अल्लाउद्दीन खिलजी ने सीरी दुर्ग की नींव में उन आठ हजार मंगोलों के कटे हुए सिर डलवा दिए जो बदायूं दरवाजे के पास पड़े सड़ रहे थे। इस घटना के बाद जब तक अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली के तख्त पर बैठा रहा, तब तक मंगोलों का भारत पर आक्रमण नहीं हुआ।
अल्लाउद्दीन खिलजी के समय में मंगोलों का अंतिम भारत-आक्रमण ई.1307 में हुआ था जिसमें अल्लाउद्दीन खिलजी के सेनापतियों मलिक काफूर तथा गाजी मलिक तुगलक ने मंगोलों का भयानक संहार किया। वे हजारों मंगोलों को पकड़कर दिल्ली में ले आए और उनके सिर काटकर, बदायूं दरवाजे पर कटे हुए सिरों की मीनारें बनवाईं।
जब ये कटे हुए सिर सड़कर बदबू देने लगे तो सुल्तान ने इन सिरों का एक विचित्र उपयोग ढूंढा। दिल्ली में तीन किले पहले से ही विद्यमान थे। इनमें से पहला था लालकोट, दूसरा था किलोखरी अथवा कीलूगढ़ी का किला और तीसरा था रायपिथौरा का किला। दिल्ली के लालकोट का निर्माण तोमरों ने करवाया था जबकि रायपिथौरा के किले का निर्माण पृथ्वीराज चौहान के समय में करवाया गया था।
जब दिल्ली पर तुर्कों का अधिकार हुआ तो कुतुबुद्दीन ऐबक लालकोट में रहने लगा। बाद में इल्तुतमिश, रजिया एवं बलबन आदि सुल्तान भी लालकोट में ही रहते रहे। इस कारण रायपिथौरा का किला खाली पड़ा रहता था।
लालकोट तथा रायपिथौरा का किला एक दूसरे के इतने निकट थे इन्हें अलग करना कठिन होता था जबकि कीलूगढ़ी का किला इन किलों से लगभग 5 मील दूर स्थित था। कीलूगढ़ी का वास्तविक नाम कैलूगढ़ी था, इसके निर्माण के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता किंतु अनुमान होता है कि यहाँ एक छोटा किला था जो तुर्कों के भारत में आने से पहले किसी हिन्दू सरदार द्वारा बनवाया गया था।
बलबन के पौत्र कैकूबाद ने किलोखरी दुर्ग के भीतर कुछ महल बनवाए थे। जब जलालुद्दीन खिलजी सुल्तान हुआ तो उसने किलोखरी को अपनी राजधानी बनाया था। जलालुद्दीन ने पूरे एक साल तक किलोखरी अथवा कीलूगढ़ी के दुर्ग में अपनी राजधानी एवं निवास रखा था।
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बलबन के शासन काल में दिल्ली के निकट रहने वाली मेव जाति दिल्ली में घुसकर लूटपाट किया करती थी। उस काल में मेव जाति हिन्दू धर्म के अंतर्गत थी। बलबन ने उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की थी जिससे कुछ समय के लिए उनकी गतिविधियों पर रोक लग गई थी किंतु जलालुद्दीन खिलजी के समय में मेव फिर से सिर उठाने लगे थे।
अल्लाउद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के समय मेव इतने प्रबल हो गए थे कि वे पहले की ही तरह दिल्ली में घुस आते और घरों में लूटपाट किया करते। घर के माल-असबाब के साथ औरतों को भी उठा ले जाते। मेवों के भय से सूर्यास्त होने से पहले ही दिल्ली के दरवाजे बंद कर लिए जाते थे।
मेवातियों की लूटमार के कारण रायपिथौरा का किला बरबाद हो चला था। अतः अल्लाउद्दीन ने रायपिथौरा के किले से ढाई मील उत्तर-पूर्व में सीरा अथवा सीरी नामक स्थान पर एक नया किला बनवाने का निर्णय लिया। इसे सीरी दुर्ग कहा गया। आजकल सीरी दुर्ग वाले स्थान के पास शाहपुर जाट नामक गांव बसा हुआ है।
अल्लाउद्दीन ने सीरी दुर्ग की नींव में उन आठ हजार मंगोलों के कटे हुए सिर डलवा दिए जो बदायूं दरवाजे के पास पड़े सड़ रहे थे। इस घटना के बाद जब तक अल्लाउद्दीन दिल्ली के तख्त पर बैठा रहा, मंगोलों का भारत पर आक्रमण नहीं हुआ। मंगोलों के आक्रमणों से बचने के लिए अल्लाउद्दीन ने सीरी दुर्ग के चारों ओर 17 फुट ऊँची दीवारों का एक मजबूत परकोटा बनवाया। इस परकोटे में सात दरवाजे बनवाए गए जिनसे होकर हाथियों की सेना निकल सकती थी। अल्लाउद्दीन के पास धन की कोई कमी नहीं थी, इसलिए उसने सात हजार राज एवं बेलदारों को भवन-निर्माण के कार्यों पर लगा रखा था। अल्लाउद्दीन ने सीरी में एक हजार खम्भों वाला ‘कस्रे हजार स्तून’ बनवाया था जिसका अर्थ होता है हजार खम्भों वाला महल। आजकल इसे ‘हजार सितून’ कहते हैं। इस महल का निर्माण पूरा होने पर उस पर मंगोलों के खून के छींटे छिड़के गए। अल्लाउद्दीन ने कुतुबमीनार के पास एक भव्य गुम्बद युक्त अलाई-दरवाजा बनवाया था। यह दरवाजा पठानों की निर्माण कला का सुंदर नमूना माना जाता है। इसकी दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाई गई थीं। अल्लाउद्दीन ने सीरी के निकट ‘हौज-ए-अलाई’ नामक एक तालाब का भी निर्माण करवाया जिसे आजकल ‘हौज खास’ कहा जाता है।
अल्लाउद्दीन ने दिल्ली में एक और तालाब बनवाया जिसे ‘शम्शी तालाब’ कहा जाता था। अलाई-दरवाजे से थोड़ी दूरी पर अल्लाउद्दीन ने कुतुबमीनार जैसी एक अन्य मीनार बनवानी आरम्भ की थी। इसका घेरा कुतुबमीनार से दोगुना रखा गया था तथा इसकी ऊँचाई भी अधिक रखी जानी थी किंतु यह मीनार कभी पूरी नहीं हो सकी। आज भी इस अधूरी मीनार के अवशेष देखे जा सकते हैं।
एक ओर तो सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी मंगोलों द्वारा किए जा रहे अभियानों से त्रस्त था तो दूसरी ओर वह भारत में अपने विजय अभियान को भी चलाए हुए था। उसने यह अभियान ई.1299 में आरम्भ किया जो ई.1305 तक निरंतर चलता रहा। अल्लाउद्दीन खिलजी ने सबसे पहले गुजरात पर अपनी आँख गढ़ाई।
उस काल में गुजरात अत्यन्त धन-सम्पन्न राज्य था तथा उन दिनों बघेला राजा कर्ण गुजरात में शासन कर रहा था। उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ा थी। अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा गुजरात को अपने प्रथम अभियान के लिए चुने जाने का विशेष कारण जान पड़ता है।
कहा जाता है कि गुजरात का एक मंत्री माधव, राजा कर्ण बघेला से नाराज होकर उससे बदला लेने के लिए अल्लाउद्दीन खिलजी की शरण में आया और उसने अल्लाउद्दीन को अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
रासमाला नामक एक ग्रंथ के अनुसार कर्ण बघेला के दो मंत्री थे- माधव तथा केशव। माधव की स्त्री पद्मिनी जाति की थी। इसलिए राजा ने उसे छीन लिया तथा माधव के भाई केशव को मार डाला। अपनी स्त्री के हरण तथा अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए माधव अल्लाउद्दीन के पास दिल्ली आया और उसे गुजरात पर चढ़ा लाया।
समकालीन लेखक मेरुतुंग द्वारा लिखित पुस्तक ‘विचारसेनी’ एवं पद्मनाभ द्वारा लिखित ‘कान्हड़दे प्रबंध’ सहित अन्य हिन्दू ग्रंथों में भी इस घटना का उल्लेख हुआ है।
ई.1299 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने भाई उलूग खाँ तथा अपने भांजे नुसरत खाँ को राजा कर्ण बघेला पर आक्रमण करने भेजा। पाठकों को स्मरण होगा कि अल्लाउद्दीन से पहले के सुल्तानों ने मेवाड़ से होकर गुजरात जाने की चेष्टा की थी किंतु मेवाड़ के शासकों ने दिल्ली की सेना को मेवाड़ से ही मारकर खदेड़ दिया था। इसलिए इस बार अल्लाउद्दीन की सेना ने रेगिस्तान के जालोर राज्य से होकर गुजरात जाने का निश्चय किया।
अल्लाउद्दीन के सेनापतियों ने जालोर के चौहान शासक कान्हड़देव से गुजरात जाने का मार्ग मांगा किंतु कान्हड़देव ने अल्लाउद्दीन की सेना को अपने राज्य में से होकर जाने की अनुमति नहीं दी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता