Sunday, December 22, 2024
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मराठा परिवारों की दुर्दशा

मराठा लोग वीर एवं युद्धजीवी थे किंतु पानीपत के मैदान में मराठा सैनिकों के कत्लेआम के बाद मराठा परिवारों की भयानक दुर्दशा हुई।

14 जनवरी 1761 को पानीपत के मैदान में अहमदशाह अब्दाली ने चालीस हजार मराठा सैनिकों को मार दिया तथा हजारों मराठा सैनिक युद्ध क्षेत्र से प्राण बचाकर भाग निकले। अहमदशाह अब्दाली ने अपने सैनिकों को भागते हुए मराठा सैनिकों के पीछे दौड़ाया। कई हजार मराठा सैनिकों को इस दौरान मार डाला गया।

मराठों की पराजय का समाचार मिलते ही हजारों मराठा स्त्रियां अपने बच्चों के साथ अपने शिविरों से निकलकर पानीपत शहर में शरण लेने के लिए भागीं। इसके साथ ही मराठा परिवारों की दुर्दशा आरम्भ हो गई। अब्दाली के सैनिकों ने पानीपत की गलियों में भागती मराठा औरतों एवं उनके बच्चों को पकड़ लिया। हजारों औरतों ने अब्दाली के सैनिकों के हाथों में पड़ने से बचने के लिए पानीपत के कुओं एवं तालाबों में छलांग लगा दी।

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युद्ध समाप्त होने के कुछ देर बाद ही अंधेरा हो गया। घायल मराठा सैनिक पूरी रात युद्ध के मैदान में पड़े रहे। उन्हें रोटी-पानी एवं दवा देने के लिए कोई नहीं आया। इस कारण कई हजार सिपाही रात में ठण्ड, भूख एवं प्यास से मर गए।  इस युद्ध में भाग ले रहे अवध के नवाब शुजाउद्दौला के दीवान काशीराज ने लिखा है- ‘इस युद्ध के बाद अफगानियों ने चालीस हजार मराठों को पकड़कर मार डाला तथा उनके सिरों को काटकर टीले बनाकर अहमदशाह अब्दाली को दिखाए।’

बॉम्बे गजट के रिपोर्टर हैमिल्टन ने लिखा है- ‘इस समय पानीपत में लगभग आधा मिलियन मराठे मौजूद थे जिनमें से 40 हजार पकड़ लिए गए।’ सरसरी दृष्टि से देखने पर आधा मियिन वाली संख्या सही नहीं लगती किंतु जब हम पानीपत के युद्ध में मारे गए सैनिकों की संख्या, युद्ध के बाद मारे गए स्त्री-पुरुषों की संख्या, युद्ध के बाद दास बनाए गए स्त्री एवं बच्चों की संख्या तथा भरतपुर राज्य में शरणार्थी के रूप में पहुंचे मराठा स्त्री-पुरुषों की संख्या को जोड़ते हैं तो पानीपत में आधा मिलियन मराठों का उपस्थित होना, सत्य जान पड़ता है।

सियार-उत-मुताखिरिन नामक ग्रंथ में लिखा है- ‘शोकसंतप्त कैदियों को लम्बी कतारों में लगा दिया गया तथा उनसे पैदल परेड करवाई गई। उन्हें कुछ भुना हुआ अनाज एवं थोड़ा सा पानी पीने के लिए दिया गया और उनके सिर काट दिए गए। बीस हजार बच्चों और औरतों को गुलाम बना लिया गया। ये सब लोग उच्च मराठा परिवारों के थे।’

कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार 14 जनवरी की शाम तक पानीपत एवं आसपास के क्षेत्रों से लगभग 40 हजार स्त्री-बच्चे एवं पुरुष पकड़े गए। इन्हें ऊंटों, बैलगाड़ियों एवं हाथियों पर लादकर अब्दाली के शिविर में लाया गया तथा बांस से बनाए गए बाड़ों में ठूंस दिया गया और उन्हें अगले दिन कत्ल कर दिया गया।

बचे हुए मराठे जान हथेली पर रखकर भरतपुर तथा राजपूताना राज्यों में होते हुए महाराष्ट्र की तरफ भागे। मार्ग में किसानों तथा निर्धन लोगों ने भागते हुए मराठा सैनिकों एवं उनके परिवारों को लूटना और मारना आरम्भ किया। इस कारण भरतपुर राज्य में मराठा परिवारों की दुर्दशा अपने चरम पर पहुंच गई।

इस संग्राम पर टिप्पणी करते हुए जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘इस देशव्यापी विपत्ति में संम्भवतः महाराष्ट्र का कोई ऐसा परिवार नहीं होगा जिसका कोई भी सदस्य मारा न गया हो!’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

यदि निष्पक्ष होकर विश्लेषण किया जाए तो पानीपत में मराठों की हार के कारण स्वयं मराठों ने ही उत्पन्न किए थे। पेशवा नाना साहब ने इस अभियान के लिए सदाशिवराव भाऊ का चयन किया था तथा मल्हार राव होलकर और रघुराथ राव को उसके साथ जाने के आदेश दिए थे।

रघुनाथ राव ने अपने घमण्डी भतीजे सदाशिवराव के साथ जाने से मना कर दिया। जबकि पेशवा को चाहिए था कि वह सदाशिव राव के स्थान पर रघुनाथ राव को इस अभियान का कमाण्डर नियुक्त करता क्योंकि उसे उत्तर भारत की राजनीति का अच्छा ज्ञान था तथा उसके कई मुगल अधिकारियों एवं जाट मंत्रियों से अच्छे सम्बन्ध थे।

मराठा सेनाओं का कमाण्डर सदाशिव राव भाऊ एक अविवेकी एवं तुनकमिजाज सेनापति था। वह किसी की सलाह नहीं मानता था और पूर्व में मिली सफलताओं के कारण उसका दिमाग फिर गया था। इस कारण उसने अपने सबसे बड़े दो सहायकों को नाराज कर लिया था। उनमें से एक था मल्हार राव होलकर तथा दूसरा था महाराजा सूरजमल।  

मल्हार राव होलकर जो कि इस युद्ध में सदाशिव राव भाऊ का सबसे बड़ा सहायक था, उसे भी भाऊ ने अपने व्यवहार से क्षुब्ध कर दिया था। इसलिए होलकर बहुत अनमने ढंग से इस युद्ध में उतरा और युद्ध में अब्दाली का पलड़ा भारी होते ही अपनी सेना लेकर भाग खड़ा हुआ। इतिहासकारों ने लिखा है कि यदि मल्हारराव होलकर कुछ देर और मैदान में टिका रहता तो संभवतः मराठों की ऐसी विकट पराजय नहीं हुई होती।

सदाशिव राव भाऊ के व्यवहार से क्षुब्ध होने वाला दूसरा सबसे बड़ा सहायक था महाराजा सूरजमल जिसे सदाशिव राव भाऊ ने लाल किले में बंदी बनाने का प्रयास किया था और सूरजमल मराठों का साथ छोड़कर भाग खड़ा हुआ था।  मराठों ने अपने साथ चालीस हजार तीर्थयात्रियों को लाकर भी बहुत बड़ी गलती की थी। सैनिकों के भोजन, आवास के साथ-साथ इन तीर्थयात्रियों के भोजन, आावस एवं सुरक्षा के प्रबंधन में मराठों की बहुत ऊर्जा एवं शक्ति व्यय हो गई तथा सेना को रसद पानी का अभाव भी झेलना पड़ा।

मराठा सेनापतियों का अपने परिवारों एवं स्त्री-बच्चों को साथ में लेकर आना भी मराठों के लिए अनिष्टकारी सिद्ध हुआ। इससे मराठों का ध्यान युद्ध से भटक गया। महाराजा सूरजमल ने सदाशिवराव भाउ को सुझाव दिया था कि वह मराठा स्त्रियों एवं बच्चों को युद्ध क्षेत्र तक ले जाने की बजाय भरतपुर राज्य के किसी दुर्ग में रख दे किंतु घमण्डी सदाशिवराव ने उसका यह सुझाव अस्वीकार कर दिया था।

महाराजा सूरजमल ने सदाशिव राव को यह भी सुझाव दिया था कि अब्दाली को मराठों की परम्परागत गुरिल्लामार युद्ध पद्धति से नष्ट किया जाए किंतु सदाशिवराव ने सम्मुख युद्ध करने का निर्णय लेकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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