सिकंदर लोदी ने ग्वालियर के तोमरों के विरुद्ध दो बार युद्ध अभियानों में विफल रहने पर ई.1504 में तोमरों के विरुद्ध जेहाद की घोषणा की तथा अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया। उसने एक विशाल सेना लेकर मण्डरायल के किले पर अधिकार कर लिया तथा गवालियर की ओर बढ़ने लगा।
सितम्बर 1505 से लेकर मई 1506 के बीच सिकंदर की सेनाओं ने ग्वालियर के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया तथा उस क्षेत्र की सारी फसलों को जला दिया। मानसिंह के पास इतनी सेना नहीं थी कि वह मैदान में आकर सिकंदर की सेना का सामना कर सके। इसलिए मानसिंह ने गुरिल्ला-युद्ध की नीति अपनाई। उसकी सेना के छोटे-छोटे दस्ते अवसर पाते ही सिकंदर लोदी की सेना पर हमला करते थे और उसके सैनिकों को मारकर भाग जाते थे।
जब समय पर फसलें नहीं हुईं तो उस क्षेत्र में अनाज की भारी कमी हो गई। सिकंदर की सेना भूखों मरने लगी तो सिकंदर जेहाद को अधूरा छोड़कर आगरा लौट गया। अब मानसिंह की बारी थी। उसने सिकंदर लोदी की सेनाओं को चारों तरफ से घेरकर मारना आरम्भ किया।
सिकंदर लोदी के सैनिक बड़ी संख्या में मार डाले गए। उनमें राजपूतों की इतनी दहशत भर गई कि वे तलवार उठाने तक का साहस नहीं कर पाते थे और राजपूत सैनिकों द्वारा काट डाले जाते थे। लोदी के सैनिकों के रक्त से चम्बल का पानी लाल हो गया।
फरवरी 1507 में सिकंदर की सेनाओं ने तोमरों के अधिकार वाले अवंतगढ़ पर अधिकार कर लिया। यह दुर्ग नरवर-ग्वालियर के मार्ग पर स्थित था। इसके बाद कुछ समय तक शांति रही। सितम्बर 1507 में सिकंदर की सेनाओं ने नरवर पर आक्रमण किया।
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नरवर का तोमर राजा अस्थिर बुद्धि का व्यक्ति था। वह कभी ग्वालियर के अधीन हुआ करता था किंतु उसने ग्वालियर की अधीनता छोड़कर मालवा के खिलजी सुल्तान से दोस्ती कर रखी थी। इसलिए ग्वालियर के तोमरों ने नरवर के राजा की कोई सहायता नहीं की।
संकट की इस घड़ी में मालवा का खिलजी सुल्तान भी नरवर के राजा की सहायता के लिए नहीं आया। सिकंदर लोदी की सेनाएं पूरे एक साल तक नरवर के दुर्ग पर घेरा डालकर बैठी रहीं। अंत में दिसम्बर 1508 में नरवर के दुर्ग का पतन हो गया तथा लोदी की सेना ने नरवर पर अधिकार कर लिया।
सिकंदर ने राजसिंह कच्छवाहा को नरवर का शासक नियुक्त किया तथा स्वयं अपनी सेना लेकर ग्वालियर के दक्षिण-पूर्व में स्थित लहयेर पर आक्रमण करने चला गया। लगभग एक माह तक सिकंदर लोदी लहयेर क्षेत्र में रहा। इस बीच उसने इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मारा।
उन्हीं दिनों सिकंदर लोदी एवं रणथंभौर के चौहान शासक के सम्बन्ध बिगड़ गए और सिकंदर को ग्वालियर का जेहाद पुनः बीच में छोड़कर रणथम्भौर के चौहानों से लड़ने जाना पड़ा। इस संघर्ष में सिकन्दर लोदी को सफलता प्राप्त हुई किंतु यह सिकंदर के जीवन का अन्तिम युद्ध सिद्ध हुआ।
ई.1516 में सिकंदर लोदी ने ग्वालियर पर आक्रमण करने का मन बनाया किंतु वह अचानक ही बीमार पड़ गया तथा ग्वालियर पर अभियान नहीं कर सका। इसी बीच ई.1516 में राजा मानसिंह तोमर की ग्वालियर में मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र विक्रमादित्य ग्वालियर का राजा बना।
उन्हीं दिनों सिकंदर लोदी किसी बात पर कालपी के गवर्नर जलाल खाँ से नाराज हो गया। जलाल खाँ भागकर ग्वालियर चला गया। उसने राजा विक्रमादित्य तोमर से शरण मांगी। विक्रमादित्य ने जलाल खाँ को अपनी सेवा में रख लिया।
इस पर सिकंदर लोदी एक बार पुनः अपनी सेनाओं के साथ ग्वालियर पर अभियान के लिए चल पड़ा। अभी वह ग्वालियर से काफी दूर था कि सिकंदर लोदी पहले की ही तरह फिर से बीमार पड़ गया और राजा विक्रमादित्य को सिकंदर लोदी के आक्रमण का सामना नहीं करना पड़ा। सिकंदर लोदी वहीं से आगरा लौट गया तथा 21 नवम्बर 1517 को उसकी मृत्यु हो गई।
तत्कालीन मुस्लिम लेखकों के ग्रंथों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मुस्लिम जनता के लिए सिकन्दर लोदी प्रतिभावान तथा दयावान शासक था किंतु हिन्दुओं के लिए वह स्वेच्छाचारी, निरंकुश तथा धर्मांध शासक था। हिन्दुओं के साथ उसका व्यवहार बड़ा कठोर था। इस कारण उसे भयंकर विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनमें से अधिकांश विद्रोहों का सिकंदर लोदी ने सफलता पूर्वक दमन कर दिया।
तत्कालीन मुस्लिम ग्रंथों में लिखा है कि सिकंदर लोदी बड़ा विद्वान था। उसे संगीत, शिक्षा एवं साहित्य से बड़ा लगाव था। उसने संगीत के एक ग्रन्थ ‘लज्जत-ए-सिकंदरशाही’ की रचना की। उसे शहनाई सुनने का बड़ा शौक था।
प्रत्येक रात्रि को 70 विद्वान उसके पलंग के नीचे बैठकर विभिन्न प्रकार की चर्चाएं किया करते थे। सिकंदर लोदी ने मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का स्वरूप प्रदान करके उन्हें शिक्षा का केन्द्र बनाने का प्रयत्न किया था। मुस्लिम शिक्षा में सुधार करने के लिए उसने फारस देश के तुलम्बा नगर में रहने वाले विद्वान शेख अब्दुल्लाह और शेख अजीजुल्लाह को दिल्ली में बुलवाया तथा उन्हें दिल्ली के मुस्लिम बालकों की शिक्षा के लिए प्रबंध करने को कहा।
यद्यपि सिकन्दर लोदी तथा उसके अमीरों के सम्बन्ध उसके शासन काल के प्रारम्भ में अच्छे नहीं थे तथापि उसने तीन साल की अवधि में अमीरों को इतना दबा लिया कि वे सुल्तान के आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकते थे।
स्वयं सिकंदर लोदी ने एक बार सार्वजनिक रूप से कहा कि यदि मैं अपने एक गुलाम के साथ उसकी पालकी में बैठूं तो मेरे आदेश पर मेरे सभी अमीर उस पालकी को अपने कन्धों पर उठाकर ले जायेंगे। हालांकि इसे एक दंभोक्ति ही कहा जा सकता है क्योंकि अफगान अमीरों में स्वतंत्रता और उच्छृंखलता की इतनी अधिक भावना थी कि वे सुल्तान के गुलाम की तो क्या, स्वयं सुल्तान की पालकी भी उठाने को तैयार नहीं होते।
यूं तो सिकंदर लोदी के शासन काल में हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार हुए किंतु सर्वाधिक भीषण अत्याचार कटेहर के उस ब्राह्मण की हत्या के रूप में हुआ जिसने केवल यह कहने का अपराध किया था कि हिन्दू धर्म उतना ही पवित्र है जितना कि इस्लाम! किसी भी मुस्लिम शासक के काल में हिन्दुओं को तीर्थों में नहाने की कभी मनाई नहीं हुई, वे तीर्थकर देकर किसी भी तीर्थ में स्नान कर सकते थे किंतु सिकंदर लोदी ने हिन्दुओं को मथुरा के समस्त घाटों, थानेश्वर के ब्रह्मसरोवर एवं दिल्ली में यमुनाजी में कहीं भी स्नान करने पर रोक लगा दी। इस प्रकार धर्मांधता के मामले में वह औरंगजेब से भी बढ़कर था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता