अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1301 में रणथंभौर दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के बाद ई.1303 में भारत के सबसे दुर्गम माने जाने वाले दुर्गों में से एक चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए प्रस्थान किया।
चित्तौड़ का दुर्ग गंभीरी और बेढ़च नदियों के संगम पर मेसा के पठार पर स्थित है तथा लगभग 8 किलोमीटर लम्बा और 2 किलोमीटर चौड़ा है। यह दुर्ग 152 मीटर ऊंची पहाड़ी पर 279 हैक्टेयर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत का सबसे विशाल दुर्ग है। चित्तौड़ दुर्ग में पहुंचने के लिये एक-एक करके सात दरवाजे पार करने होते हैं। दुर्ग परिसर में जैमलजी का तालाब, सूरज कुण्ड, चित्रांग मोरी तालाब, रत्नेश्वर तालाब, कुम्भ सागर तालाब, भीमलत तालाब, हाथी कुण्ड, झाली बाव, कातण बावड़ी, जेठा महाजन की बावड़ी और गोमुख झरना सहित कई जलस्रोत स्थित थे जो दुर्ग में निवास करने वाले सैनिकों, किसानों एवं पशुओं के लिए पर्याप्त थे। इस दुर्ग में अनेक प्राचीन एवं ऐतिहासिक महल, हवेली, मंदिर, शस्त्रागार, अन्नभण्डार, सुरंगें एवं तहखाने स्थित थे। इनके कारण कई हजार किसान, श्रमिक एवं सैनिक दीर्घकाल तक दुर्ग में निवास कर सकते थे।
अल्लाउद्दीन का चित्तौड़-अभियान विश्व के उन युद्ध-अभियानों में सम्मिलित है जिनकी चर्चा मानव इतिहास में सर्वाधिक होती है। इस युद्ध के इतिहास को संसार भर में थर्मोपिली के युद्ध, हल्दीघाटी के युद्ध, कर्बला के युद्ध, मैराथॉन के युद्ध, प्लासी के युद्ध और वाटर लू के युद्ध के बराबर ही लोकप्रियता प्राप्त है। भारत के इतिहास में जो लोकप्रियता हल्दीघाटी के युद्ध, प्लासी के युद्ध, पानीपत के तीन युद्धों, तराईन के दो युद्धों तथा खानुआ के युद्ध को प्राप्त है, वही लोकप्रियता अल्लाद्दीन खिलजी के चित्तौड़ अभियान को प्राप्त है। इसका कारण महारानी पद्मिनी की कथा का इस युद्ध से जुड़ जाना है।
महारानी पद्मिनी चित्तौड़ के रावल रत्नसिंह की रानी थी जो ई.1302 में मेवाड़ का राजा हुआ था। यद्यपि रत्नसिंह को रावल बने हुए कुछ ही महीने हुए थे तथापि उसके वंशज विगत 550 सालों से मेवाड़ पर शासन कर रहे थे और लगभग तब से ही अरब एवं अफगानिस्तान से आए आक्रांताओं को धूल चटाते आ रहे थे। इस कारण चित्तौड़ दुर्ग दिल्ली के मुस्लिम शासकों की आँख की किरकिरी बना हुआ था। गजनी एवं दिल्ली के जिन तुर्की आक्रांताओं ने पृथ्वीराज चौहान सहित अनेक बडे़-बड़े हिन्दू राजाओं को नष्ट कर दिया था, उन सुल्तानों के सामने चित्तौड़ का गर्व, समुद्र के समान गरजता-लरजता हिलोरें लेता था। उस समय चित्तौड़ राज्य अपने पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा दिल्ली के सुल्तानों, चौहानों, चौलुक्यों एवं परमारों पर विजय प्राप्त कर लेने से उत्साहित था। अतः चित्तौड़ ने पूरी शक्ति से अल्लाउद्दीन खिलजी का प्रतिरोध किया।
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बहुत से लेखकों ने इस युद्ध के बारे में अलग-अलग बातें लिखी हैं। इनमें से कुछ बातें एक जैसी हैं तो कुछ बातों में बहुत अंतर है। मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रंथ ‘पद्मावत’ में इस आक्रमण का काव्यात्मक विवरण दिया गया है। इस विवरण के अनुसार रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपने सौन्दर्य के लिये दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। अल्लाउद्दीन ने पद्मिनी का अपहरण करने और मेवाड़ पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। अल्लाउद्दीन ने चित्तौड़ के रावल रत्नसिंह के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह दर्पण में रानी पद्मिनी की छवि दिखा दे तो मैं दिल्ली लौट जाउंगा।
मलिक मुहम्मद जायसी के अनुसार रावल रत्नसिंह अल्लाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मिनी की छवि शीशे में दिखाने के लिये तैयार हो गया। जब सुल्तान पद्मिनी को देखकर लौटने लगा तब राजा रत्नसिंह उसे पहुँचाने के लिये दुर्ग से बाहर आया। पहले से ही तैयार अल्लाउद्दीन खिलजी के सैनिकों ने राजा को कैद कर लिया। सुल्तान ने रानी पद्मिनी के पास सूचना भेजी कि जब तक वह सुल्तान के शिविर में नहीं आएगी, तब तक राजा रत्नसिंह को मुक्त नहीं किया जाएगा। रानी पद्मिनी ने सुल्तान के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। रानी की जगह उसके दो सम्बन्धी बालक गोरा एवं बादल रानी की डोली में बैठ गए। उसके साथ दासियों की सात सौ डोलियों में वीर राजपूत सैनिक औरतों के वेश में बैठ गए।
जब ये डोलियां दिल्ली में स्थित सुल्तान के महल में पहुंचीं तो राजपूत सैनिकों ने डोलियों से बाहर निकलकर रावल रत्नसिंह को मुक्त करा लिया। इस अवसर पर हुए युद्ध में गोरा मारा गया। राजपूत सैनिक अपने राजा रत्नसिंह को लेकर चित्तौड़ आ गये। इसके बाद अल्लाउद्दीन के पुत्र खिज्र खाँ के नेतृत्व में चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण हुआ। जब राजपूतों को अपनी पराजय निश्चित लगने लगी तो राजपूत स्त्रियों ने जौहर और पुरुषांें ने केसरिया करने का निश्चय किया।
रानी पद्मिनी, राजपूत स्त्रियों के साथ चिता में बैठकर भस्म हो गई। राजपूतों ने केसरिया बाना धारण किया, माथे पर तिलक लगाया और मुंह में तुलसीदल लेकर दुर्ग के द्वार खोल दिए। वे शत्रुसेना पर काल बनकर टूट पड़े किंतु किले का पतन हो गया। यह चित्तौड़ दुर्ग का पहला साका था। इस घेरे में चित्तौड़ की रावल शाखा के समस्त वीरों के काम आ जाने से चित्तौड़ की रावल शाखा का अंत हो गया।
सुप्रसिद्ध गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा किशारी शरण लाल आदि कई इतिहासकार पद्मावत के विवरण को सही नहीं मानते। वे पद्मिनी की कथा को काल्पनिक मानते हैं। तत्कालीन इतिहासकारों इसामी, अमीर खुसरो, इब्नबतूता आदि ने इन घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है जबकि परवर्ती फारसी इतिहासकारों अबुल फजल, हाजीउद्वीर तथा फरिश्ता ने इसे सत्य माना है।
अल्लाउद्दीन खिलजी के दरबारी लेखक अमीर खुसरो ने अपने ग्रंथ ‘तारीखे अलाई’ में लिखा है- ‘सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने गंभीरी और बेड़च नदी के मध्य अपने शिविर की स्थापना की। उसके पश्चात् सेना ने दायें और बायें पार्श्व से किले को घेर लिया। ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घिर गई। स्वयं सुल्तान ने अपना ध्वज चित्तौड़ नामक छोटी पहाड़ी पर गाढ़ दिया। सुल्तान वहीं पर दरबार लगाता था तथा घेरे के सम्बन्ध में दैनिक निर्देश देता था। जब घेरा लम्बी अवधि तक चला तो राजपूतों ने भी किले के फाटक बंद कर लिये और परकोटों पर मोर्चा बनाकर शत्रुदल का मुकाबला करते रहे। सुल्तान की सेना ने लगभग 8 महीने तक किले की चट्टानों को मजनिकों से तोड़ने का अथक प्रयास किया पर इस काम में सफलता नहीं मिली। सीसोदे के सामंत लक्ष्मणसिंह ने किले की रक्षा में अपने सात पुत्रों सहित प्राण गंवाये। ….. 26 अगस्त 1303 को किला फतह हुआ।’
अमीर खुसरो लिखता है- ‘राय पहले तो भाग गया परन्तु पीछे से स्वयं शरण में आया और तलवार की बिजली से बच गया। अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में 30 हजार मनुष्यों का कत्ल करने की आज्ञा दी तथा चित्तौड़ का राज्य अपने पुत्र खिज्र खाँ को देकर चित्तौड़ का नाम खिजराबाद रख दिया।’
‘छिताई चरित’ में अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़ के शासक को बंदी बनाकर जगह-जगह पर घुमाये जाने का उल्लेख है। ई.1336 में जैन साधु कक्कड़ सूरि ने ‘नाभिनन्दनो जिनोद्धार प्रबन्ध’ नामक ग्रंथ लिखा जिसमें कहा गया है कि चित्रकूट के स्वामी को बन्दी बनाया गया और नगर-नगर बन्दर की तरह घुमाया गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता