Monday, December 23, 2024
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66. चित्रकूट की एक शाम

वे तीनों असाधारण रूप से चुप थे और बड़ी देर से बिना कुछ बोले अपने कीमती और ऊँचे घोड़ों को मंथर गति से मंदाकिनी के किनारे-किनारे चलाये ले जा रहे थे। वनावली के सघन होने पर भी मार्ग बिल्कुल साफ था किंतु ऐसा लगता था कि नदी और अश्व अपनी-अपनी गति को एक दूसरे के अनुरूप बना कर गतिमान हो रहे थे। मंदाकिनी के निर्मल जल में किल्लोल करने वाली मछलियाँ और तट की बालुका पर चलने वाले अश्व एक दूसरे को भलीभांति देख सकते थे।

वस्त्र एवं शस्त्र सज्जा से वे तीनों ही कोई उच्च राजपुरुष प्रतीत होते थे। तीनों के सिर पर मुगलिया राजशाही की प्रतीक एक जैसी पगड़ियाँ सुशोभित थीं जिनपर मूल्यवान मोहर और कलंगी जड़ी थी। तीनों राजपुरुषों की कमर में बड़ी-बड़ी तलवारें लटकी रही थीं जिनकी मूठों पर बहुमूल्य रत्न जड़े थे। उनकी पीठों पर सावधानी से बंधी ढालों में भी कीमती रत्नों की भरमार थी जिससे वे युद्ध में काम आने वाली वस्तु के स्थान पर सजावट की वस्तु अधिक प्रतीत होती थीं। इस साम्य के अतिरिक्त उन तीनों घुड़सवारों की शेष वेषभूषा आपस में मेल नहीं खाती थी।

सबसे आगे चल रहा घुड़सवार कतिपय स्थूल और वर्तुलाकाय देह का स्वामी था। उसकी वय भी उसके साथियों में सर्वाधिक थी। वह प्रौढ़ावस्था को पार करके वानप्रस्थावस्था में प्रवेश करने को तैयार प्रतीत होता था। उसके माथे का गोल तिलक और देह के रेशमी वस्त्र उसके राजपुरुष होने की घोषणा तो करते थे किंतु चेहरे मोहरे से वह वह राजपुरुष न होकर कोई बड़ा सेठ साहूकर अधिक प्रतीत होता था। दूसरा घुड़सवार किसी प्रौढ़ वयस हिंदू नरेश जैसा दिखायी देता था। उसके माथे पर केसर-कुमकुम से शैव पद्धति का बड़ा सा तिलक अत्यंत सावधानी पूर्वक अंकित किया गया था जिसके मध्य में भस्म की क्षीण रेखा भी सुशोभित थी। तीसरा घुड़सवार लगभग पच्चीस वर्ष का कड़ियल जवान था। उसने मुगलिया नवाब की वेषभूषा धारण कर रखी थी। उसकी तीखी ठुड्डी और उस पर तरतीब से तराशी गयी तीखी दाढ़ी उसके तुर्क होने की परिचायक थी। उसकी छोटी और सतर्क आँखों से दर्प टपका ही पड़ता था जिसे सहन कर पाना हर किसी के वश का नहीं था।

ये तीनों घुड़सवार आपस में घनिष्ठ मित्र थे और आज बहुत दिनों बाद साथ-साथ किसी ऐसी लम्बी यात्रा पर निकले थे जो किसी युद्ध के प्रयोजन से नहीं की जा रही थी। प्रयाग से सरैयों और उससे आगे सोनेपुर तक तो वे आपस में खूब बतियाते आये थे किंतु जैसे ही सरौही से कामदगिरि के दर्शन होने प्रारंभ हुए, तीनों ही मित्र असाधारण रूप से चुप हो गये थे तथा उनके घोड़ों की गति भी असाधारण रूप से धीमी हो गयी थी।

सूर्यदेव पश्चिम की ओर झुक चले थे किंतु संध्या होने में अभी विलम्ब था। ये तीनों मित्र प्राकृतिक वनावली, मंदाकिनी के सानिध्य और कामद गिरि के दर्शनों का लाभ लेते हुए अंततः रामघाट पहुँच गये। यहाँ से वे अपने अश्वों से उतर पड़े। उन्होंने अपने अश्व मंदाकिनी के तट पर स्थित वृक्षों से बांध दिये और स्वयं नदी की रेती में उतर पड़े। अब उनका लक्ष्य सामने दिखायी देने वाली एक छोटी सी कुटिया थी जिसके बाहर तुलसी की झाड़ियां बहुतायत से विद्यमान थीं। इन झाड़ियों के चारों ओर नदी के वर्तुल प्रस्तरों से कलात्मक घेरे बने हुए थे।

इन तीनों को अपनी ओर आता हुआ देखकर कुटिया में से एक प्रौढ़ वयस सन्यासी इनकी अगवानी के लिये बाहर आया। दोनों प्रौढ़ वयस राजपुरुष सन्यासी के पैरों में गिर पड़े। युवा खान अपरिचय के संकोच के कारण एक ओर खड़ा रहा।

सन्यासी ने दोनों राजपुरुषों को उठा कर हृदय से लगाते हुए कहा- ‘राजा टोडरमल! राजा मानसिंह! आप दोनों राजपुरुषों का इस अकिंचन की कुटिया में स्वागत है।’

– ‘गुसांईजी महाराज! रघुनाथजी ने हम पर बड़ी कृपा कीन्ही सो आपके दर्शन सुलभ हुए।’ राजा टोडरमल ने हाथ जोड़कर सन्यासी की अभ्यर्थना करते हुए कहा।

– ‘रघुनाथजी के मन की दया को कौन जान सकता है! मुझे तो लगता है उन्होंने इस अकिंचन तुलसीदास पर कृपा करके आप जैसे दुर्लभ राजपुरुषों के दर्शन चित्रकूट में ही सुलभ करवा दिये। यह तो बताईये कि ये युवा सिपहसलार कौन हैं?’

– ‘ये खानखाना बैरामखाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम हैं। आप बादशाह अकब्बर के मीर अर्ज हैं तथा शहजादे सलीम के शिक्षक भी। ये बहुत दिनों से आपसे मिलने को उत्सुक थे। आपके ही अनुरोध पर आज हम यहाँ आपके श्री चरणों में उपस्थित हो सके हैं।’

– ‘बहुत अच्छी बात की जो आप लोग इन्हें भी अपने साथ ले आये किंतु यह तो पता लगे कि ये मुझे कैसे जानते हैं और मुझसे क्यों भेंट किया चाहते हैं।’

अब्दुर्रहीम ने किसी तरह हिम्मत जुटा कर कहा-

‘ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।

अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ।’

खान के मुँह से इतना सुंदर दोहा सुनकर गुसांईंजी प्रसन्न हुए। उन्होंने हँस कर कहा-

‘उमा दारु जोषित की नाईं।

सबहि नचावत राम गुसाईं।।’ 

खान गुसांईंजी के पैरों में गिर पड़ा। उसने कहा-

‘जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।

जल में जो छाया परी, काया भीजत नाहिं।’ 

गुसांईंजी ने भाव विभोर होकर खान को धरती से उठाते हुए कहा-

‘तुलसी काया खेत है, मनसा भये किसान।

पाप पुण्य दोऊ बीज हैं, बुवै सो लुणे निदान।’

गुसांईजी की महती कृपा देखकर रहीम ने विह्वल होकर कहा-

 ‘तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।

 जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।।”

गुसांईंजी ने रहीम को हृदय से लगा लिया तथा उसे अपने पास नारियल के पत्तों की चटाई पर बैठाते हुए कहा- ‘और सुनाओ। कुछ ऐसा सुनाओ कि कानों को और सुख मिले।’

  – ‘गुसांईंजी! मेरी ऐसी सामर्थ्य नहीं।’ खान ने सहम कर कहा।

  – ‘खानजू!’ गुसांईंजी के नेत्रों में जल भर आया।

गुसांईंजी की ऐसी विह्वलता देखकर रहीम गाने लगा-

”भज  मन  राम सियापति, रघुकुल ईस।

दीनबंधु,   दुख   टारन,   कौसलधीस।

भर नरहरि,  नारायन,  तजि  बकवाद।

प्रगटि  खंभ ते राख्यो  जिन   प्रहलाद।

गोरज  धन  बिच  राखत,  श्री ब्रजचंद।

तिय दामिनि जिमि हेरत, प्रभा  अमंद।।” [1]

गाते-गाते रहीम के नेत्रों से जलधार बह निकली। गुसांईंजी के शरीर में भी रोमांच हो आया। उनकी रोमावली खड़ी हो गयी और आँखों के कोये आंसुओं से भीग गये। वे भी गाने लगे-

”राम राम रटु,  राम राम रटु,  राम  राम जपु जीहा।

राम नाम नवनेह मेह  को,  मन!  हठि  होहि  पपीहा।

सब साधन फल कूप सरित सर, सागर सलिल निरासा।

राम नाम रति स्वाति सुधा  सुभ  सीकर  प्रेम पियासा।”

गुसाईंजी चुप हुए तो रहीम ने गाया-

”तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारू चकोर।

 निसि बासर लागो रहै, कृष्णचंद की ओर।।”

युगों-युगों से प्यासे चातक बहुत देर तक रघुनाथ कीर्तन का रसपान करते रहे। प्रौढ़ वयस राजपुरुष इस अद्भुत मिलन को देखकर रोमांचित थे। उन्हें इस बात का अनुमान तो था कि रहीम उत्कृष्ट कवि है किंतु वह इस उच्च कोटि का कृष्ण भक्त है, इसका ज्ञान उन्हें आज ही हुआ।

बहुत देर तक कुटिया में आनंद रस बरसता रहा। पत्तियों के छिद्रों में से झांकते हुए सूर्यदेव अपनी गति भूल कर आकाश में थम ही गये। अचानक उन्हें अपनी स्थिति का ज्ञान हुआ तो वे हड़बड़ा कर कामदगिरि की खोह में विश्राम करने के लिये प्रस्थान कर गये। सूर्य देव की इस हड़बड़ाहट के कारण अचानक ही अंधेरा हो गया। ठीक उसी समय शिष्यों ने आकर निवेदन किया- ‘अतिथियों के लिये भोजन तैयार है।’


[1] खानखाना कृत।

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