पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि चंद्रवंशी राजकुमार कुंती पुत्र अर्जुन ने गंधमादन पर्वत पर भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, यमराज, कुबेर एवं वरुण देव के दर्शन किए तथा उनसे दिव्य अस्त्र प्राप्त किए। इन देवताओं के जाने के बाद अर्जुन वहीं पर रुककर देवराज इन्द्र के सारथि मातलि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा।
महाभारत में आए वर्णन के अनुसार थोड़ी ही देर में मातलि दिव्य रथ लेकर उपस्थित हो गया। वह रथ इतना प्रकाशमान था कि उससे चारों दिशाएं भी प्रकाशित हो रही थीं। वह इतनी तेज ध्वनि कर रहा था कि चारों दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थीं।
रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, भाले, वज्र, पहियों वाली तोपें, वायुवेग से गोलियां फेंकने वाले यंत्र, तमंचे तथा और भी बहुत से अस्त्र-शस्त्र उसमें रखे थे। उस रथ में दस हजार वायुगामी घोड़े जुते हुए थे। उस रथ पर वैजयन्ती नामक ध्वजा फहारा रही थी।
दर्शक रथ में रखे हुए शस्त्रों की सूची से हैरान न हों, गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित संक्षिप्त महाभारत में रथ में रखे गए आयुधों की यही सूची दी गई है जिसमें तोप एवं तमंचों का उल्लेख किया गया है।
पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लाॅग-
मातलि ने अर्जुन के पास आकर उसे प्रणाम किया तथा कहा- ‘इन्द्रनंदन! श्रीमान् देवराज इन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं, आप इस रथ में सवार होकर शीघ्र चलिए।’
अर्जुन मंदराचल पर्वत से आज्ञा लेकर उस मायामय दिव्य रथ में सवार हो गया। जब अर्जुन उस रथ पर सवार हुआ तो रथ की आभा और भी कई गुणा बढ़ गई। क्षण भर में ही वह रथ मंदराचल पर्वत से उठा और आकाश में अदृश्य हो गया।
अर्जुन ने देखा कि आकाश में सूर्य, चंद्रमा अथवा अग्नि का प्रकाश नहीं था। वहाँ हजारों प्रकार के विमान अद्भुत रूप में चमक रहे थे। वे अपनी पुण्य-प्राप्त-कान्ति से चमकते रहते हैं और पृथ्वी से तारों एवं दीपक के समान दिखाई देते हैं।
अर्जुन ने उन चमकने वाले तारों के बारे में मातलि से प्रश्न किया- ‘क्या ये चमकने वाले घर ही तारे हैं?’
मातलि ने उत्तर दिया- ‘हे वीर! जिन्हें आप पृथ्वी से तारों के रूप में देखते हैं, वे पुण्यात्मा पुरुषों के निवास स्थान हैं। अब तक वह रथ सिद्ध-पुरुषों का मार्ग पार करके आगे निकल गया था। इसके बाद राजर्षियों के पुण्यलोक दिखाई पड़े। तदनन्तर इन्द्र की दिव्य पुरी अमरावती के दर्शन हुए।
स्वर्ग की शोभा, सुगन्धि, दिव्यता, अभिजन और दृष्य अनूठा ही था। यह लोक बड़े-बड़े पुण्यात्मा पुरुषों को प्राप्त होता है। अमरावती में देवताओं की इच्छानुसार चलने वाले सहस्रों विमान खड़े थे। सहस्रों विमान इधर-उधर आ-जा रहे थे। जब अप्सराओं, गंधर्वों, सिद्धों ओर महर्षियों ने देखा कि अर्जुन स्वर्ग में आ गया है तब वे अर्जुन की स्तुति-सेवा करने लगे। बाजे बजने लगे।
अर्जुन ने क्रमशः साध्य देवता विश्वेदेवा, पवन, अश्विनी कुमार, आदित्य, वसु, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, तुम्बुरु, नारद तथा हाहा-हूहू आदि गंधर्वों के दर्शन किए। वे अर्जुन का स्वागत करने के लिए ही वहाँ बैठे हुए थे। उनके साथ भेंट करके अर्जुन आगे बढ़ा जहाँ उसे देवराज इन्द्र के दर्शन हुए। अर्जुन ने रथ से उतरकर देवराज को प्रणाम किया।
इन्द्र ने अर्जुन को उठाकर अपने आसन पर बैठा लिया। संगीतविद्या और सामगान के कुशल गायक तुम्बरु आदि गंधर्व प्रेम के साथ मनोहर गाथाएं गाने लगे। अंतःकरण तथा बुद्धि को लुभाने वाली घृताची, मेनका, रम्भा, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, उर्वशी, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरुथिनी, गोपाली, सहजन्या, कुम्भयोनि, प्रजागरा, चित्रसेना, चित्रलेखा, सहा, मधुस्वरा आदि अप्सराएं नाचने लगीं।
अर्जुन के पैर धुलवाकर उसे देवराज इन्द्र के महल में ले जाया गया। अर्जुन को वहीं पर ठहराया गया। इन्द्र ने अर्जुन को बहुत से दिव्यास्त्र प्रदान किए तथा उनके धारण, उपयोग एवं उपसंहार का ज्ञान दिया। इन्द्र ने अर्जुन को वज्र का संचालन एवं उपसंहार करना भी सिखाया। अर्जुन ने देवराज से कहा कि अब वह अपने भाइयों के पास लौट जाना चाहता है किंतु इन्द्र ने उसे पांच वर्ष तक स्वर्ग में रहने का आदेश दिया।
एक दिन देवराज इन्द्र ने अर्जुन से कहा कि अब तुम चित्रसेन गंधर्व से नृत्य एवं गायन सीख लो, साथ ही मृत्युलोक में जो बाजे नहीं हैं, उन्हें बजाना भी सीख लो। इन्द्र के आदेश से चित्रसेन ने अर्जुन को गायन एवं वादन की शिक्षा दी तथा दिव्य वाद्ययंत्र बजाने भी सिखाए।
स्वर्ग के इन सुखों के बीच भी अर्जुन को अपने भाइयों की बार-बार याद आती तो वह खो सा जाता। एक दिन इन्द्र ने देखा कि अर्जुन निर्निमेष नेत्रों से उर्वशी की ओर देख रहा है।
इन्द्र ने चित्रसेन गंधर्व से कहा- ‘आप उर्वशी को अर्जुन की सेवा के लिए अर्जुन के पास भेजें।’
गंधर्वराज चित्रसेन ने उर्वशी के पास जाकर उससे अर्जुन के गुणों की चर्चा की तथा देवराज इन्द्र का आदेश कह सुनाया।
उर्वशी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘अर्जुन के इन गुणों पर तो मैं स्वयं भी पहले से ही मुग्ध हूँ। अब तो देवराज की आज्ञा भी मिल गई है, अतः मैं अर्जुन की सेवा करूंगी।’
चित्रसेन के चले जाने के बाद उर्वशी ने स्नान आदि करके बहुत से दिव्य आभूषण धारण किए तथा दिव्य पुष्पों की माला धारण करके मुस्कराती हुई पवन और मन की तेज गति के साथ अर्जुन के पास पहुंची।
अर्जुन ने उर्वशी को देखकर अपने नेत्र झुकाकर उसे प्रणाम किया तथा कहा- ‘देवि! मैं आपको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ, मैं आपका सेवक हूँ, आप मुझे आदेश करें।’
अर्जुन की मीठी वाणी सुनकर उर्वशी अचेत सी हो गई। उसने कहा- ‘देवराज की आज्ञा से गंधर्वराज चित्रसेन मेरे पास आए थे। वे आपके गुणों का वर्णन करके मुझे आपकी सेवा में उपस्थित होने का आदेश दे गए हैं। मैं काम के वश में हूँ, आप मुझे स्वीकार कीजिए।’
उर्वशी की बात सुनकर अर्जुन ने अपने हाथ अपने कानों पर धर लिए तथा कहा- ‘देवि! आप गुरुपत्पनी के समान हैं। देवसभा में मैंने आपको निर्मिमेष नेत्रों से देखा अवश्य था किंतु मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं था। आप ही पुरुवंश की आनंदमयी माता हैं। यह सोचकर मैं आपको आनंदित होकर देख रहा था। मेरे सम्बन्ध में आपको ऐसी कोई बात नहीं सोचनी चाहिए। आप मेरे पूर्वजों की माता हैं। महाराज पुरूरवा के साथ आप पत्नी रूप में रही हैं।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता