Thursday, November 21, 2024
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116. मामूली अपराध के संदेह में हाथ-पैर कटवा देता था अल्लाउद्दीन खिलजी!

अल्लाउद्दीन खिलजी ने तुर्की एवं गैर-तुर्की अमीरों की सम्पत्तियां छीनकर उन्हें इतना कमजोर कर दिया कि अब वे सुल्तान के विरुद्ध न तो कोई गुट बना सकते थे और न विद्रोह कर सकते थे। इस उपाय से चालीसा मण्डल का बचा-खुचा प्रभाव भी नष्ट हो गया तथा सल्तनत में सुल्तान अकेला ही सर्वोच्च अधिकारी के रूप में प्रतिष्ठिति हो गया। हालांकि दिल्ली सल्तनत ई.1293 से ही अस्तित्व में आ गई थी किंतु सुल्तान की अबाध निरंकुशता अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन काल में आकर स्थापित हुई।

दिल्ली सल्तनत में अपनाई गई अब तक की शासन पद्धति में सुल्तान का जनता से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं था। इसके कारण जनता, विशेषकर हिन्दू जनता, सुल्तान की ओर से उदासीन बनी रहती थी और स्थानीय लोगों के भड़कावे में आकर सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देती थी। इस कारण अल्लाउद्दीन खिलजी ने न्याय व्यवस्था एवं दण्ड विधान में भी आमूलचूल परिवर्तन किए।

अल्लाउद्दीन का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। उसके राज्य में अपराधी तथा उसके साथियों और सम्बन्धियों को बिना किसी प्रमाण के केवल सन्देह के कारण मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। अपराधियों को प्रायः अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। कठोर दण्ड विधान से जनता में शासन के प्रति भय बैठ गया। लोग अपराध करने, बगावत करने तथा विवाद में पड़ने से डरने लगे।

अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपनी मुस्लिम प्रजा के लिए न्याय की समुचित व्यवस्था की। हिन्दुओं के झगड़ों का न्याय भी मुस्लिम काजियों द्वारा किया जाता था किंतु हिन्दुओं के झगड़ों का निबटारा अलग प्रकर से किया जाता था। मुसलमान प्रजा की बजाय हिन्दुओं पर अधिक कड़े दण्ड लगाये जाते थे तथा अधिक कड़ी शारीरिक यातानाएं दी जाती थीं।

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सरे आम कोड़े मारना, भूखे-प्यास इंसानों को खम्भे से बांधकर कई दिनों तक धूप में पटके रखना, जूतों से पिटवाना, स्त्री एवं पुत्री को छीन लेना, सम्पत्ति जब्त कर लेना, घर में आग लगवा देना उस काल के दण्ड विधान के अनिवार्य अंग थे। अल्लाउद्दीन से पहले, दिल्ली सल्तनत की न्याय व्यवस्था, मुस्लिम धर्मग्रन्थों पर आधारित थी परन्तु अल्लाउद्दीन ने उसे लौकिक स्वरूप प्रदान किया। उसने इस्लाम की उपेक्षा नहीं की परन्तु उसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि परिस्थिति तथा लोक कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हों, वही राजनियम अपनाए जाने चाहिए।

अल्लाउद्दीन ने न्याय करने वाले काजियों की संख्या में वृद्धि कर दी ताकि लोगों को न्याय प्राप्त करने एवं अपने झगड़ों का निबटारा करवाने के लिए अधिक दिनों तक नहीं भटकना पड़े तथा अपराधियों को जल्दी से जल्दी सजा दी जा सके। अल्लाउद्दीन खिलजी ने काजी की सहायता के लिए पुलिसकर्मियों एवं गुप्तचरों की समुचित व्यवस्था की। ये लोग अपराधों एवं अपराधियों के अन्वेषण में काजी की सहायता किया करते थे।

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जिस प्रकार काजी न्याय-व्यवस्था का अधिकारी था, उसी प्रकार नगर-कोतवाल प्रत्येक नगर में पुलिस-व्यवस्था का प्रधान होता था। उसका प्रधान कर्त्तव्य अपराधों का अन्वेषण करना एवं अपराधी को पकड़कर काजी के समक्ष प्रस्तुत करना होता था। मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है कि राज्य के समस्त पदाधिकारी बड़ी सतर्कता तथा ईमानदारी के साथ काम करते थे क्योंकि नियमानुसार कार्य न करने वालों को कठोर दण्ड दिए जाते थे।

तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है कि यद्यपि अल्लाउद्दीन खिलजी को अपनी आय का अधिकांश भाग युद्धों में ही व्यय करना पड़ता था तथापि उसने सार्वजनिक हित के भी बहुत से कार्य किए। उसने दिल्ली के पास एक सुन्दर महल बनवाया। इस्लामी विद्वानों तथा फकीरों को सुल्तान का आश्रय प्राप्त था।

जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि अल्लाउद्दीन खिलजी निरा अशिक्षित व्यक्ति था। निरक्षर होने के उपरांत भी उसमें नैसर्गिक बौद्धिक प्रतिभा विद्यमान थी। उसे योग्य व्यक्तियों की अद्भुत परख थी जिससे वह योग्य व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त कर सका था। अल्लाउद्दीन खिलजी ने कवि टेनिसन के कथन को सिद्ध कर दिया कि ‘केवल वही शासन कर सकता है जो पढ़-लिख नहीं सकते।’

तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार अल्लाउद्दीन खिलजी की शासन व्यवस्था की भले ही कितनी ही प्रशंसा क्यों न करें, वास्तविकता यह है कि उसकी राज्य व्यवस्था सैनिक शक्ति पर आधारित थी। उसके समस्त सुधार सुल्तान की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए किये गए थे। ऐसा शासन दीर्घकालीन नहीं हो सकता था।

जैसे-जैसे सुल्तान की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियाँ क्षीण होने लगीं, वैसे-वैसे उसकी नीतियों के प्रति असन्तोष भी बढ़ने लगा। बहुत से लोग सुल्तान की योजनाओं से असन्तुष्ट थे। मुस्लिम अमीर अपनी जागीरें एवं अधिकार फिर से प्राप्त करने की ताक में थे। राजपूत जागीरदार एवं पुराने राजवंश अपने खोये हुए राज्यों को फिर से प्राप्त करने के लिए प्रयासरत थे। जनता करों के बोझ से कराह रही थी।

व्यापारी वर्ग भी सुल्तान की नीतियों से असंतुष्ट था। वस्तुओं के भाव निश्चित कर देने से व्यापारी वर्ग लाभ से वंचित हो गया था। जो व्यापारी दिल्ली से बाहर जाते थे, उनके कुटुम्ब पर शासन द्वारा पूरा नियंत्रण रखा जाता था। इससे उनके परिवारों की सुरक्षा पर हर समय खतरा बना रहता था।

किसान और हिन्दू जनता, करों के अत्यधिक बोझ से दब गई थी। गुप्तचर विभाग की मनमानी से लोगों में असंतोष बढ़ गया था। सुल्तान के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति को शासन के सम्बन्ध में निर्णय लेने और उसे लागू करने का अधिकार नहीं था। ऐसी व्यवस्था तब तक ही चल सकती थी जब तक कि सुल्तान में उसे चलाने की योग्यता रहे। इन सब कारणों से उसकी व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकी और उसके आँखें बन्द करने से पहले ही यह व्यवस्था चरमराने लगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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