Thursday, November 21, 2024
spot_img

102. चित्तौड़ दुर्ग को मिट्टी में मिलाने निकल पड़ा अल्लाउद्दीन खिलजी!

अल्लाउद्दीन खिलजी अब तक जैसलमेर तथा रणथंभौर के दुर्गों को जीत कर अधीन कर चुका था और अब उसकी आँख चित्तौड़ दुर्ग पर लगी हुई थी। ई.1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़ अभियान पर चल दिया। आगे बढ़ने से पहले हमें चित्तौड़ दुर्ग के इतिहास पर दृष्टि डालनी चाहिए।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि चित्तौड़ दुर्ग की स्थापना कब हुई किंतु आज से 5100 साल साल पहले अर्थात् महाभारत काल में भी इस स्थान पर एक दुर्ग था। अतः कहा जा सकता है कि चित्तौड़ दुर्ग भारत के प्राचीनतम दुर्गों में से एक है। लोक-किंवदंती के अनुसार पाण्डु-पुत्र भीमसेन ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। यद्यपि महाभारत-कालीन चित्तौड़ दुर्ग अब अस्तित्व में नहीं है तथापि यह कहा जा सकता है कि महाभारत-कालीन दुर्ग जीर्णोद्धार एवं पुनर्निर्माण होता हुआ वर्तमान चित्तौड़ दुर्ग के रूप में हमारे सामने है।

अंग्रेज पुरातत्त्वविद हेनरी कजेन्स ने इस दुर्ग से कुछ दूर स्थित ‘नगरी’ में, कंकाली माता की मूर्ति के पास अशोक कालीन सिंह-मस्तक पड़ा देखा था। इस प्रकार के सिंह-मस्तक अशोक कालीन स्तम्भों के ऊपरी शीर्ष पर लगा करते थे। इससे सिद्ध होता है कि ईसा के जन्म से लगभग 300 साल पहले यह दुर्ग मगध के मौर्यों के अधीन था।

अंग्रेज पुरातत्वविद् हेनरी कजेन्स ने चित्तौड़ दुर्ग में 10 बौद्धस्तूप पहचाने थे जिन पर भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं बनी हुई थीं। ये बौद्धस्तूप अशोककालीन होने अनुमानित हैं। यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख में लिखा है- ‘स वा भूतानाम् दयाथम् कारिता।’ अर्थात् वह जो सब जीवों पर दया करता है। संभवतः यह शिलालेख भगवान बुद्ध की स्तुति में लिखा गया था।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

मगध के मौर्यों का राज्य यद्यपि 184 ईस्वी पूर्व में नष्ट हो गया तथापि उनके उत्तराधिकारी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में छोटे-बड़े राजा के रूप में आठवीं शताब्दी ईस्वी तक शासन करते रहे। सातवीं शताब्दी ईस्वी में चित्रांगद मोरी अथवा भीम मोरी ने चित्तौड़ के पुराने दुर्ग के स्थान पर चित्रकूट नामक नया दुर्ग बनवाया जो कालांतर में चित्तौड़ दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पर्याप्त सम्भव है कि यह दुर्ग पूरी तरह नया नहीं हो तथा पुराने दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया गया हो।

आठवीं शताब्दी ईस्वी में मान मोरी चित्तौड़ का राजा था जिसका ई.713 का एक शिलालेख चित्तौड़ दुर्ग के निकट मिला है। राजा मान मोरी की एक पुत्री गुहिल वंश में ब्याही गई थी जिसकी कोख से गुहिलवंशी राजकुमार बप्पा रावल का जन्म हुआ। जब मान मोरी बूढ़ा हो गया तो एक बार चित्तौड़ दुर्ग पर शत्रुओं ने हमला कर दिया। तब बप्पा रावल ने न केवल चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा की अपितु अपने नाना मान मोरी के भी प्राण बचाए।

To purchase this book, please click on photo.

बप्पा रावल की वीरता से प्रसन्न होकर राजा मान मोरी ने ई.734 में यह दुर्ग अपने दौहित्र बप्पा रावल को दे दिया। तभी से यह दुर्ग गुहिलों के अधिकार में चला आ रहा था। राजा मान मोरी की मृत्यु के बाद बप्पा रावल अपनी राजधानी नागदा से चित्तौड़ ले आया।

गुहिलों तथा मुसलमानों के बीच प्राचीनतम लड़ाई का उल्लेख ‘खुमंाण रासो’ में मिलता है जिसके अनुसार ई.813 से 833 के बीच अब्बासिया खानदान के खलीफा अलमामूं ने खुमांण के समय में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। चित्तौड़ की सहायता के लिये काश्मीर से सेतुबंध तक के हिन्दू राजा आये तथा खुमांण ने शत्रु को परास्त करके चित्तौड़ की रक्षा की। इस युद्ध के परिणाम के सम्बन्ध में खुमांण रासो के अतिरिक्त अन्य किसी स्रोत से जानकारी प्राप्त नहीं होती किंतु अवश्य ही इस युद्ध में गुहिलों की विजय हुई होगी क्योंकि खुमांण को गुहिलों के इतिहास में इतनी प्रसिद्धि मिली कि मेवाड़ के गुहिलों को ‘खुमंाण’ भी कहा जाने लगा।

संभवतः इस युद्ध के बाद किसी समय चित्तौड़ दुर्ग गुहिलों के हाथ से निकल गया और गुहिल दक्षिण-पश्चिमी मेवाड़ तक सीमित होकर रह गये। इस काल में नागदा फिर से गुहिलों की राजधानी हो गई। नौवीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में खुमांण (तृतीय) ने गुहिलों की क्षीण हो चुकी राज्यलक्ष्मी का फिर से उद्धार किया। दसवीं शताब्दी में आलूराव अर्थात् अल्लट गुहिलों की राजधानी को नागदा से आहड़ ले गया। कहा नहीं जा सकता कि चित्तौड़ का दुर्ग फिर से किस राजा के द्वारा अथवा किस समय पुनः गुहिलों के अधिकार में आया तथा कब पुनः गुहिलों की राजधानी बना।

जब ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी और बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी, भारत पर ताबड़-तोड़ हमले कर रहे थे, तब इन दो शताब्दियों में, मेवाड़ के गुहिलों को अपने पड़ौसी राज्यों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। मालवा के परमार राजा मुंज ने आहड़ नगर को तोड़ा तथा चित्तौड़ का दुर्ग एवं उसके आसपास का प्रदेश परमार राज्य में मिला लिया। मुंज के उत्तराधिकारी सिंधुराज का पुत्र भोजराज, चित्तौड़ के दुर्ग में रहा करता था। गुहिल इस काल में अत्यंत कमजोर पड़ गए थे किंतु वे आहड़ को अपनी राजधानी बनाए रखने में सफल रहे।

ग्यारहवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच किसी काल में चित्तौड़ का दुर्ग परमारों के हाथ से निकलकर गुजरात के चौलुक्यों के हाथों में चला गया। बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के गुहिल वंश में ‘रणसिंह’ अथवा ‘कर्णसिंह’ नामक राजा हुआ। उससे गुहिलोतों की दो शाखाएं निकलीं जिन्हें रावल तथा राणा कहा जाता था। रावल शाखा में सामंतसिंह नामक राजा हुआ जिसने ई.1174 में चौलुक्यराज अजयपाल को युद्ध में परास्त करके बुरी तरह घायल किया तथा चित्तौड़ दुर्ग पुनः गुहिलों के अधिकार में किया।

गुहिलों की मुसलमानों से लड़ाई का दूसरा उल्लेख ई.1192 में तराइन के द्वितीय युद्ध के समय मिलता है जब चितौड़ का राजा सामंतसिंह, पृथ्वीराज चौहान की तरफ से लड़ते हुए युद्धक्षेत्र में काम आया। इससे चित्तौड़ की राज्यशक्ति को हानि हुई किंतु चित्तौड़ अजेय बना रहा। ई.1195 में मुहम्मद गौरी के सूबेदार कुतुबुद्दीन ऐबक ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया जिसे गुहिलों ने परास्त करके भगा दिया। ई.1213 से ई.1252 तक रावल जैत्रसिंह गुहिलों का राजा हुआ। वह अपनी राजधानी आहड़ से चित्तौड़ ले आया। उसने दिल्ली के बादशाह इल्तुतमिश की सेना में कसकर मार लगाई तथा उसे युद्ध क्षेत्र से भाग जाने को विवश कर दिया। उसने चित्तौड़ दुर्ग को सुदृढ़ प्राचीर से आवृत्त करवाया।

ई.1252 में रावल जैत्रसिंह का पुत्र रावल तेजसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसके काल में गयासुद्दीन बलबन ने रणथम्भौर, बूंदी तथा चित्तौड़ पर आक्रमण किये किंतु रावल तेजसिंह ने उसे पीछे धकेल दिया। तेजसिंह के बाद भी मेवाड़ के रावल तुर्कों से निरंतर युद्ध करते रहे। तेजसिंह के पुत्र समरसिंह के समय में गयासुद्दीन बलबन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया। समरसिंह ने उस सेना को परास्त करके भगा दिया। आबू शिलालेख में कहा गया है कि समरसिंह ने तुरुष्क रूपी समुद्र में गहरे डूबे हुए गुजरात देश का उद्धार किया। अर्थात् मुसलमानों से गुजरात की रक्षा की। रावल समरसिंह के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरि ने तीर्थकल्प में लिखा है कि अल्लाउद्दीन खिलजी का सबसे छोटा भाई उलूग खाँ ई.1299 में गुजरात विजय के लिये निकला। चित्तकूड़ अर्थात् चित्तौड़ के स्वामी रावल समरसिंह ने उलूग खाँ को दण्ड देकर मेवाड़ देश की रक्षा की।

इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के समाप्त होने तक तक चित्तौड़ के गुहिल, तुर्कों को पूरी तरह अपने राज्य से दूर रखने में सफल हुए किंतु अब चौदहवीं शताब्दी का आगमन होते ही ई.1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग के गर्व को धूल में मिलाने के लिए दिल्ली से विशाल सैन्य लेकर प्रस्थान किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source