अल्लाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि से लूटी गई सोने की अशर्फियों के बल पर न केवल दिल्ली की सेना और अमीरों को खरीद लिया अपितु मरहूम सुल्तान के परिवार तथा उसके विश्वस्त जलाली अमीरों को नष्ट करके निश्चिंत होकर दिल्ली पर शासन करने लगा।
अब अल्लाउद्दीन खिलजी के पास अपार धन था, विशाल सेना थी, धरती तक झुककर सलाम करने वाले अमीरों की फौज थी, दिल्ली जैसी विशाल सल्तनत थी, यहाँ तक कि अब उसके और उसकी प्रेमिका महरू के बीच भी कोई नहीं आ सकता था किंतु इन सब सुखों का आनंद लेने से पहले उसे दिल्ली सल्तनत की कुछ स्थायी समस्याओं से निबटना आवश्यक था।
दिल्ली का केन्द्रीय शासन लम्बे समय से तुर्की अमीरों के आंतरिक संघर्षों में फंसा हुआ था। इस कारण सल्तनत के दूरस्थ हिस्सों में नियुक्त स्थानीय अधिकारी स्वेच्छाचारी हो गए थे। केन्द्र सरकार के प्रति उत्तरदाई अधिकारियों के अभाव में, स्थानीय तथा केन्द्रीय शासन में सम्पर्क बहुत कम रह गया था। स्थानीय अधिकारियों की निष्ठा को केन्द्रीय सत्ता के अधीन करना तथा राज्य के प्रति विश्वस्त बनाना एक बड़ी समस्या थी।
मंगोल आक्रमणकारी प्रायः भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रदेशों पर आक्रमण करते थे। एक से अधिक अवसरों पर वे दिल्ली तक आ पहुँचे थे। उनकी गिद्ध-दृष्टि सदैव भारत पर ही लगी रहती थी। उनसे अपने राज्य को सुरक्षित करना, एक बड़ी समस्या थी। दिल्ली के निकट मंगोलपुरी बस जाने से मंगोलों को दिल्ली में आधार भी प्राप्त हो गया था। अल्लाउद्दीन को मंगोलों के आक्रमणों को रोकने एवं उनका सामना करने के लिए सीमान्त प्रदेश में मजबूत सैनिक व्यवस्था करनी आवश्यक थी। उसके काल में मंगोलों ने भारत पर पांच बड़े आक्रमण किए।
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बलबन के कमजोर उत्तराधिकारियों एवं जलालुद्दीन खिलजी की उदार नीति के कारण अनेक हिन्दू-सामन्तों तथा राजाओं ने अपने राज्य वापस अपने अधिकार में कर लिए थे। अल्लाउद्दीन के तख्त पर बैठने के समय उत्तरी भारत का बहुत बड़ा भाग तथा सम्पूर्ण दक्षिणी भारत दिल्ली सल्तनत के बाहर था। इन खोये हुए प्रदेशों को अपने अधिकार में करना बड़ी चुनौती थी।
इस प्रकार अल्लाउद्दीन के सामने समस्याओं का अम्बार था जिनसे पार पाना अत्यंत कठिन था किंतु अल्लाउद्दीन के लिए ये समस्याएं कुछ भी नहीं थीं। यहाँ हम अंग्रेज कवि टेनिसन के कथन को उद्धृत करना चाहेंगे। उन्होंने लिखा है- ‘ओन्ली इललिट्रेट्स कैन रूल।’ सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी पर यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती थी। वह नितांत निरक्षर था किंतु उसने दिल्ली सल्तनत के सुल्तान, शाही परिवार तथा तमाम तुर्की अमीरों को धूल में मिलाकर तख्त पर अधिकार कर लिया था। वह निरक्षर था किंतु यह निरक्षरता उसे कठोर बनाती थी जो किसी भी समाज पर शासन के करने के लिए आधारभूत गुण होती है।
जब दिल्ली का तख्त अल्लाउद्दीन खिलजी के अधिकार में आ गया तो उसके सपनों ने नई उड़ान भरनी आरम्भ की। उसने अपने जीवन के दो लक्ष्य बनाए जिनमें से पहला था- एक नये धर्म की स्थापना करके उसका नबी बनना और दूसरा था- विश्व-विजय करना। उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि जिस प्रकार हजरत मुहम्मद के चार साथी पहले चार खलीफा बने, उसी प्रकार उलूग खाँ, जफर खाँ, नसरत खाँ तथा अल्प खाँ उसके भी चार साथी हैं जो बड़े ही वीर तथा साहसी हैं। अतः पैगम्बर की भाँति वह भी नये धर्म की स्थापना करके और सिकन्दर महान् की भाँति विश्व-विजय करके अपना नाम अमर कर सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सुल्तान अल्लाउद्दीन नितांत निरक्षर तथा हठधर्मी था परन्तु भाग्य उसके साथ था, इसलिए उसे काजी अलाउल्मुल्क नामक एक बुद्धिमान व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त हो गया। काजी अलाउल्मुल्क ने अपने परामर्श से सुल्तान अल्लाउद्दीन की बड़ी सेवा की और उसे कई बार अनुचित कार्य करने से रोका। अल्लाउद्दीन अपनी बौद्धिक सीमाओं को जानता था इसलिए अपने बुद्धिमान शुभचिन्तकों के परामर्श को मान लेता था। इस कारण वह अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा।
जब अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपनी योजनाओं के सम्बन्ध में काजी अलाउल्मुल्क से परामर्श किया तब काजी ने उसे परामर्श दिया कि नबी बनना अथवा नया धर्म चलाना सुल्तानों का काम नहीं है। यह काम पैगम्बरों का होता है जो अल्लाह द्वारा भेजे जाते हैं।
सुल्तान की विश्व-विजय की आकंाक्षा के सम्बन्ध में काजी ने सुल्तान से कहा कि यद्यपि विश्व-विजय की कामना करना सुल्तान का कर्त्तव्य है किंतु न तो विश्व में सिकन्दर कालीन परिस्थितियाँ विद्यमान हैं और न अल्लाउद्दीन के पास अरस्तू के समान बुद्धिमान तथा दूरदर्शी गुरु उपलब्ध है। इसलिए सुल्तान इस विचार को छोड़ दे।
काजी अलाउल्मुल्क ने सुल्तान अल्लाउद्दीन को परामर्श दिया कि दिल्ली सल्तनत की सीमाओं पर रणथम्भौर, चितौड़, मालवा, धार, उज्जैन आदि स्वतन्त्र हिन्दू राज्य मौजूद हैं जिनके कारण सल्तनत पर चारों ओर से आक्रमणों के बादल मँडराते रहते हैं। अतः परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सुल्तान के दो उद्देश्य होने चाहिये- (1.) सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त करना तथा (2.) मंगोलों के आक्रमणों को रोकना।
इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सल्तनत के भीतर शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रखना नितान्त आवश्यक था। काजी ने सुल्तान को यह परामर्श भी दिया कि जब तक वह मदिरा पीना तथा आमोद-प्रमोद करना नहीं छोड़ेगा, तब तक उसके उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी। अल्लाउद्दीन को काजी का यह परामर्श बहुत पसन्द आया और उसने काजी के परामर्श को स्वीकार कर लिया।
लक्ष्य निश्चित कर लेने के उपरान्त अल्लाउद्दीन ने साम्राज्य विस्तार का कार्य आरम्भ किया। सर्वप्रथम उसने उत्तरी भारत को जीतने की योजना बनाई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता