अपने मजहबी विश्वासों के प्रति उन्मादी सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी धोखे, छल, फरेब से भरी तेरहवीं शताब्दी के भारत में अपने दुष्ट भतीजे अल्लाउद्दीन खिलजी के ऊपर विश्वास करके भयानक मृत्यु को प्राप्त हुआ।
इतिहास के पन्नों में आगे बढ़ने से पहले हमें अल्लाउद्दीन खिलजी के बाल्यकाल में झांकना चाहिए। यद्यपि उस काल के इतिहासकारों ने अल्लाउद्दीन खिलजी के बाल्यकाल पर बहुत कम प्रकाश डाला है, तथापि उसका जो इतिहास हमारे सामने आता है, वह भी कम विस्मयकारी नहीं है।
अल्लाउद्दीन खिलजी का पिता शिहाबुद्दीन मसूद खिलजी, जलालुद्दीन फीरोजशाह खिलजी का छोटा भाई था। शिहाबुद्दीन के चार पुत्र थे जिनमें से अल्लाउद्दीन सबसे बड़ा था। इतिहासकारों का अनुमान है कि अल्लाउद्दीन का जन्म ई.1266-67 में हुआ था, उसकी सही जन्मतिथि उपलब्ध नहीं है। जलालुद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने से काफी पहले ही उसके छोटे भाई शिहाबुद्दीन की मृत्यु हो चुकी थी। उसकी मृत्यु के समय अल्लाउद्दीन खिलजी छोटा बालक ही था। इसलिए अल्लाउद्दीन का पालन पोषण जलालुद्दीन ने किया था।
चूंकि जलालुद्दीन अपने जीवन के अधिकांश समय में मंगोलों से लड़ने के लिए भारत की पश्चिमी सीमा पर नियुक्त था, इसलिए उसके परिवार के लड़कों को नियमित रूप से लिखने-पढ़ने की सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। जलालुद्दीन अपने पितृहीन भतीजों से अत्यंत प्रेम करता था। जब ये भतीजे बड़े हुए तो जलालुद्दीन ने अपनी एक पुत्री का विवाह अल्लाउद्दीन के साथ कर दिया।
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इस प्रकार अल्लाउद्दीन खिलजी, जलालुद्दीन खिलजी का भतीजा, पालित पुत्र तथा दामाद तीनों ही था। पढ़ाई-लिखाई में रुचि नहीं होने से अल्लाउद्दीन नितांत निरक्षर बना रहा किंतु उसने घुड़सवारी, खेलकूद तथा युद्धविद्या सीख ली। जब जलालुद्दीन खिलजी सुल्तान बना तो अल्लाउद्दीन को अमीर-ए-तुजुक अर्थात् उत्सव आयोजनों के मंत्री का पद दिया गया।
कहने को अल्लाउद्दीन एक सुल्तान का दामाद था किंतु उसका वैवाहिक जीवन बहुत नीरस था। उसकी सास मलिका जहान तथा पत्नी, दोनों मिलकर अल्लाउद्दीन को बात-बात पर ताने देती थीं। इसलिए अल्लाउद्दीन ने महरू नामक एक प्रेमिका तलाश कर ली। एक दिन अल्लाउद्दीन की पत्नी को इस बात का पता चल गया इसलिए उसने अल्लाउद्दीन के सामने ही महरू की पिटाई कर दी। इससे अल्लाउद्दीन का मन दिल्ली से उखड़ गया।
अल्लाउद्दीन के सौभाग्य से ई.1291 में कड़ा के गवर्नर मलिक छज्जू ने सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को दबाने में अल्लाउद्दीन ने भारी वीरता का परिचय दिया। यहाँ तक कि सुल्तान के मंझले पुत्र अर्कली खाँ ने सुल्तान के समक्ष अल्लाउद्दीन की प्रशंसा की। इस पर सुल्तान ने अल्लाउद्दीन को कड़ा-मानिकपुर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। अल्लाउद्दीन दिल्ली से कड़ा चला गया। उसकी पत्नी ने कड़ा चलने से मना कर दिया। इस पर अल्लाउद्दीन अपनी प्रेमिका महरू को अपने साथ कड़ा ले गया।
कड़ा का वातावरण अल्लाउद्दीन के लिए अत्यंत अनुकूल था। सुल्तान और उसके परिवार की छत्रछाया से दूर अल्लाउद्दीन को स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर मिला। इससे उसकी महत्त्वाकांक्षाओं ने नया विस्तार लिया और उसने दिल्ली के तख्त पर आँख गढ़ाई।
अल्लाउद्दीन ने शाही-तख्त प्राप्त करने के लिए सैनिक संगठन, धन संग्रह तथा साथियों की परीक्षा करना आरम्भ किया। ई.1292 में सुल्तान की आज्ञा से अल्लाउद्दीन ने मालवा क्षेत्र में स्थित भिलसा राज्य पर आक्रमण किया। भिलसा पर उसे बड़ी सरलता से विजय प्राप्त हो गई और उसने लूट का सारा माल सुल्तान जलालुद्दीन को समर्पित कर दिया।
सुल्तान ने अल्लाउद्दीन की निष्ठा से प्रसन्न होकर उसे आरिजे मुमालिक अर्थात सैन्य-मंत्री के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया और उसे कड़ा के साथ-साथ अवध का भी गवर्नर नियुक्त कर दिया। ई.1294 में अल्लाउद्दीन ने सुल्तान से छिपकर देवगिरी पर आक्रमण किया और वहाँ से लूट की अपार सम्पत्ति लेकर कड़ा वापस लौट आया।
देवगिरि की अकूत सम्पदा प्राप्त करके अल्लाउदद्ीन मदान्ध हो गया। अब उसने दिल्ली का तख्त प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। उसने कई तरह के बहाने करके अपने श्वसुर तथा ताऊ सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी को कड़ा बुलाया। अपने भतीजे के प्रेम में पागल सुल्तान कड़ा आया जहाँ अल्लाउद्दीन ने 19 जुलाई 1296 को मानिकपुर के निकट सुल्तान के साथ विश्वासघात करके उसकी हत्या करवा दी। इतना किए जाने के बाद भी दिल्ली का तख्त अभी दूर था। मरहूम सुल्तान के दो पुत्र अभी जीवित थे, उन्हें भी मार्ग से हटाना आवश्यक था।
सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की बेगम मलिका जहान को जैसे ही सुल्तान की कड़ा में हत्या होने का समाचार मिला, उसने अपने छोटे पुत्र कद्र खाँ को रुकुनुद्दीन इब्राहीम के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया क्योंकि मंझला पुत्र अर्कली खाँ मुल्तान का गवर्नर होने के कारण मुल्तान में था। संभवतः जलालुद्दीन का बड़ा पुत्र खानखाना महमूद इस समय तक मृत्यु को प्राप्त हो चुका था।
जब अर्कली खाँ ने सुना कि उसकी माँ ने छोटे पुत्र कद्र खाँ को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया तो वह अपने परिवार से नाराज हो गया तथा उसने अपने परिवार की सहायता करने के लिए दिल्ली आना उचित नहीं समझा।
जब अल्लाउद्दीन को सुल्तान के परिवार में फूट पड़ने के समाचार मिले तो अल्लाउद्दीन ने दिल्ली जाने का निर्णय किया। उसने मार्ग में नये सैनिकों की भर्ती की। सैनिकों की भरती का उसका तरीका भी बहुत विचित्र था। शाही छावनी के प्रत्येक अड्डे पर मंजनीक सोने की पांच-पांच मन अशर्फियां लेकर खड़े हो गए। जो सैनिक सेना में भरती होना चाहते थे, उन पर ये अशर्फियां लुटाई जाती थीं। अशर्फियां लूटने के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे और दल के दल शाही सेना में भरती होने लगे। इस प्रकार जब अल्लाउद्दीन दिल्ली पहुँचा तो उसके पास 56 हजार घुड़सवार तथा 70 हजार पैदल सिपाही हो गए थे।
जब दिल्ली की सेना ने अल्लाउद्दीन का मार्ग रोका तो दिल्ली के सैनिकों को भी अल्लाउद्दीन की सेना में भरती होने का अवसर दिया गया तथा वे भी अशर्फियाँ लूटने के लालच में शाही सेना छोड़कर अल्लाउद्दीन की सेना में भरती होने लगे।
दिल्ली के लालची अमीरों को भी मुँह मांगा पैसा देकर अल्लाउद्दीन ने अपनी ओर मिला लिया। सैनिकों एवं अमीरों की गद्दारी देखकर मलिका जहान ने अपने पुत्र अर्कली खाँ को दिल्ली आने तथा परिवार की सहायता करने के लिए संदेश भिजवाये किंतु अर्कली खाँ ने उन संदेशों पर ध्यान नहीं दिया। इससे मलिका जहान दिल्ली में अकेली पड़ गई।
जब अल्पवय सुल्तान कद्र खाँ ने अपने चचेरे भाई एवं बहनोई अल्लाउद्दीन का सामना करने का विचार किया तो रहे-सहे अमीर भी अपने सैनिक लेकर अल्लाउद्दीन की तरफ जा मिले। इससे मलिका जहान कद्र खाँ तथा परिवार को लेकर अपने पुत्र अर्कली खाँ के पास मुल्तान भाग गई। इस प्रकार बिना लड़े ही, अल्लाउद्दीन खिलजी का दिल्ली के तख्त पर अधिकार हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता