मोहेन-जो-दड़ो वासी एक बार फिर उत्तेजित हैं। इस बार युवकों की अपेक्षा बड़े बूढ़ों में अधिक बेचैनी है। देवी रोमा द्वारा प्रचारित घोषणा के एक दिन बाद स्वामी किलात ने भी पुर में आज्ञा प्रचारित की है कि पशुपति महालय के वार्षिक आयोजन में इस बार शिल्पी प्रतनु चन्द्रवृषभ बनकर मातृदेवी को गर्भवती बनायेंगे। क्षुब्ध हैं बड़े-बूढ़े, एक क्षुद्र युवक मातृदेवी को गर्भवती बनायेगा! केवल इसलिये कि देवदासी ऐसा चाहती है! क्या यह पातक नहीं है! कहाँ से लायेगा क्षुद्र शिल्पी इतनी शक्ति! मातृदेवी सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन करती है। क्या उसे गर्भवती करने का अनुष्ठान इतना सरल है! महान शक्तियों का पवित्र स्वामी ही मातृदेवी को गर्भवती बनाने की क्षमता रखता है।
बड़े-बूढ़ों की उत्तेजना निराशा का पर्यायवाची मात्र है, तभी तो वे अंत में यह कहकर मौन धारण कर लेते हैं कि किया क्या जा सकता है ? स्वयं स्वामी ने ही यह आज्ञा प्रचारित की है। संभवतः अपनी प्रसन्नता से नहीं, देवी रोमा के विचित्र हठ से रुष्ट होकर। एक अनिष्ट की आशंका घर कर गयी है पुरवासियों के मन में। अब क्या होगा! यदि मातृदेवी गर्भवती न हुई तो! जब वह महापराक्रमी चन्द्रवृषभ के वश में नहीं आती तो एक क्षुद्र शिल्पी से कैसे गर्भवती होना स्वीकार करेगी!
सप्त सिंधुओं के तटों पर स्थित सुदूर पुरों से आने वाले सैंधवों के शटक पिछले कुछ दिनों में बड़ी संख्या में मोहेन-जो-दड़ो में एकत्र हो गये हैं। उन्हें मोहेन-जो-दड़ो में घटित घटनाओं के सम्बन्ध में जानकारी नहीं है किंतु वे पुर के वातावरण में एक विचित्र सा अंतर अनुभव कर रहे हैं। कुछ बातें जन-सामान्य के वाग्विलास में से छन-छन कर अलग-अलग कलेवर में उन तक पहुँच रही हैं। सूचनाओं की इसी तलछट से एक आशंका उनके मन में भी समा गयी है कि कुछ अमंगल घटित हो सकता है।
जिस दिन स्वामी किलात की आज्ञा पुर में प्रचारित हुई उसी संध्या वरुण सिंधु तट पर प्रकट हुआ। वरुण इस बार कतिपय विलम्ब से आया था किंतु अपने शकटों में जाने कितना जल भरकर लाया था! रात्रि के अंतिम प्रहर तक वर्षा होती रही। वर्षा भी कैसी! अत्यंत वेगवती, अत्यंत विकराल! आरंभ में आकाश से जल की बड़ी-बड़ी बूंदे झरीं जो देखते ही देखते मोटी जल-धाराओं में बदल गयीं। सिंधु वासियों ने आश्चर्य से देखा आकाश से जल बूंदें नहीं, विशाल धारायें निकल कर धरती पर गिर रही हैं। लगता था आकाश मार्ग से सिंधु उतर आई है। नभ और थल तक केवल जल दिखाई देने लगा।
अत्यधिक वर्षा होने से, अन्य पुरों से आकर खुले आकाश के नीचे डेरा जमाये बैठे सैंधवों ने अतिथि शालाओं में शरण लेनी चाही किंतु वे तो पहले से ही पूरी तरह जन-पूरित थे। अतः बाहर से आये सैंधवों ने पुरवासियों से शरण देने का अनुरोध किया। उदार सैंधव नागरिकों ने अपने आवास अतिथियों के लिये खोल दिये। मध्य रात्रि में जलधाराओं का स्थान हिमखण्डों ने ले लिया। विकराल शीत से कंपकंपा उठा मोहेन-जोदड़ो।
यदि अंतिम प्रहर से कुछ पूर्व वर्षा थम न गयी होती तो वार्षिक आयोजन एक दिन के लिये स्थगित करना पड़ता। रात्रि भर वर्षा थमने की प्रतीक्षा में थके हुए नागरिक अतिथि सैंधवों के साथ अपने अलसाये नेत्रों को मसलते हुए, नगर के विशाल स्नानागारों में पवित्र होकर सूर्योदय से पूर्व सिंधु पूजन के लिये उपस्थित हुए।
जो भी सैंधव सिंधु तट पर पहुँचा, उसके आश्चर्य का पार न रहा। उन्होंने सिंधु को घनघोर गर्जन करते हुए पाया। ऐसा लगता था मानो कोई मादा सिंह क्षुब्ध होकर दहाड़ रही हो। वह भयानक वेग से प्रवाहित हो रही थी। उसी से घनघोर शब्द उत्पन्न हो-हो कर चारों दिशायें आप्लावित हो रही थीं। नक्षत्रों के क्षीण प्रकाश में सिंधु तट का दृश्य देखकर सैंधव समुदाय हतप्रभ रहा गया। आकाश को छू लेने वाली ऊँची तरंगों से आप्लावित सम्पूर्ण सिंधु तट विकराल रूप धारण कर चुका था। लगता था ये तरंगें अभी आगे बढ़कर पुर में प्रवेश कर जायेंगी और सब कुछ बहा ले जायेंगी। भयावह आशंका से सैंधवों के हृदय कांप गये। मातृदेवी ही जानें आज क्या होने को है! क्यों आज रुद्र कुपित होकर अपनी विकराल जटायें फैलाये मोहेन-जोदड़ो तक चला आया है!
किसी तरह धूप, दीप, पुष्प, और दिव्य वनस्पतियों से सिंधु माता का पूजन किया गया। माता सिंधु से सैंधवों की कुशलता और समृद्धि की प्रार्थनायें की गयीं और फिर शंका पूरित हृदयों से नदी में दीप प्रवाहित कर समस्त सैंधव पुनः पुर को लौट आये।
सूर्योदय की प्रथम किरण के साथ प्रधान महालय के विशाल ताम्र-घण्ट पर काष्ठ का आघात हुआ और महालयों में अभिषेक एवं पूजन अनुष्ठान आरंभ हुआ। सैंकड़ों घण्ट, घड़ियाल और शंख बज उठे। मोहेन-जो-दड़ो के समस्त महालयों में स्थापित देव-प्रतिमाओं को सप्त सिंधुओं के पवित्र जल से अभिषिक्त किया गया। मुख्य मातृदेवी-महालय एवं मुख्य पशुपति-महालय में स्थापित प्रतिमाओं को मधु, दुग्ध, फलों के रस एवं चन्दन आदि से चर्चित किया गया। समस्त देव प्रतिमाओं को पत्र, पुष्प और वनस्पतियों से सजाया गया, उन्हें नये शृंग धारण करवाये गये। देव प्रतिमाओं के सम्मुख यव, धान्य, इक्षु, फल, दुग्ध, मधु, आसव, पर्क एवं सुरा अर्पित किये गये। चारों दिशाओं से आती मंगल ध्वनियों के बीच सैंकड़ों पुजारियों ने समस्त दैवीय विधान, प्रजनन देवी और प्रजनक देव के अभिषेक, अनुष्ठान एवं पूजन सम्पन्न करवाये।
विविध पुरों से आये नर-नारी अपने साथ कई प्रकार के श्रेष्ठ पदार्थ मातृदेवी एवं पशुपति को अर्पित करने के लिये लाये थे। रात्रि की वर्षा में बहुत सी सामग्री भीग कर खराब हो गयी किंतु फिर भी जो उत्तम सामग्री बची थी वह भी इतनी विपुल मात्रा में थी कि उसी से मोहेन-जो-दड़ो के समस्त महालय भर गये। बहुत से नर-नारियों ने शरीर के वस्त्र, आभूषण और केश देवताओं को अर्पित किये। मंदिरों के बाहर शंख, कौड़ी, घोंघे, हस्तिदंत, मृत्तिका, शृंग, स्वर्ण, रजत, ताम्र एवं कांस्य आदि विविध सामग्री से निर्मित आभूषण, गोमेद, अमेजन तथा वैदूर्य के ढेर लग गये। विपुल सामग्री पुजारियों द्वारा नागरिकों में प्रसाद के रूप में वितरित कर दी गयी। मातृदेवी को चैड़े फल के खाण्डे से अज अर्पित किये गये। इस अनुष्ठान के पूरा होने तक दोपहर हो चली।
होने को तो समस्त अनुष्ठान वैसे ही हो रहे थे जैसे कि हर वर्ष हुआ करते थे किंतु आज किसी भी आयोजन में स्वामी किलात सम्मिलित नहीं हुए। वृद्ध सैंधवों ने आँखे फाड़-फाड़ कर देखा किंतु पशुपति महालय के प्रधान पुजारी किलात किसी भी अनुष्ठान में दिखायी नहीं दिये। समस्त अनुष्ठान महालय के अन्य पुजारी करवा रहे थे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। बूढ़ों ने इसका एक ही अर्थ लगाया कि स्वामी रुष्ट हैं। जब सैंधवों के संरक्षक, अदृश्य शक्तियों के स्वामी स्वयं महान किलात ही सैंधवों से रुष्ट हो जायें तो सैंधवों का रक्षण कौन करेगा! कहाँ हैं स्वामी किलात! यह प्रश्न सैंकड़ों वृद्ध सैंधवों ने सैंकड़ों अन्य वृद्ध सैंधवों से किया किंतु किसी के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था। अज्ञात अमंगल की आशंका वृद्ध हृदयों में व्याप्त हो गयी।