दिल्ली का सुल्तान बनने के बाद नासिरुद्दीन को भी अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की तरह अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद से ही सल्तनत में तुर्की अमीरों का प्रभाव बहुत बढ़ गया था जो तुर्कान ए चिहालगानी अर्थात् चालीसा मण्डल के सदस्य थे। ये अमीर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं पारस्परिक ईर्ष्या से ग्रस्त रहने के कारण कई गुटों में विभक्त हो गए थे। प्रत्येक गुट दरबार में अपना प्राबल्य स्थापित करके सल्तनत के महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने गुट के अमीरों को नियुक्त करवाना चाहता था। इन्हीं अमीरों तथा सरदारों के षड्यन्त्रों एवं कुचक्रों के कारण एक के बाद एक करके सुल्तान मारे जा रहे थे।
अतः नासिरुद्दीन के लिये यह आवश्यक था कि वह तुर्कान ए चिहालगानी के सदस्यों पर कड़ा नियन्त्रण रखे और उनमें सुल्तान के प्रति स्वामिभक्ति एवं भय उत्पन्न करे, अन्यथा सुल्तान का अपना जीवन भी संकट में था। नासिरुद्दीन ने सुल्तान बनने के बाद पुराने अमीरों को तो उनके पद पर बने रहने दिया किंतु नये अमीरों की नियुक्ति नहीं की। तीन वर्ष तक वह अमीरों के कार्यों का निरीक्षण करता रहा। चूंकि वह नए अमीरों की नियुक्ति नहीं कर रहा था और पुराने अमीर मरते जा रहे थे, इसलिए नासिरुद्दीन थोड़ी-बहुत राहत की सांस ले सकता था।
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नासिरुद्दीन के सौभाग्य से उसे एक योग्य तुर्की गुलाम का साथ मिल गया। इस गुलाम का नाम बलबन था। वह भी नासिरुद्दीन के पिता इल्तुतमिश की भांति इल्बरी कबीले का तुर्क था और वह भी बचपन में बदमाशों द्वारा पकड़ कर गुलामों के व्यापारियों के हाथों बेच दिया गया था और वह भी बिकता हुआ भारत आ पहुंचा था क्योंकि उन दिनों भारत में ही तुर्की गुलाम अच्छी कीमत पर बिक रहे थे। पहले उसे एक ख्वाजा ने खरीदा और बाद में स्वयं सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया।
बलबन ने अपने मालिक सुल्तान इल्तुतमिश की जी-जान से सेवा की थी इसलिए इल्तुतमिश ने बलबन को चालीसा मण्डल का सदस्य बनाया था। बलबन ने सुल्तान नासिरुद्दीन के प्रति भी निष्ठा का प्रदर्शन किया था। इसलिए नासिरुद्दीन ने बलबन को अपना नायब अर्थात् प्रधानमंत्री बना दिया तथा कुछ दिनों बाद उसे अमीरों के कामकाज पर दृष्टि रखने के लिए चालीसा मण्डल का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।
बलबन की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर बहुत से अमीर उससे ईर्ष्या करने लगे। इन लोगों ने बलबन के विरुद्ध सुल्तान के कान भरने आरम्भ किये। जब सुल्तान को बलबन के विरुद्ध शिकायतें मिलने लगीं तो सुल्तान ने बलबन को राजधानी दिल्ली से निष्कासित कर दिया। बलबन ने सुल्तान की आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया तथा वह दिल्ली से बाहर चला गया।
सुल्तान द्वारा बलबन के स्थान पर जो नया नायब अर्थात् प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया वह अयोग्य निकला तथा शासन के कार्यों में सुल्तान का हाथ नहीं बंटा सका। जब बलबन की अनुपस्थिति में सल्तनत का काम बिगड़ने लगा तो कुछ दिनों बाद सुल्तान ने बलबन को पुनः उसके पद पर बहाल करके उसे फिर से दिल्ली बुला लिया।
इससे बलबन के विरोधियों को बड़ी निराशा हुई और वे फिर से बलबन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे। इन विद्रोहियों में रहैन, कुतुलुग खाँ, किशलू खाँ तथा जलालुद्दीन आदि अमीर प्रमुख थे। सुल्तान नासिरुद्दीन ने बलबन की सहायता से इन समस्त विद्रोहियों का दमन कर दिया।
पाठकों को स्मरण होगा कि पूर्ववर्ती सुल्तान अल्लाउद्दीन मसूदशाह ने अपने एक चाचा जलालुद्दीन को कन्नौज का गवर्नर नियुक्त किया था। जब नासिरुद्दीन सुल्तान बना तो उसने जलालुद्दीन को सम्भल तथा बदायूँ का गवर्नर बना दिया। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि जलालुद्दीन, बलबन की बढ़ती हुई शक्ति से सशंकित होकर बदायूँ से मुल्तान की ओर भाग गया और मंगोलों से जा मिला तथा दिल्ली की गद्दी पाने की चेष्टा करने लगा।
जलालुद्दीन नहीं जानता था कि वह भारत से भाग सकता था किंतु अपनी किस्मत से दूर नहीं भाग सकता था। उसकी किस्मत में लिखा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब जलालुद्दीन को इसी बलबन के अधीन सामंत बनकर रहना पड़ेगा! प्रकृति ने इल्तुतमिश के बेटों के भाग्य में ऐसी ही कयामत लिखी थी।
कुछ समय तक जलालुद्दीन मंगोलों के पास रहा किंतु ई.1255 में पुनः भारत लौट आया और अपने भाई नासिरुद्दीन के समक्ष उपस्थित हुआ। सुल्तान नासिरुद्दीन ने जलालुद्दीन को लाहौर का शासक बनाकर अपनी उदारता का परिचय दिया। इस घटना के बाद जलालुद्दीन ने कभी भी अपने भाई के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया।
पाठकों को स्मरण होगा कि इल्तुतमिश के एक जंवाई का नाम इज्जूद्दीन किशलू खाँ था। जब इल्तुतमिश के पुत्र बहरामशाह की हत्या हुई थी तब किशलू खाँ ने स्वयं को सुल्तान घोषित किया था किंतु अमीरों ने उसे सुल्तान स्वीकार नहीं किया था।
जब नासिरुद्दीन सुल्तान बना तो उसने अपने बहनोई किशलू खाँ को नागौर का गवर्नर नियुक्त किया। उस समय तो किशलू खाँ चुपचाप नागौर चला गया किंतु कुछ समय बाद किशलू खाँ ने बागी होकर मुल्तान तथा उच्च पर अधिकार कर लिया। इस पर सुल्तान नासिरुद्दीन स्वयं सेना लेकर वहाँ गया और उसने किशलू खाँ का बुरी तरह से दमन किया।
12 नवम्बर 1246 को सुल्तान नासिरुद्दीन ने पंजाब पर अपनी सत्ता की पुर्नस्थापना करने के उद्देश्य से बलबन के साथ पंजाब की ओर प्रस्थान किया। मार्च 1247 में उसने रावी नदी को पार किया। इसके बाद उसने बलबन को नमक की पहाड़ियों में भेज दिया जहाँ बलबन ने खोखरों तथा कबाइलियों से दण्ड वसूल किया। इसके बाद वह सिन्ध के किनारे पहुँचा जहाँ उसने नमक की पहाड़ी के राजा जयपाल को परास्त किया। 9 नवम्बर 1247 को सुल्तान नासिरुद्दीन, बलबन के साथ दिल्ली लौट आया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता