मोहेन-जो-दड़ो पशुपति देवालय के वार्षिक समारोह को कोई एक माह का समय व्यतीत हुआ होगा कि एक दिन सूर्योदय के साथ ही मोहेन-जो-दड़ो में कोलाहल मच गया। जन-जन की जिह्वा पर यही बात थी कि पशुपति महालय की प्रधान नृत्यांगना देवी रोमा मातृदेवी के वेश में पुर के ठीक मध्य में आकर खड़ी हो गयी हैं। वे किसी से संभाषण नहीं कर रहीं अपितु नृत्य-मुद्रा में मौन धारण किये हुए खड़ी हैं। मोहेन-जो-दड़ो वासी यह समझने में असमर्थ हैं कि किस आशय से देवी रोमा ने यह किया है! जिसने भी सुना वही देवी रोमा को देखने के लिये दौड़ पड़ा। हाँ! ठीक सुना उसने। यह तो देवी रोमा ही हैं, मातृदेवी के वेश में। ठीक वैसी ही दिखाई दे रही हैं जैसी पशुपति के वार्षिकोत्सव में दिखाई दे रही थीं। लगता है अभी मयाला अपनी मृदंग पर थाप देगा और देवी रोमा अपना वही अद्भुत अविस्मरणीय नृत्य आरंभ कर देंगी और दर्शकों की देख सकने की क्षमता से बाहर हो जायेंगी।
देवी रोमा के चरणों के पास रखी मिट्टी की पट्टिका पर यह आदेश उत्कीर्ण है- ‘सावधान! न तो कोई नागरिक मेरे निकट आये और न मुझे स्पर्श करे।’
नागरिकों की अच्छी खासी भीड़ एकत्र हो चली है। नगर प्रहरियों ने पशुपति महालय के प्रधान पुजारी किलात को सूचित किया। किलात को विश्वास नहीं हुआ प्रहरियों की बात पर।
– ‘क्या कहते हो ? भला ऐसा भी कहीं संभव है ?’
– ‘हमारा विश्वास करें स्वामी! यह मिथ्या सूचना नहीं है। हमने अपने नेत्रों से देखा है देवी रोमा को मातृदेवी के वेश में नगर के मध्य मुख्य मार्ग पर खड़े हुए।’
– ‘क्या चाहती हैं वह ?’
– ‘यह तो ज्ञात नहीं स्वामी। वे कुछ बोलती नहीं, न किसी को निकट आने देती हैं।’
– ‘हमें मार्ग दिखाओ। हम स्वयं वहाँ चलकर देखेंगे।’
जब किलात अपने स्थूल वृषभ पर सवार होकर नगर के मुख्य चैराहे पर पहुँचा तब तक सूर्य का प्रकाश अच्छी तरह फैल चुका था। चैराहे पर उपस्थित विशाल मानव समुदाय किलात के आगमन की ही प्रतीक्षा कर रहा था। सैंधवों ने श्रद्धा से मस्तक अवनत कर पुजारी किलात को मार्ग दिया। आश्चर्य से जड़ रह गया किलात। यह तो सचमुच ही नृत्यांगना रोमा है। पशुपति महालय के वार्षिकोत्सव में मातृदेवी का वेश धारण करने से मना करने वाली रोमा इस वेश में क्यों कर यहाँ आ खड़ी हुई है ? यदि रोमा को कोई असंतोष था तो उसने कहा क्यों नहीं! इस तरह प्रतिरोध दर्शाने की क्या आवश्यकता थी। इसकी ढिठाई तो देखो! कैसे मेरे समक्ष नेत्र खोलकर खड़ी है।
– ‘देवी रोमा! इस कौतुक का क्या आशय है ?’ किंचित दूर से ही सम्बोधित किया किलात ने किंतु देवी रोमा ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया।
– ‘देवी रोमा! यदि तुम्हें कोई असंतोष है तो अपने असंतोष का कारण मुझसे कहो।’ रोमा की ओर से कोई प्रत्युत्तर न आया देखकर किलात ने अपना प्रश्न दोहराया किंतु रोमा की ओर से फिर भी कोई उत्तर नहीं आया। कहीं यह प्रतिमा तो नहीं! अचानक किलात को संदेह हुआ। निःसंदेह यह प्रतिमा ही है। तभी तो हिलती-डुलती भी नहीं। किलात ने निकट जाकर उसे स्पर्श किया। यह तो सचमुच ही प्रतिमा है। अब तो किलात सहित उपस्थित समस्त सैंधव समुदाय के आश्चर्य का पारावार न रहा।
कहाँ से आई यह प्रतिमा यहाँ ? किसने बनाया इसे ? क्या सैंधवों में भी कोई इतना निष्णात शिल्पी है! देव शिल्पी त्वष्टा और दानव शिल्पी मय के बारे में तो सुना है उन्होंने किंतु सैंधवों में तो कोई इतना निष्णात शिल्पी आज तक नहीं हुआ! देव प्रजा तो कब की नष्ट हो चुकी, पुर में इन दिनों कोई दानव भी दिखाई नहीं दिया। फिर कहाँ से आई यह प्रतिमा ? क्या माया है यह ? क्या किसी ने आकाश मार्ग से यहाँ उतारा है इसे ?
प्रतिमा को पशुपति महालय में पहुँचाने का आदेश देकर किलात अपने वृषभ पर पुनः सवार हुआ। प्रासाद पहुँच कर उसने अपने सेवकों को बुलाया और आदेश दिया कि पूरे नगर में यह राजाज्ञा प्रचारित की जाये कि जिस किसी ने इस प्रतिमा का निर्माण किया है वह पशुपति महालय के मुख्य पुजारी के समक्ष आज ही उपस्थित हो।
पुर में प्रचारित होती हुई आज्ञा को सुनकर आनंदित हुआ प्रतनु। अपने आप को प्रकट करने का यही उचित अवसर है। प्रातःकाल से ही वह पुरवासियों द्वारा व्यक्त की जा रहीं भांति-भांति की प्रतिक्रियाओं का आनंद उठाता रहा है।
उस दिन पशुपति के वार्षिकोत्सव में रोमा को देखकर आश्चर्य से जड़ रह गया था प्रतनु! रूप के इस सागर को कैसे अपने शिल्प में बांध सकेगा वह! उसने रोमा का बिम्ब अपने नेत्रों में स्थिर कर लिया। प्रतनु ने अपने नगर लौट जाने के स्थान पर मोहेन-जो-दड़ो में रहकर ही रोमा की अद्भुत प्रतिमा बनाने का निर्णय लिया। पशुपति के प्रधान महालय के मुख्य शिल्पी वितनु को अभी मोहेन-जो-दड़ो वासी भूले नहीं थे।
प्रतनु ने अपने प्रपितामह वितनु का परिचय देकर नगर में एक गृहस्थ के यहाँ कुछ माह ठहरने की अनुमति प्राप्त कर ली। इस सैंधव परिवार से प्रतनु के प्रपितामह का निकट का सम्बन्ध रहा था। अतः प्रतनु के आगमन से प्रसन्नता ही हुई उसे। सैंधव सद्गृहस्थ ने शिल्पी प्रतनु की भी चर्चा सुन रखी थी किंतु प्रतनु के अनुरोध पर उसने किसी को नहीं बताया कि उसका अतिथि कौन है।
शिल्पी प्रतनु के अनुरोध पर सद्गृहस्थ ने छैनी हथौड़ी तथा एक गुप्त स्थान का भी प्रबंध कर दिया था। वहीं रहकर प्रतनु ने नृत्यांगना रोमा की प्रतिमा का शिल्पांकन किया। सैंधव सद्गृहस्थ इस असाधारण अतिथि को पाकर प्रसन्न था। लगभग एक मास के विकट परिश्रम से प्रतनु ने रोमा की यह प्रतिमा तैयार कर ली और कल रात्रि में जब चंद्रमा को उदित नहीं होना था, उसने अवसर पाकर उसी सद्गृहस्थ के सहयोग से रोमा की प्रतिमा को पुर के प्रमुख चैराहे पर स्थापित कर दिया था।
जिस समय नृत्यांगना रोमा अद्भुत प्रतिमा की कथा सुनकर पशुपति महालय पहुँची उस समय किलात अकेला बैठा हुआ प्रतिमा को ही निहार रहा था। नृत्यांगना को आया देखकर उठ खड़ा हुआ किलात- ‘आओ रोमा! देखो तो किसी शिल्पी ने तुम्हारी कितनी जीवंत प्रतिमा बना डाली है।’
प्रतिमा को देखकर रोमा आश्चर्य के सागर में डूब गयी। उसे लगा वह प्रतिमा नहीं देख रही है, दर्पण देख रही है। कितना जीवंत, कितना अद्भुत अंकन है एक-एक अंग का! एक-एक भाव का! एक-एक नृत्य मुद्रा का! यदि स्पर्श नहीं करो तो पता ही नहीं लगता कि यह प्रतिमा है। इसी लिये समस्त पुरवासी भ्रम में पड़ गये थे इसे देखकर। यहाँ तक कि स्वामी किलात भी।
– ‘क्या इस प्रतिमा का शिल्पी कभी तुमसे मिला है ?’
– ‘नहीं स्वामी! कभी नहीं।’
– ‘तो फिर इसने इतनी कुशलता पूर्वक तुम्हारे अंगों के लास्य को कैसे प्रतिमा में ढाल दिया ?’ प्रतिमा के स्थूल वर्तुल-युगल पर हाथ फिराते हुए प्रश्न किया किलात ने।
– ‘पता नहीं स्वामी। लगता है शिल्पी पशुपति महालय के वार्षिक उत्सव में उपस्थित था।’ किलात के हाथों को प्रतिमा पर घूमते देखकर रोमा का मुख लज्जा से आरक्त हो आया।
– ‘किंतु केवल उत्सव में देख लेने भर से तुम्हारे सौंदर्य का इतना वास्तविक निरूपण कैसे कर सका होगा वह ? अवश्य ही उसने तुम्हें इस अवस्था में एक से अधिक बार देखा है।’ किलात के चेहरे पर एक आदिम पिपासा नृत्य कर रही थी। उसके हाथ अब भी प्रतिमा पर थे।
रोमा की इच्छा हुई कि वह खींच कर किलात को एक हाथ जमाये किंतु किलात उसका स्वामी है और वह क्रीत दासी से अधिक कुछ भी नहीं। कैसे कर सकती है वह यह अधम कृत्य!
– ‘नहीं स्वामी! मैं इतनी निर्लज्ज नहीं।’
– ‘इसमें निर्लज्जता की क्या बात है ? महालय की नृत्यांगनाओं के लिये अपनी प्रतिमा बनवाने का तो कोई निषेघ नहीं। यह तो तुम्हारा नैसर्गिक अधिकार है।’
किलात की बात का उत्तर नहीं दिया रोमा ने। वह उस अप्रकट शिल्पी के बारे में सोचने लगी। सत्य ही कितना निष्णात होगा इसका शिल्पी! रोमा की इच्छा हुई कि वह उस अनजाने शिल्पी को एक बार देखे जिसने इतने कौशल से उसकी प्रतिमा का निर्माण किया है। उसकी प्रशंसा करे उसके कौशल के लिये किंतु धिक्कृत भी करे इस निर्लज्जता के लिये। कैसे उसने बिना अनुमति लिये उसकी निर्वसन देह का शिल्पांकन किया ? निश्चय ही वह पशुपति के वार्षिकोत्सव में उपस्थित रहा होगा किंतु देवीक अनुष्ठान की बात और है। तब तो वह मातृदेवी के रूप में थी किंतु यहाँ वह प्रतिमा में है। भले ही उसे मातृदेवी के रूप में ही दिखाया गया है किंतु यह उसकी देह का निर्लज्ज प्रदर्शन है। मातृदेवी के रूप में सजी रोमा को किलात बलपूर्वक स्पर्श नहीं कर सकता था किंतु प्रतिमा में बैठी रोमा को किलात बिना किसी संकोच के स्पर्श कर सकता है।
इससे पहले कि किलात प्रतिमा की प्रशंसा के उपक्रम से रोमा से कुछ और निर्लज्ज शब्द कहता, अनुचर ने आकर सूचना दी कि शिल्पी प्रतनु उनकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है। किलात ने शिल्पी को यहीं ले आने के आदेश दिये। शीघ्र ही प्रतनु किलात की सेवा में उपस्थित हो गया।
प्रतनु ने जानुओं के बल बैठकर पुजारी किलात और नृत्यांगना रोमा को प्रणाम निवेदित किया। प्रतनु को देखकर विश्वास नहीं हुआ किलात को। किलात की कल्पना थी कि इस प्रतिमा का शिल्पी किसी अत्यंत मायावी व्यक्ति के रूप में उसके सामने उपस्थित होगा किंतु यह तो अत्यंत साधारण सैंधव युवक था।
– ‘तुमने इस प्रतिमा का निर्माण किया है ?
– ‘हाँ स्वामी! मैंने ही इस प्रतिमा का निर्माण किया है।’
– ‘किस उद्देश्य से ?’
– ‘कला को नवीन ऊँचाई प्रदान करने के उद्देश्य से। देवी रोमा के सौंदर्य को सदैव के लिये अमर कर देने के उद्देश्य से। सैंधव सभ्यता की श्रेष्ठता का संदेश असुरों, दैत्यों, दानवों और नागों की सभ्यताओं तक पहुँचाने के उद्देश्य से।’
– ‘क्या नाम है तुम्हारा ?
– ‘प्रतनु। लोग मुझे शिल्पी प्रतनु कहते हैं।’
– ‘कहाँ के निवासी हो ? पहले तो कभी नहीं देखा तुम्हें!’ नाम सुना हुआ सा लगा किलात को।
– ‘सैंधव हूँ। पहले हमारा पुर सरस्वती के किनारे था किंतु आर्यों द्वारा तोड़ दिये जाने के बाद अब शर्करा के तट पर हम लोगों ने नवीन पुर बना लिया।’
– ‘सरस्वती नदी के किनारे कौनसा पुर था तुम्हारा ?’
– ‘कालीबंगा।’
– ‘शिल्पी वितनु का नाम सुना है तुमने ?’
– ‘हाँ। वे मेरे प्रपितामह थे।’
– ‘तुम्हें पता है मोहेन-जो-दड़ो से उनका क्या सम्बन्ध था ?’
– ‘हाँ। वे इस महालय के प्रधान शिल्पी थे।’
– ‘निश्चय ही तुम शिल्पी वितनु के प्रपौत्र हो तथा उसके प्रपौत्र होने के योग्य हो। क्या तुमने यह कला शिल्पी वितनु से सीखी थी ?’
– ‘नहीं! मैंने तो उन्हें देखा ही नहीं। मुझे शिल्प का ज्ञान पिता ने दिया।’
– ‘देवी रोमा! तुम्हें इस युवक का आभार व्यक्त करना चाहिये। इसी चतुर सैंधव ने तुम्हारी इतनी सुंदर प्रतिमा बनाई है।’ किलात ने रोमा को सम्बोधित करके कहा।
– ‘आप सब कलाओं के पारखी हैं स्वामी। इनकी प्रशंसा तो आप ही कर सकेंगे किंतु मैं आपके समक्ष इनके विरुद्ध अभियोग प्रस्तुत करने की अनुमति चाहती हूँ।’
– ‘अभियोग! कैसा अभियोग ?’ चैंक पड़े प्रतनु और किलात दोनों ही।
– ‘इन्होंने मुझसे बिना अनुमति प्राप्त किये मेरे शरीर की निर्वसना प्रतिमा बनाई है। क्या इससे मेरी मर्यादा भंग नहीं होती ?’
– ‘निर्वसना प्रतिमा बनाने से मर्यादा कैसे भंग होगी! मातृदेवी की सहस्रों निर्वसना प्रतिमाओं का निर्माण कर चुका हूँ मैं अब तक। क्या उससे मातृदेवी की मर्यादा भंग हो गयी ?’
– ‘मातृदेवी को लोग अलग दृष्टि से देखते हैं। मैं साधारण नारी हूँ, मुझे देखने के लिये समाज के पास अलग दृष्टि है। तुमने तुच्छ स्वार्थ के लिये मेरा अपमान किया है।’
– ‘मैंने यह प्रतिमा समाज की उन्नति के उद्देश्य से बनाई है। किसी व्यक्तिगत लाभ के विचार से नहीं।’
– ‘किंतु क्या तुम बिना अनुमति प्राप्त किये किसी स्त्री की निर्वसन प्रतिमा बना दोगे ?’
– ‘किसी स्त्री की नहीं केवल पशुपति महालय की नृत्यांगना रोमा की। जो कला की अधिष्ठात्री देवी हैं और पूरे समाज को उनकी कला की प्रशंसा करने का अधिकार प्राप्त है।’
– ‘क्यों ? क्या महालय की नृत्यांगना होने भर से मेरे वे समस्त अधिकार नष्ट हो गये जो एक सामान्य सैंधव नारी को प्राप्त हैं ?’ क्रोध और क्षोभ से आँखें भर आईं रोमा की।
वह तो स्वयं ही इस प्रथा के विरुद्ध थी कि वार्षिकोत्सव में प्रमुख नृत्यांगना निर्वसना होकर नृत्य करे किंतु पुजारी किलात का आदेश था कि यह नृत्य रोमा नहीं मातृदेवी द्वारा किया जायेगा और वह भी पशुपति की प्रसन्नता के लिये। इस लिये नृत्यांगना को मातृदेवी के वेश में ही नृत्य करना होगा। पीढ़ियों से यही होता आया है। एक ही दिन की तो बात है इसलिये जैसे-तैसे निभा लेती है रोमा किंतु उसकी निर्वसन देह का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन होगा ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था। इस प्रदर्शन के बाद क्या अंतर रह गया था पशुपति महालय की प्रमुख नृत्यांगना और पुर की साधारण गणिकाओं में!
– ‘इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया देवी! अनजाने में हो गये इस अपराध के लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ, देवी रोमा से भी और स्वामी किलात से भी।’
– ‘केवल क्षमा मांगने भर से कुछ नहीं होगा। इसका दण्ड भोगना होगा युवक।’ रोमा का क्रोध अभी ठण्डा नहीं हुआ था।
– ‘मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ देवी। आप जो दण्ड देंगी मैं उसे शिरोधार्य करूंगा।’
– ‘दण्ड देने का अधिकार मुझे नहीं स्वामी को है।’ रोमा की आँखों से आँसू टपक पड़े।
– ‘तुम्हें इसी समय मोहेन-जो-दड़ो छोड़ने के आदेश दिये जाते हैं।’ जाने कैसे बिना सोचे-समझे किलात ने दण्ड सुना दिया। सिहर कर रह गया प्रतनु मानो प्रचण्ड शीत का प्रहार हुआ हो। इतना कठोर दण्ड! सैंधव सभ्यता के अद्भुत शिल्पी प्रतनु का ऐसा घनघोर अपमान! कहाँ तो वह देवी रोमा की प्रतिमा का निर्माण करके देश और काल की सीमाओं को लांघकर भविष्य के द्वार खटखटाने का स्वप्न संजोये हुए था और कहाँ वह वर्तमान द्वारा ठुकराया जा रहा था!
आघात रोमा को भी हुआ। यह कैसा दण्ड है! ऐसा तो नहीं चाहा था रोमा ने! समझ नहीं पा रही थी वह कि कैसे परिष्कार करे इस दण्ड का।
– ‘क्या मैं भविष्य में कभी भी मोहेन-जो-दड़ो में प्रवेश नहीं कर सकूंगा ?’ अपने आवेश पर नियंत्रण रखने का यथाशक्ति प्रयास करते हुए प्रतनु ने प्रश्न किया। वह प्रश्न किलात से कर रहा था किंतु देख रोमा की ओर रहा था।
जाने क्या था प्रतनु की दृष्टि में कि रोमा को अपना हृदय विदीर्ण होकर बिखरता हुआ सा प्रतीत हुआ। क्षण भर में ही उसके चिंतन-प्रवाह की दिशा बदल गयी। क्यों उसने इस निर्दोष शिल्पी के विरुद्ध अभियोग प्रस्तुत किया किलात के समक्ष ? इससे श्रेष्ठ तो यह होता कि वह स्वयं ही निबट लेती अनजाने पुर से आये इस युवा और अद्भुत शिल्पी से। क्यों भूल गयी रोमा उस क्षण कि किलात की दृष्टि में खोट है ? जिसकी अपनी दृष्टि में खोट हो वह रोमा को क्या न्याय दे सकता है! वह तो स्वयं भोगना चाहता है रोमा को। क्यों भूल गयी वह कि इस युवा शिल्पी के रूप में रोमा को विश्वस्त सहायक मिल सकता था जो किलात से रोमा की रक्षा करता!
शर प्रत्यंचा का आघात पाकर छूट चुका था। उसे लौटाया नहीं जा सकता था। अपने ही बनाये जाल में फंस गयी रोमा। यदि वह किलात से शिल्पी प्रतनु के लिये क्षमा दान की याचना करती है तो किलात उलट कर रोमा पर आरोप लगायेगा कि रोमा ने ही अपनी निर्वसना प्रतिमा बनवाकर मोहेन-जो-दड़ो के मुख्य चैराहे पर लगवाई ताकि वह प्रसिद्धि प्राप्त कर सके। महालय की नृत्यांगना होने के उपरांत भी उसका यह कम गणिकाओं द्वारा किये जाने योग्य कर्म की श्रेणी में आता था। महालय के नियम भंग करने का अर्थ था जीवन भर अंधेरे कक्ष में कैद। अभी तक तो वह जैसे तैसे अपने शील की रक्षा करती आयी है किंतु नगर वासियों की दृष्टि से दूर अंधेरे कक्ष में बंद रोमा को भोगने से किलात को कौन रोक सकेगा! किसी को पता भी नहीं चलेगा कि महालय के किस अंधेरे कूप अथवा कक्ष में पड़ी रोमा किस प्रकार सड़ रही है!
किलात का इष्ट तो बिना कुछ किये ही सध जायेगा। नगर जनों की आंखों से ओझल रोमा के साथ किलात क्या कुछ नहीं करेगा! अब तक अतृप्त रहीं उसकी समस्त पिपासायें शांत करने में फिर कौन बाधक हो सकेगा ? रोमा ने देखा किलात और प्रतनु दोनों ही उसकी ओर ताक रहे हैं।
– ‘युवक के प्रश्न का उत्तर दो रोमा!’ किलात ने टोका उसे।
– ‘किस प्रश्न का स्वामी ?’
– ‘क्या यह अब कभी मोहेन-जो-दड़ो में प्रवेश नहीं कर सकेगा ?’
– ‘न्याय आपने किया है स्वामी! दण्ड की अवधि भी आपको ही निर्धारित करनी है।’
– ‘मेरा मत है कि सैंधव होने के कारण और इसके वंश का मोहेन-जो-दड़ो से प्राचीन सम्बन्ध होने के कारण शिल्पी प्रतनु को सदैव के लिये नगर से निष्कासित नहीं किया जाना चाहिये। दो वर्ष का निर्वासन पर्याप्त है। इस बीच वह सप्त सिंधुओं के पवित्र जल में स्नान करके अपने दुष्कर्म का प्रायश्चित कर सकता है। प्रतनु चाहे तो वह आज अथवा कल नगर छोड़कर प्रस्थान कर सकता है।’
दो वर्ष! यह भी कोई कम समय नहीं होता! रोमा को लगा कि सदैव के लिये निष्कासित करना और दो वर्ष के लिये निष्कासित करना एक ही बात है। एक बार नगर से निष्कासित एवं प्रताड़ित शिल्पी मोहेन-जो-दड़ो छोड़ कर गया तो फिर लौट कर नहीं आयेगा।
शिल्पी प्रतनु की आंखें अपमान, क्रोध और क्षोभ की ज्वाला में धधकती हुई सी प्रतीत हुईं रोमा को। रोमा में उन आंखों का सामना करने का साहस नहीं रहा। उसने सिर झुका लिया। प्रतनु ने जानुओं पर बैठ कर किलात का अभिवादन किया और कक्ष से बाहर हो गया। रोमा ने चाहा कि वह दौड़ कर शिल्पी के पांवों से लिपट जाये और उसे नगर छोड़कर न जाने के लिये कहे किंतु वह न कुछ कहने की स्थिति में थी न कुछ करने की।
शिल्पी प्रतनु के जाने के बाद रोमा ने भी किलात का अभिवादन किया और अपने कक्ष की ओर चल पड़ी। उसने लगभग दौड़ते हुए अपने कक्ष तक का मार्ग पार किया। कक्ष में पहुँच कर रोमा ने अपनी वृद्धा परिचारिका को बुलाकर कहा कि महालय से बाहर जा रहे लम्बे युवक का पीछा करे, जो है तो द्रविड़ किंतु असुर जैसा दिखाई देता है। उसने कानों में बड़े कुण्डल पहन रखे हैं। दासी चुपचाप पता लगाये कि वह किस भवन में निवास कर रहा है और बिना कोई समय खोये तुरंत लौट कर सूचना दे।
वृद्धा दासी वश्ती ने जीवन के कई वसंत देखे थे। वह रोमा की माँ अलोला की भी प्रमुख अनुचरी थी। रोमा को उसने गोदी में खिलाया था, इसलिये वह रोमा पर पुत्रीवत् ही स्नेह रखती थी। पशुपति महालयों की नृत्यांगनाओं की दुर्दशा की जितनी जानकारी उसे थी उतनी तो स्वयं नृत्यांगनाओं को भी न थी। उसकी आंखों से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता था। उसने महालय के उन समस्त अंधकूपों को देखा था जिसमें अवज्ञाकारिणी नृत्यांगनायें अपने जीवन की अंतिम श्वांसें गिनती थीं। वश्ती को ज्ञात था कि किलात रोमा पर आसक्त है किंतु रोमा इस विषय पर किलात की निरंतर उपेक्षा करके अपने लिये संकट उत्पन्न करती रही है। नगर में आज प्रातः घटित घटनाओं से भी वह भली भांति परिचित है। दासी ने तुरंत अनुमान कर लिया कि असुरों के समान दिखाई देने वाले जिस अपरिचित सैंधव युवक के पीछे उसे भेजा जा रहा है, उसका सम्बन्ध आज की घटनाओं से होना चाहिये।
महालय से अधिक दूर नहीं जाना पड़ा दासी को। असुरों की तरह लम्बे डग भरता हुआ क्षीणकाय सैंधव युवक उसे मुख्य वीथि में ही दिखाई पड़ गया। युवक का चेहरा बता रहा था कि महालय में उसके और किलात के बीच प्रिय संवाद नहीं हुए हैं। वश्ती ने युवक से कोई संवाद नहीं किया। केवल उसके पीछे चलती रही और तब तक चलती रही जब तक कि वह युवक एक आवास में प्रवेश नहीं कर गया। जब काफी देर तक युवक पुनः उस आवास से बाहर नहीं निकला तो वश्ती को विश्वास हो गया कि युवक इसी भवन में अपना डेरा जमाये हुए है। वश्ती पुनः महालय की ओर लौट पड़ी।
वश्ती ने लौट कर रोमा को सूचित किया कि शिल्पी प्रतनु महालय के पृष्ठ भाग की संकुचित वीथी में ही एक सैंधव सद्गृहस्थ का अतिथि है। रोमा ने क्षण भर विचार किया और फिर से वृद्धा वश्ती को दौड़ा दिया प्रतनु के निवास तक -‘ माता वश्ती! मैंने कभी तुम्हें कष्ट नहीं दिया किंतु आज दे रही हूँ। तुम्हें एक बार फिर वहाँ तक जाना होगा। तुम जाकर शिल्पी प्रतनु से कहो कि वह आज मोहेन-जो-दड़ो छोड़कर न जाये। आज रात मेरी प्रतीक्षा करे। मैं स्वयं उससे मिलने आऊंगी।’
वश्ती बचपन से रोमा की सेवा करती आई है। आज से पहले उसने रोमा को इतना व्यथित, इतना उद्वेलित कभी नहीं देखा था। अवश्य ही कहीं कोई गंभीर बात हुई है। क्या उस अपरिचित युवक पर कोई विपदा आ गयी है! दासी ने सोचा कि रोमा से कुछ पूछे किंतु प्रश्न पूछ कर रोमा के कष्ट को बढ़ाना उचित न जानकर वह चुपचाप प्रतनु के निवास की ओर चल पड़ी।