Thursday, November 21, 2024
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34. नृत्यांगना की घोषणा

मोहेन-जो-दड़ो के वातावरण में आज सनसनी है। पुरवासियों में इतनी सनसनी और इतनी उत्तेजना तो उस दिन भी नहीं थी जिस दिन देवी रोमा की निर्वसना प्रतिमा किसी अज्ञात शिल्पी ने नगर के मुख्यमार्ग पर लाकर रख दी थी। जिसने भी सुना अवसन्न रह गया। भला यह कैसे संभव है! ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ! कैसे देवी रोमा यह घोषणा कर सकती हैं कि वे चन्द्रवृषभ आयोजन में मातृदेवी के रूप में तभी उपस्थित हांेगी जब शिल्पी प्रतनु चन्द्रवृषभ के रूप में उपस्थित हो! कैसे संभव है यह! युगों-युगों से पशुपति महालय की मुख्य नृत्यांगना प्रजनक देव को प्रसन्न करने के लिये मातृदेवी बनकर नृत्य करती आयी है और पशुपति महालय के प्रधान पुजारी चन्द्रवृषभ बनकर मातृदेवी को गर्भवती बनाते आये हैं। फिर यह नयी रीत कैसी!

और यह शिल्पी प्रतनु! कौन है शिल्पी प्रतनु! जितने मुँह उतनी बातें! किसी ने कहा शिल्पी प्रतनु कालीबंगा के प्रख्यात शिल्पी वितनु का प्रपौत्र है। किसी ने कहा जिस शिल्पी ने दो वर्ष पहले मातृदेवी के वेश में नृत्यरत देवी रोमा की अद्भुत प्रतिमा बनाई थी, यह वही शिल्पी है। किसी ने कहा कि यह शिल्पी तो शर्करा के तट पर स्थित ऐलाना का सैंधव है जो प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में मातृदेवी की प्रतिमायें बनाकर पणियों को बेचा करता है। किसी ने कहा कि शिल्पी प्रतनु तो सैंधव है ही नहीं, वह तो असुर है।

सुनने वाले इन सब बातों को नकार देते हैं। एक बूढ़े सैंधव ने कहा- ‘अरे भई। तुम सब लोगों की तो मति मारी गयी है। कालीबंगा के जिस शिल्पी वितनु ने कुछ वर्ष मोहेन-जो-दड़ो में रहकर पशुपति तथा मातृदेवी की प्रतिमायें बनायीं थीं वह तो आर्यों के आक्रमण में कालीबंगा में ही मारा गया था। उसके परिवार का तो वर्षों से कुछ पता ही नहीं। उसके पुत्र और पौत्रों के बारे में भी तो कुछ सुनने में आता ?’

पशुपति महालय में काम करने वाली एक सैंधव वृद्धा ने कहा-‘ जाने मोहेन-जो-दड़ो निवासी कब सत्य संभाषण करना सीखेंगे! जिस शिल्पी ने देवी रोमा की निर्वसना प्रतिमा बनाई थी उसे तो स्वामी किलात ने राजधानी से निष्कासित कर दिया था। अब भला वह कैसे फिर से पुर में प्रवेश कर सकता है ?’

एक प्रौढ़ सैंधव जिसने शिल्पी प्रतनु की एक झलक देखी थी, दूसरे सैंधवों को चुनौती देता हुआ बोला- ‘अरे मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यह वही शिल्पी है जिसने दो वर्ष पहले देवी रोमा की प्रतिमा बनायी थी।’

  – ‘किंतु उस शिल्पी को तो स्वयं देवी रोमा ने ही स्वामी किलात के समक्ष अभियोग प्रस्तुत करके पुर से निष्कासित करवाया था। अब भला वे उसके साथ नृत्य करने की घोषणा क्यों करेंगी ? वह भी मातृदेवी के वेश में ?’

प्रौढ़ सैंधव निरुत्तर हो गया। सचमुच, इस बात का क्या अर्थ हो सकता है! यह तो संभव ही नहीं कि निष्कासन की अवधि में देवी रोमा और शिल्पी प्रतनु का कोई सम्पर्क रहा हो। फिर कैसे इन दोनों में मेल हो गया!

जहाँ पुरानी पीढ़ी देवी रोमा की घोषणा से चिंतित है वहीं सैंधव युवकों के रक्त में नवीन उत्साह का संचार हो गया है। वे तो स्वंय ही इस बात के पक्षधर नहीं थे कि बूढ़ा किलात चन्द्रवृषभ नृत्य करने का एकमात्र अधिकारी समझा जाये। क्यों नहीं यह अधिकार सैंधव युवकों को प्राप्त हो जाता! वर्षों तक प्रयास करने के बाद भी वे इस परम्परा को बदलने में सफल नहीं हो पाये थे किंतु अब स्वयं देवी रोमा ने ही अपनी ओर से घोषणा करके परम्परा को बदल डालने का निश्चय किया है, तो युवकों को लगा, एक अवरुद्ध मार्ग के खुलने का समय आ गया है। उन्होंने रोमा की घोषणा का समर्थन किया।

नगर से आ रही इन सूचनाओं से किलात की चिन्ता का पार नहीं है। उसे पुर में प्रचारित रोमा की घोषणा का पता चल गया है। उसे यह भी ज्ञात हो गया है कि बहुत से नागरिक रोमा की घोषणा का समर्थन कर रहे हैं, उनमें भी विशेषकर सैंधव युवाओं का कहना है कि चन्द्रवृषभ के वेश में हर बार महालय का प्रधान पुजारी ही क्यों उपस्थित हो! क्यों नही यह अवसर युवकों को भी मिले!

कुछ समझ नहीं पाता महान् किलात। क्यों नृत्यांगना रोमा स्वामी-द्रोह पर उतर आयी है! क्यों सैंधव युवक युगों से चली आ रही ‘धर्म-व्यवस्था’ को भंग करने पर उतारू हैं! क्यों एक क्षुद्र शिल्पी ने शर्करा के तट से आकर राजधानी के नागरिक जीवन में हलचल पैदा कर दी है! क्यों उसे अपनी किसी भी ‘क्यों’ का उत्तर नहीं मिल पाता!

किलात ने चाहा था कि वह चन्द्रवृषभ आयोजित होने के पश्चात शिल्पी की शक्ति के वास्तविक केन्द्र का पता लगाकर उससे निबट लेगा किंतु यह तो एक नयी समस्या खड़ी हो गयी। रोमा ने पूरे नगर में यह घोषणा करवा दी कि वह चन्द्रवृषभ आयोजन में तभी उपस्थित होगी जब चन्द्रवृषभ के वेश में किलात नहीं, शिल्पी प्रतनु होगा। अन्यथा वह नृत्य ही नहीं करेगी। किलात को लगा कि मोहेन-जो-दड़ो वासी भले ही पशुपति महालय के प्रमुख पुजारी किलात में कितनी ही श्रद्धा क्यों न रखते हों, वे देवी रोमा का नृत्य देखने की अभिलाषा नहीं त्याग सकते। इस कारण किलात देवी रोमा के स्थान पर किसी और देवदासी को मातृदेवी की भूमिका में नहीं उतार सकता।

क्या करे स्वामी किलात और क्या न करे ? कोई मार्ग नहीं सूझता। यदि वह शिल्पी प्रतनु को चन्द्रवृषभ के रूप में मातृदेवी के साथ नृत्य करने की स्वीकृति देता है तो अगले वर्ष से अन्य युवक भी चन्द्रवृषभ बनने का अधिकार मांगेगे। यदि वह रोमा की घोषणा को अस्वीकार कर देता है तो युवा सैंधव विद्रोह करने को उतारू हो जायेंगे।

क्या वह शिल्पीको ललकारे कि उसे पुरवासियों के समक्ष नृत्य करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी होगी! तभी उसे पशुपति महालय के वार्षिक आयोजन में मातृदेवी के साथ नृत्य करने दिया जायेगा। नहीं-नहीं! इससे तो एक तुच्छ शिल्पी को महान् किलात की समकक्षता करने का अवसर मिल जायेगा। सामान्य सैंधव भी सोचने लगेंगे कि महान् किलात को चुनौती दी जा सकती है! यदि नृत्यकला में कहीं युवा शिल्पी ही श्रेष्ठ नर्तक सिद्ध हुआ तो! फिर किलात किस प्रकार सैंधव सभ्यता का प्रमुख पुजारी बना रहा सकेगा! यदि नृत्यांगना और शिल्पी को धर्मद्रोह के अपराध में कारावास में डाल दिया जाये तो!

किलात को लगा कि नृत्यांगना को नहीं तो शिल्पी को तो बंदी बना लेना ही उचित है। यदि इसी समय वह नगर रक्षकों को शिल्पी के आवास पर भेज कर खोज करवाये तो अवश्य ही रोमा के आभूषण उसके निवास से मिल जायेंगे। किलात का अनुमान था कि रोमा ने मुख्य नृत्यांगनाओं द्वारा वर्षों से संचित समस्त आभूषण शिल्पी को दे दिये होंगे ताकि उन्हें पशुपति के समक्ष स्वर्णभार के रूप में अर्पित करके वह रोमा का प्रत्यर्पण करवा ले। वे आभूषण रोमा के तो नहीं हैं! वे महालय की सम्पत्ति हैं। कितना अच्छा हो कि ये आभूषण शिल्पी के निवास से प्राप्त किये जा सकें। सारी व्याधि स्वतः ही दूर हो जायेगी किंतु . . . . . किंतु यदि किलात का अनुमान मिथ्या निकला तो! किलात का आत्मविश्वास डगमगा गया। यदि रोमा के आभूषण शिल्पी प्रतनु के पास नहीं पाये गये तो!

तब तो नृत्यांगना रोमा और शिल्पी प्रतनु को अच्छा अवसर प्राप्त हो जायेगा। वे दोनों मिलकर पुरवासियों में मेरे विरुद्ध असंतोष फैलाने में सफल हो जायेंगे। फिर क्या किया जाये! अपने आप पर खीझ हो आती है उसे, क्यों अप्रिय क्षणों में वह अपने आप को इतना निर्बल पाता है! क्यों नहीं है उसे अपनी शक्तियों पर विश्वास! क्यों नहीं वह सामना कर सकता उसके संकेत मात्र पर नत्य करने वाली क्षुद्र नृत्यांगना और छैनी  चलाकर उदर पोषण करने वाले तुच्छ शिल्पी का! क्या सैंधव सभ्यता के महान् पुजारी सर्वशक्तिमान किलात में इतना ही बल है कि कोई भी सैंधव युवक किसी भी पुर से चला आये और उसकी समस्त सत्ता को ललकारने लगे!

क्रोध, खीझ और बेचैनी से मुक्ति पाना चाहता है किलात। वह इन सब बातों का अभ्यस्त नहीं। वह तो केवल संकेत भर करने का अभ्यस्त है। जब-जब जो-जो उसने चाहा तब-तब वो-वो उसे बिना मांगे ही मिल गया किंतु इस बार ऐसा क्यों नहीं है! महान् पुजारी है वह सैंधव सभ्यता का। महान् पुजारी! हुंह! ये हैं महान पुजारी धर्मात्मा किलात् जो अपनी असीम शक्तियों से सम्पूर्ण सैंधव सभ्यता का संरक्षण करते हैं। महाअसुर-वरुण तथा उनके दोनों नेत्र सूर्य और चन्द्र भी जिसकी आज्ञाओं का अनुसरण करते हैं ऐसे शक्तिशाली महान् किलात की यह दशा कि वह चाहे और उसे न मिले! उसके भीतर का आलोड़न तीव्र हो जाता है, क्या नहीं कर सकता वह! वह चाहे तो सप्त सिंधुओं में जल प्रवाहित हो और वह न चाहे तो सप्त सिंधु रेत की सरितायें बन कर रह जायें। वह चाहे तो मातृदेवी गर्भवती हो और वह न चाहे तो मातृदेवी गर्भवती न हो। वह चाहे तो रोमा नृत्य करे और वह न चाहे तो रोमा नृत्य न करे। वह चाहे ही क्यों कि रोमा नृत्य करे! प्रसन्नता से उछल ही पड़ा किलात। वह चाहे ही क्यों कि रोमा नृत्य करे! इतनी सी बात उसके मस्तिष्क में पहले क्यों नहीं आयी! केवल इतनी सी बात!

जिस रूप और कला के बल पर उस क्षुद्र नृत्यांगना को इतना अभिमान है कि वह महान् किलात को चुनौती दे सके, वह रूप और कला उसके पास रहें ही क्यों ? क्या किलात से विमुख रहकर वह रूपसम्पन्न और कलायुक्त रह सकती है ? नहीं, कदापि नहीं। उसे त्यागने होंगे रूप और नृत्य। समस्त अभिमान विगलित हो जायेगा उसका। फिर शिल्पी प्रतनु को भी उसकी इच्छा नहीं रह जायेगी। तब वह उन दोनों से एक-एक करके निबट लेगा किंतु . . . . फिर किंतु बीच में आ गया था।

क्यों आ जाता है यह किंतु बार-बार हर समाधान के बीच में! नहीं आने देगा इस किंतु को वह बीच में। फिर उलझ जाता है किलात। उसने तो रोमा का समर्पण चाहा था न कि उसका विनाश। नृत्यांगना को विनष्ट करने में उसकी विजय नहीं है। विजय उससे समर्पण करवाने और उसे भोगने में है। यह तभी संभव है जब उसकी रूप सम्पदा सुरक्षित रहे . . . किंतु उसकी कला! उसे तो नष्ट होना ही चाहिये। नृत्यांगना की शक्ति का वास्तविक केन्द्र उसकी कला में है न कि उसके सौंदर्य में।

ऐसा लगता था कि किलात किसी निर्णय पर पहुंच चुका था, वह भी बिना किसी ‘किंतु’ के। वह आघात करेगा नृत्यांगना की शक्ति के केन्द्र पर। अभिचार [1] का प्रयोग करेगा वह नृत्यांगना पर। शिल्पी द्वारा बनायी गयी वही प्रतिमा रोमा के लिये अभिशाप बन जायेगी जिसके बल पर वह सैंधव प्रजा में रहस्यमयी आकर्षण और कौतूहल का पात्र बना हुआ है। किलात की आँखों की चमक बढ़ती जा रही है। इससे तो एक साथ दो उद्देश्यों की प्राप्ति होगी। एक ओर तो नृत्यांगना शक्तिहीन होकर स्वयं ही किलात के चरणों में आ गिरेगी और दूसरी ओर शिल्पी प्रतनु स्वयं अपनी ही दृष्टि में अपराधी हो जायेगा। जिस कला पर उन दोनों को इतना अभिमान है, उसी कला के लिये पश्चाताप करेंगे वे।

किंचित् झटके से उठा किलात अपने स्थान से और नृत्यांगना रोमा की मातृदेवी के वेश में खड़ी प्रतिमा पर क्रूर दृष्टि डालता हुआ कक्ष से बाहर निकल गया। उसे इसी समय कई महत्वपूर्ण कार्य निबटाने थे।


[1] जादू-टोना, मैली विद्या।

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