माना जाता है कि शिवाजी के पूर्वज मेवाड़ के महाराणाओं के वंश में से निकले थे। राजकुमार सज्जनसिंह अथवा सुजानसिंह उनका पूर्वज था।
ई.1303 में अल्लाऊद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग तोड़ा और रावल रत्नसिंह को मार डाला। उसकी मृत्यु के साथ ही मेवाड़ के गुहिलों की रावल शाखा का अंत हो गया। तब बहुत से राजपूत परिवार चित्तौड़ दुर्ग छोड़कर देश के अन्य भागों में चले गए। तब गुहिल वंश का एक क्षत्रिय राजकुमार सज्जनसिंह अथवा सुजानसिंह चित्तौड़ छोड़कर दक्षिण भारत को चला आया तथा अपने परिवार के साथ यहीं रहने लगा। दक्षिण भारत में ही उसका निधन हुआ। यही सज्जनसिंह अथवा सुजानसिंह शिवाजी के मराठी पूर्वजों में पहला था।
सज्जनसिंह अथवा सुजानसिंह के कुछ वंशज खेती-बाड़ी करके उदरपूर्ति करने लगे तथा कुछ वंशज, दक्षिण के शासकों के लिए लड़ाइयां लड़ते हुए अपनी आजीविका अर्जित करने लगे। सज्जनसिंह की पांचवी पीढ़ी में अग्रसेन नामक एक वीर पुरुष हुआ जिसके दो पुत्र- कर्णसिंह तथा शुभकृष्ण हुए। कर्णसिंह के पुत्र भीमसिंह को बहमनी राज्य के सुल्तान ने राजा घोरपड़े की उपाधि एवं मुधौल में 84 गांवों की जागीर प्रदान की।
इस कारण भीमसिंह के वंशज घोरपड़े कहलाए। दूसरे पुत्र शुभकृष्ण के वंशज भौंसले कहलाए। इस प्रकार शिवाजी के पूर्वज घोरपड़े एवं भौंसले दो शाखाओं में बंट गए।
शुभकृष्ण का पौत्र बापूजी भौंसले हुआ। बापूजी भौंसले का परिवार बेरूल (एलोरा) गांव में काश्तकारी एवं पटेली का काम करता था। पटेल का काम कृषकों से भूमि का लगान वसूल करके उसे शाही खजाने में जमा करवाने का होता था। इन लोगों को महाराष्ट्र में पाटिल भी कहते थे। बापूजी भौंसले ई.1597 में वैकुण्ठवासी हुआ।
बापूजी भौंसले के दो पुत्र थे जिनके नाम मालोजी और बिठोजी थे। शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने के कारण इन दोनों भाइयों ने सिन्दखेड़ के सामन्त लुकाजी यादव अथवा जाधवराय के यहाँ सैनिक की नौकरी प्राप्त कर ली। जाधवराय, अहमदनगर के बादशाह निजामशाह की सेवा में था तथा निजाम से उसका बहुत नैकट्य भी था। कुछ दिनों बाद मालोजी एवं बिठोजी को जाधवराय के महल का मुख्य रक्षक नियुक्त किया गया।
जाधवराय का परिहास
मालोजी का विवाह पल्टनपुर के देशमुख बंगोजी अथवा जगपाल राव नायक निम्बालकर की बहिन दीपाबाई से हुआ। मालोजी को लम्बे समय तक कोई संतान प्राप्ति नहीं हुई। अंत में एक मुस्लिम फकीर के आशीर्वाद से ई.1594 में मालोजी के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। फकीर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उस बालक का नाम शाहजी रखा गया। शाहजी अत्यंत रूपवान एवं प्रभावशाली चेहरे का बालक था।
कुछ समय पश्चात् मालोजी को एक और पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम शरीफजी रखा गया। एक बार होली के त्यौहार पर मालोजी अपने बड़े पुत्र शाहजी को जाधवराय के महल में ले गया। वहाँ जाधवराय के बहुत से सामंत-सरदार एवं मित्र आए हुए थे। जाधवराय ने रूपवान बालक शाहजी को बड़े प्रेम से अपने पास बैठाया।
वहीं पर जाधवराय की पुत्री जीजाबाई बैठी हुई थी। जब सब लोग होली खेल रहे थे, तब इन दोनों बालकों ने भी एक दूसरे पर रंग डाला। इसे देखकर अचानक जाधवराय के मुख से निकला कि कितनी सुंदर जोड़ी है। उसने अपनी पुत्री जीजा से पूछा कि क्या तुम इस लड़के से विवाह करोगी?
इतना सुनते ही मालोजी उत्साह से भर गया और खड़े होकर बोला, सुना आप सबने, जाधवराय ने अपनी पुत्री का सम्बन्ध मेरे पुत्र से कर दिया है। जाधवराय तो बच्चों से परिहास मात्र कर रहा था। अतः मालोजी का यह दुःसाहस देखकर क्रोधित हो गया और तुरन्त प्रतिकार करते हुए मालोजी और बिठोजी को अपनी सेवा से च्युत कर दिया।
मालोजी का उत्कर्ष
मालोजी एवं बिठूजी, दोनों भाई वहाँ से उठ गए और अगले ही दिन सिन्दखेड़ छोड़कर अपने पैतृक गांव चले गए। वहाँ वे फिर से खेतीबाड़ी करने लगे। एक दिन मालोजी को कहीं से अचानक प्रचुर खजाना हाथ लगा। उस धन से उसने एक हजार सैनिकों की वेतन-भोगी सेना तैयार की और अहमदनगर के शासक निजामशाह की सेवा में भर्ती हो गया।
शाहजी का संघर्ष एवं उत्कर्ष
ई.1619 में मालोजी का निधन हो गया और उसकी समस्त जागीरें शाहजी को प्राप्त हो गईं। शाहजी ने अपने चचेरे भाइयों के साथ मिलकर अहमदनगर के निजाम के लिए, मुगलों के विरुद्ध कई युद्ध लड़े और जीते। ई.1624 में खुर्रम 1,20,000 सैनिक लेकर अहमदनगर पर चढ़ आया। बीजापुर का आदिलशाह भी 80,000 सैनिक लेकर खुर्रम की सहायता करने आया।
ये दोनों सेनाएं मेहकार नदी के तट पर शिविर लगाकर बैठ गईं। इस समय अहमदनगर के पास केवल 20 हजार सैनिक थे जिनमें से 10 हजार सैनिक नगर की सुरक्षा के लिए लगाए गए और 10 हजार सैनिक मुगलों से लड़ने के लिए शाहजी को दिए गए। शाहजी के 10 हजार सैनिक मुगलों का कुछ भी नहीं कर सकते थे।
फिर भी शाहजी ने नदी भटवाड़ी के निकट अपना शिविर लगाया। एक रात जब काफी तेज बरसात हुई तो शाहजी ने नदी पर बने विशाल बांध में छेद करवा दिए। बांध टूट गया तथा उसका पानी तेजी से बहता हुआ मुगलों और बीजापुर की सेना की तरफ आया। इस कारण मुगलों के शिविर में बाढ़ आ गई। शाहजी अपने सैनिकों के साथ तैयार था।
वह बिजली बनकर शत्रुओं पर टूट पड़ा। बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गए। शाहजी ने मुगलों के पांच बड़े सेनापतियों को जीवित ही पकड़ लिया। इस प्रकार भटवाड़ी के युद्ध में मिली विजय के बाद शाहजी का कद भारत की राजनीति में बहुत बड़ा हो गया। अहमदनगर की ओर से उसे पूना और सूपा की जागीरें प्राप्त हुईं।
शाहजी का बीजापुर की सेवा में जाना
मुगलों की सेवा त्यागने के बाद से शाहजी भौंसले का जीवन भी बहुत कठिन हो गया। शाहजहाँ किसी भी तरह शाहजी को पुनः अपनी सेवा में लेना चाहता था क्योंकि अहमदनगर की वास्तविक शक्ति शाहजी ही था किंतु शाहजी ने मना कर दिया। शाहजहां ने निजाम के वजीर जहाँ खाँ को रिश्वत देकर अपनी तरफ कर लिया। जहाँ खाँ ने निजाम तथा उसके सम्पूर्ण परिवार की हत्या कर दी। यहाँ तक कि निजाम परिवार की दो गर्भवती महिलाओं को भी मार दिया।
शाहजी ने हार नहीं मानी, उसने मृतक निजाम के निकट सम्बन्धी के बालक मुर्तजा को अहमदनगर का निजाम घोषित कर दिया तथा मुगलों को कड़ी टक्कर देता हुआ, ”निजाम मुर्तजा” को लेकर एक के बाद दूसरे किले में भटकने लगा। ई.1635 में मिर्जा राजा जयसिंह ने शाहजी भौंसले के 3 हजार आदमी और 8 हजार बैल पकड़ लिए।
इन बैलों पर तोपखाना और बारूद लदा हुआ था। इस भारी जीत के उपलक्ष्य में जयसिंह को अपने राज्य जयपुर में लगभग दो वर्ष तक छुट्टियां मनाने की अनुमति मिली तथा मुगल सेनापति खानेजमाँ महाबत खाँ को शिवाजी के विरुद्ध लगाया गया। महाबतखाँ, शाहजी के विरुद्ध लड़ता हुआ पूरी तरह बर्बाद हो गया तथा ई.1634 में उसकी मृत्यु हो गई।
ई.1636 के आरम्भ में शाहजहाँ स्वयं सेना लेकर अहमदनगर के विरुद्ध लड़ाई करने आया। मुगल साम्राज्य की पूरी शक्ति शाहजी के विरुद्ध झौंक दी गई। शाहजहां ने बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर दबाव बनाकर, उनकी सेनाएं भी शाहजी के विरुद्ध लगा दीं। इस प्रकार शाहजी चारों ओर से घिर गया। अंत में उसके पास केवल पांच दुर्ग रह गए।
एक दिन मुगलों ने मुर्तजा को अगवा कर लिया। मुर्तजा का जीवन बचाने के लिए शाहजी को मुगलों से समझौता करना पड़ा। शाहजहाँ मुर्तजा को दिल्ली ले गया तथा अहमदनगर के निजामशाही राज्य को पूरी तरह समाप्त कर दिया। बीजापुर का शासक आदिलशाह, शाहजी की वीरता से बहुत प्रभावित था। उसने शाहजी के समक्ष प्रस्ताव भिजवाया कि शाहजी, बीजापुर की सेवा ग्रहण कर ले।
शाहजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शाहजहाँ से अनुमति लेकर आदिलशाह ने शाहजी को बीजापुर की सेवा में रख लिया। शाहजहाँ ने बीजापुर को यह अनुमति इस शर्त पर दी कि शाहजी की ओर जागीर नहीं दी जाए। शाहजी को बीजापुर राज्य की ओर से 92 हजार सवारों का सेनापति नियुक्त किया गया।
उसे कर्नाटक की तरफ एक बड़ी जागीर दी गई। पूना तथा सूपा भी की जागीरें भी पूर्ववत् उसके पास बनी रहीं। उन दिनों बीजापुर का सेनापति रनदुल्ला खाँ, विजयनगर साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर खड़े हुए छोटे-छोटे हिन्दू राज्यों को नष्ट कर रहा था। ई.1637-40 के बीच हुए इन अभियानों में शाहजी को रनदुल्ला खाँ का साथ देना पड़ा।
इन हिन्दू राज्यों को नष्ट-भ्रष्ट करके बीजापुर के शाह तथा सेनापति ने अकूत सम्पदा एकत्रित कर ली। इस सम्पदा से बीजापुर के शाह ने अपने लिए विशाल महलों का निर्माण करवाया। इनमें दाद महल एवं गोलगुम्बद भी सम्मिलित हैं। इन अभियानों में हिन्दू जनता पर भयानक अत्याचार किए गए जिन्हें देखकर शाहजी की आत्मा हा-हाकार करती थी।
कुछ समय पश्चात् शाहजी ने बीजापुर के शाह से ये क्षेत्र जागीर के रूप में अपने अधिकार में ले लिए ताकि हिन्दू प्रजा को मुस्लिम अत्याचारों से बचाया जा सके।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शिवाजी के पूर्वज बड़े प्रतापी थे। उन्होंने संकट काल में खेती का व्यवसाय अपनाया तथा धीरे-धीरे अपने क्षत्रिय कर्म में लौट आए। बाद में जब शिवाजी का उत्कर्ष चरम पर पहुंच गया तो बहुत से लोग शिवाजी के पूर्वज को उच्च कुल का मानने की बजाय हीन कुल का बताने लगे।