक विशाल सेना खड़ी कर ली थी। उसके साधनों में भी बड़ी वृद्धि हो चुकी थी। उसने चुनार से गौड़ तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अपनी धाक जमा ली थी। वह भारत में एक बार फिर से अफगान राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहा था। इन  कारणों से हुमायूँ, शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए बाध्य हो गया।

हुमायूँ का प्रस्थान: जुलाई 1537 में वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाने पर भी हुमायूँ ने आगरा से प्रस्थान किया। उसने कई महीने तक कड़ा मानिकपुर में पड़ाव डाले रखा तथा वहाँ से चलकर नवम्बर 1537 में चुनार से कुछ मील दूर पड़ाव डाला। अफगान सरदारों ने हुमायूँ को परामर्श दिया कि वह सीधा गौड़ जाये और शेर खाँ की बंगाल विजय की योजना को विफल कर दे परन्तु मुगल सरदारों ने परामर्श दिया कि चुनार जैसे महत्त्वपूर्ण दुर्ग को, जो बंगाल के मार्ग में पड़ता था, शेर खाँ के हाथ में छोड़ना ठीक नहीं है। चुनार जीत लेने से हुमायूँ के साधनों में भी वृद्धि हो जायेगी, आगरा का मार्ग सुरक्षित बना रहेगा और चुनार को आधार बनाकर पूर्व के अफगानों के साथ युद्ध किया जा सकेगा। हुमायूँ को शेर खाँ की शक्ति का सही अनुमान नहीं था इस कारण हुमायूँ को लगा कि बंगाल का शासक कुछ दिनों तक अपने राज्य की रक्षा कर सकेगा। इसलिये हुमायूँ ने मुगल सरदारों के परामर्श को स्वीकार करके चुनार पर आक्रमण कर दिया। मुस्तफा रूमी खाँ ने बादशाह को यह आश्वासन दिया कि तोपखाने की सहायता से दुर्ग पर शीघ्र ही अधिकार स्थािपत हो जाएगा परन्तु ऐसा नहीं हो सका। दुर्ग को जीतने में लगभग 6 माह लग गये। इस विलम्ब के परिणाम बड़े भयानक हुए। कुछ विद्वानों की धारणा है कि इस भयंकर भूल के कारण ‘हुमायूँ को अपना साम्राज्य खो देना पड़ा।’ हुमायूँ ने इस अवसर पर एक और भूल की। जब उसने चुनार के दुर्ग पर अधिकार किया तब उसे या तो इस दुर्ग को नष्ट कर देना चाहिए था या उसकी सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए था परन्तु हुमायूँ ने इन दोनों में से एक भी काम नहीं किया। शेर खाँ को चुनार खो देने का कोई दुःख नहीं हुआ क्योंकि उसने राजा चिन्तामणि से विश्वासघात करके रोहतास के सुदृढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया था।

गौड़ पर हुमायूं का अधिकार: चुनार जीतने के बाद हुमायूँ बनारस चला गया जहाँ उसे सूचना मिली कि शेर खाँ ने गौड़ पर अधिकार जमा लिया है। चूँकि वर्षा ऋतु आरम्भ हो गई थी इसलिये हुमायूँ ने शेर खाँ से युद्ध करने के स्थान पर समझौता करना चाहा परन्तु समझौते की वार्ता सफल नहीं हुई और विवश होकर हुमायूँ को शेर खाँ से युद्ध करने का निश्चय करना पड़ा। इसी समय बंगाल के शासक महमूदशाह ने भी शेर खाँ के विरुद्ध हुमायूँ से सहायता की याचना की। हुमायूँ ने उसकी सहायता करने तथा उसे फिर से बंगाल की गद्दी पर बैठाने का वचन दिया परन्तु बंगाल में कदम रखने के पहले ही हुमायूँ को सूचना मिली की महमूदशाह की मृत्यु हो गई है और उसके दोनों पुत्रों की हत्या हो गई है। इस प्रकार हुसैनी राजवंश के समाप्त हो जाने पर हुमायूँ के लिए बंगाल पर अधिकार करना और शेर खाँ के साथ लोहा लेना अनिवार्य हो गया। इसलिये हुमायूँ ने सितम्बर 1538 में गौड़ पर अधिकार कर लिया।

हिन्दाल का विद्रोह: हुसैनी वंश का पतन हो जाने के बाद बंगाल में बड़ी गड़बड़ी फैल गई। इसलिये वहाँ पर शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने एवं अपनी थकी हुई सेना को विश्राम देने के लिये हुमायूँ तीन-चार माह तक बंगाल में ही ठहर गया। हुमायूँ ने हिन्दाल मिर्जा को उसकी जागीर तिरहुत तथा पुनिया में भेज दिया ताकि वहा से रसद लाई जा सके किंतु हिन्दाल हुमायूँ की आज्ञा का पालन न करके आगरा चला गया। इस प्रकार हुमायूँ का उसके साथ सम्पर्क समाप्त हो गया। हिन्दाल के इस व्यवहार से हुमायूँ को बड़ी चिन्ता हुई। उसने वास्तविकता का पता लगाने के लिय शेख बहलोल को आगरा भेजा। हिन्दाल के कर्त्तव्य भ्रष्ट हो जाने के कारण हुमायूँ की सेना में रसद की कमी हो गई। इधर शेर खाँ ने आगरा जाने वाले मार्गों पर नियन्त्रण कर लिया। इन परिस्थितियों में बंगाल में रुकने और वहीं से वापसी यात्रा की तैयारी करने के अतिरिक्त हुमायूं के पास कोई चारा नहीं बचा। थोड़े ही दिनों में हुमायूँ को सूचना मिली कि हिन्दाल ने प्रभुत्व शक्ति अपने हाथ में ले ली है तथा शेख बहलोल की हत्या कर दी गयी है। इस कारण पश्चिम की ओर से शेर खाँ पर किसी भी प्रकार से दबाव पड़ने की आशा नहीं है और शेर खाँ ने बनारस से कन्नौज तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार जमा लिया है। इस सूचना के बाद हुमायूँ ने बंगाल से शीघ्र ही प्रस्थान करने का निश्चय किया।

चौसा का युद्ध: हुमायूँ बंगाल का प्रबन्ध जहाँगीर कुली खाँ को सौंपकर आगरा के लिए चल दिया। पहले वह उत्तर के मार्ग से चला परन्तु उसे मिर्जा अस्करी ने सूचना दी कि अफगानों ने विरोध करने की पूरी तैयारी कर ली है। इसलिये हुमायूँ ने अपना मार्ग बदल दिया। मुंगेर के निकट उसने गंगा नदी को पार किया तथा दक्षिण की ओर चलता हुआ चौसा पहुँच गया। मार्च 1539 में उसने कर्मनाशा नदी को पार करके उसके पश्चिमी तट पर पड़ाव डाला। शेर खाँ ने हुमायूँ के साथ सन्धि की भी वार्ता आरम्भ की और चुपके से उस पर आक्रमण करने की भी तैयारियाँ करता रहा। शेर खाँ के कहने से हुमायूँ नदी के दूसरे तट पर आ गया। जब शेर खाँ को पता लगा कि हुमायूँ के पास रसद की बड़ी कमी है और उसे अपने भाइयों से सहायता मिलने की सम्भावना नहीं है। तब एक दिन प्रातःकाल में वह मुगल सेना पर टूट पड़ा और उसे तीन ओर से घेर लिया। मुगल सेना में भगदड़ मच गई और वह कर्मनाशा के तट की ओर भाग खड़ी हुई। चूँकि अफगानों द्वारा नदी का पुल नष्ट कर दिया गया था इसलिये मुगलों ने तैरकर नदी पार करने का प्रयत्न किया। अफगानों ने बड़ी क्रूरता से मुगलों का वध किया। लगभग सात हजार मुगलों के प्राण गये जिनमें से कई  बड़े अधिकारी भी थे। हुमायूँ स्वयं अपने घोड़े के साथ नदी में कूद पड़ा। घोड़ा नदी में डूब गया। हुमायूँ स्वयं भी डूबने ही वाला था कि एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से उसके प्राण बचाये। अफगानों ने मुगलों का पीछा किया। हुमायूँ मिर्जा अस्करी के साथ कड़ा मानिकपुर पहुँचा और वहाँ से कालपी होता हुआ जुलाई 1539 में आगरा पहुँच गया। आगरा पहुँचकर हुमायूँ ने एक दरबार किया जिसमें उसने आधे दिन के लिए उस भिश्ती को तख्त पर बिठा कर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जिसने कर्मनाशा नदी में हुमायूँ की जान बचाई थी।

कामरान के मन में संदेह: हुमायूँ के आगरा पहुँचने के पहले ही हिन्दाल के विद्रोह को दबाने के लिये कामरान लाहौर से आगरा चला आया था। हिन्दाल डरकर अलवर भाग गया परन्तु कामरान ने उसे वहाँ से बुला लिया। अब चारों भाई आगरा में एकत्रित हुए और शेर खाँ का सामना करने के लिए योजनाएँ बनाने लगे। चौसा के युद्ध में परास्त हो जाने पर भी अमीरों ने हुमायूँ का साथ नहीं छोड़ा परन्तु हुमायूँ की सेना छिन्न-भिन्न हो गई थी। कामरान के पास अब भी एक सुशिक्षित तथा सुदृढ़ सेना उपलब्ध थी जिसका प्रयोग अफगानों के विरुद्ध किया जा सकता था परन्तु इसी बीच कामरान बीमार पड़ गया और लगभग तीन माह तक बिस्तर पर पड़ा रहा। चारों तरफ अफवाह फैल गई कि हुमायूँ ने उसे विष दिलवाया है। कामरान के मन में भी हुमायूँ के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। कामरान को पंजाब छोड़े लगभग एक वर्ष हो गया था और उत्तर-पश्चिम की राजनीति में इतने बड़े परिवर्तन हो रहे थे कि कामरान को पंजाब तथा कन्दहार की रक्षा की चिन्ता हो रही थी। इसलिये कामरान ने आगरा से तुरन्त चले जाने का निश्चय कर लिया। हुमायूँ चाहता था कि कामरान अपनी पूरी सेना आगरा में छोड़ दे परन्तु कामरान ने ऐसा नहीं किया। वह केवल तीन हजार सैनिकों को हुमायूँ की सेवा में छोड़कर लाहौर चला गया।

कन्नौज अथवा बिलग्राम का युद्ध: चौसा की विजय के उपरान्त शेर खाँ ने स्वयं को बनारस में स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और सुल्तान-ए-आदिल की उपाधि धारण की। अफगान सेना ने बंगाल को फिर से जीत लिया और वहाँ के मुगल गवर्नर की हत्या कर दी। अब शेर खाँ ने भारत विजय की योजना बनाई। उसने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को यमुना नदी के किनारे-किनारे आगरा की ओर बढ़ने का आदेश दिया और स्वयं एक सेना के साथ कन्नौज के लिए चल पड़ा। कुत्ब खाँ का कालपी के निकट मुगल सेना से भीषण संघर्ष हुआ जिसमें कुत्ब खाँ परास्त हुआ और मारा गया। 13 मार्च 1540 को हुमायूँ ने शेरशाह का सामना करने के लिए आगरा से प्रस्थान किया। हुमायूँ ने गंगा नदी को पार करके उसके किनारे पड़ाव डाला। अब वह शेरशाह की गतिविधि को देखता रहा। शेरशाह भी खवास खाँ की प्रतीक्षा कर रहा था। जब खवास खाँ पूर्व से कन्नौज आ गया तब शेरशाह युद्ध करने के लिए तैयार हो गया। मुगलों की सेना, अफगान सेना की अपेक्षा कुछ निचले स्थान में थी। हुमायूँ जिस स्थान पर वह पड़ाव डाले हुए था, वह स्थान वर्षा के कारण पानी से भर गया। हुमायूँ ने अपनी सेना को ऊंचे स्थान पर ले जाने का प्रयत्न किया। ठीक इसी समय शेरशाह मुगल सेना के दोनों पक्षों पर टूट पड़ा। मुगल सेना में भगदड़ मच गई। हुमायूँ ने हिन्दाल तथा अस्करी के साथ गंगा नदी को पार कर लिया और भाग कर आगरा पहुँच गया।

हुमायूँ का पलायन: शेरशाह ने मुगलों का पीछा नहीं छोड़ा। उसने एक सेना सम्भल की ओर तथा दूसरी सेना आगरा की ओर भेजी। हुमायूँ अत्यन्त भयभीत हो गया। वह केवल एक रात आगरा में रहा तथा दूसरे दिन अपने परिवार और कुछ खजाने के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया। रोहतास में हिन्दाल भी उससे आ मिला। अब दोनों भाइयों ने लाहौर के लिए प्रस्थान किया। लाहौर में मिर्जा अस्करी भी उनसे आ मिला। अब चारों भाइयों ने मिलकर संकटापन्न स्थिति पर विचार करना आरम्भ किया परन्तु उन्हें शेरशाह से लोहा लेना असम्भव प्रतीत हुआ। कामरान ने पंजाब को भी सुरक्षित रखने की आशा छोड़ दी। इसलिये उसने अफगानिस्तान जाने तथा काबुल एवं कन्दहार को सुरक्षित रखने का निश्चय किया। कामरान तथा मिर्जा अस्करी अफगानिस्तान चले गये। हुमायूँ ने हिन्दाल के साथ सिन्ध के लिए प्रस्थान किया। अब शेरशाह के लिए रास्ता साफ था। वह तेजी से आगे बढ़ा और उसने सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने मुगलों को सिन्ध नदी के उस पार खदेड़ दिया और बाबर के पुत्रों को भारत से निष्कासित कर दिया।

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