जिस प्रकार प्राणवायु का आश्रय प्राप्त कर समस्त जीव जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम का आश्रय प्राप्त करके समस्त आश्रम चलते हैं।
-मनुस्मृति।
मनुष्य जीवन बचपन, यौवन, प्रौढ़वय एवं वृद्धावस्था से गुजरता हुआ पूर्णता को प्राप्त होता है। प्रत्येक वय में मनुष्य की आवश्यकताएं, क्षमताएं एवं रुचियाँ भिन्न होती हैं तथा इनके अनुसार ही मनुष्य अलग-अलग कार्य करता है। मनुष्य जीवन की रुचियों को पूरा करने, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने एवं क्षमताओं में वृद्धि करने के लिए वैदिक ऋषियों ने आश्रम व्यवस्था की स्थापना की तथा प्रत्येक आश्रम के लिए नियम, पद्धतियां एवं कर्त्तव्य निर्धारित किए।
इन आश्रमों की व्यवस्था इस प्रकार की गई कि मनुष्य की दैहिक, दैविक एवं भौतिक आवश्यकताओं की सरलता से पूर्ति हो सके। उसकी आकांक्षाएं दमित न हों अपितु मर्यादित हों। उसकी रुचियां परिष्कृत हों। आश्रम व्यवस्था के पालन से मनुष्य को लौकिक और पारलौकिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक, निजी एवं सामाजिक सभी प्रकार की उपलब्धियां सहज ही प्राप्त हो सकें।
भारतीय आश्रम व्यवस्था विश्व भर की संस्कृतियों में सबसे अनूठी, सबसे विलक्षण और सबसे अलग थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत रहता हुआ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों पुरुषार्थों का निर्बाध रूप से सेवन करता था। प्रत्येक आश्रम का आधार जैविकीय, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित किया गया था।
आश्रम व्यवस्था मनुष्य को कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के साथ-साथ बाल-सुलभ जिज्ञासाओं की पूर्ति, युवा जीवन के रोमांच, गृहस्थी के सुख, तपस्या का सुख एवं सन्यासी के रूप में उसके अनुभवों का समाज में पुनः वितरण जैसी दुर्लभ उपलब्धियाँ कराती थीं।
भारतीय दर्शन में की गई पुरुषार्थ की संकल्पना आश्रम-व्यवस्था से ही सम्बद्ध है। ज्ञान, कर्त्तव्य, त्याग और अध्यात्म की उपलब्धि के लिए मनुष्य जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम में विभाजित किया गया। इस व्यवस्था का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना था। भारतीय चिन्तकों ने मनुष्य के जीवन को सौ वर्षों का मानकर, प्रत्येक आश्रम के लिए पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार कालखण्ड निर्धारित किए।
आश्रम-व्यवस्था का विकास
आश्रम व्यवस्था का उद्भव उत्तर-वैदिक-काल में हुआ। कुछ विचारकों का मत है कि आश्रम-व्यवस्था का प्रचलन महात्मा बुद्ध के बाद अथवा पिटक-साहित्य की रचना के बाद हुआ था, क्योंकि इन रचनाओं में आश्रम-व्यवस्था का उल्लेख नहीं हुआ है। इन विचारकों का यह भी मत है कि उपनिषदों में भी चारों आश्रमों के नाम नहीं मिलते किन्तु यह धारणा सही नहीं है क्योंकि उपनिषदों सहित विभिन्न वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य, गृहपति, गृहस्थ एवं यति’ आदि शब्दों का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है।
‘यति’ का ‘सन्यासी’ के अर्थ में उल्लेख दो या तीन स्थानों पर हुआ है। ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों के रूप में जो उत्तर-वैदिक साहित्य है, उनमें चारों आश्रमों के संकेत मिलते हैं। यद्यपि ‘ब्रह्मचारी’, ‘गृहस्थ’ (गृहपति) और ‘मुनि’ एवं ‘यति’ आदि शब्द ऋग्वेद में बार-बार आए हैं तथापि आश्रमों का सुस्पष्ट विभाजन उत्तर-वैदिककालीन व्यवस्था है। उपनिषदों में अनेक स्थानों पर आश्रम-सूचक शब्दों का उल्लेख हुआ है।
ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य आश्रम को पूर्ण कर ‘गृही’ (गृहस्थ) बने, गृही जीवन बिताकर ‘वनी’ (वानप्रस्थ) बने और फिर वनी होने के बाद ‘परिव्राजक’ (सन्यासी) बन जाए। ‘वृहदारण्यकोपनिषद्’ में महर्षि याज्ञवलक्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहा है- ‘मैं अब गृहस्थी से प्रव्रज्या ग्रहण करने जा रहा हूँ।’
जिन संज्ञाओं द्वारा चार आश्रमों का प्रतिपादन किया गया, उनका सर्वप्रथम उल्लेख ‘जाबालोपनिषद’ में मिलता है। याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को विभिन्न आश्रमों की व्याख्या करके सुनाई थी। इस प्रकार चार आश्रमों की संकल्पना धीरे-धीरे विकसित हुई। इसका प्रस्फुटन वेदों के रचना काल में हुआ, इसका विकास उपनिषदों के रचना काल में हुआ तथा सुस्पष्ट रूप से स्थापन सूत्रग्रंथों के रचना काल में हुआ।
सूत्र-युग में ही आश्रमों के पारस्परिक सम्बन्ध और उनकी कर्मगत व्यवस्थाएं स्थिर हुईं। सूत्र-ग्रन्थों, पुराणों, महाभारत और स्मृतियों में चारों आश्रमों का स्पष्ट तथा विशद् वर्णन हुआ है और चारों आश्रमों के धर्म एवं कर्त्तव्य बताए गए हैं।
आश्रमों की प्रतिष्ठा
बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार आश्रम-व्यवस्था का प्रारम्भ प्रहल्लाद के पुत्र कपिल द्वारा किया गया था। उसमें उल्लेख किया गया है कि देवताओं की स्पर्धा में मनुष्यों ने इसका सूत्रपात किया। देवता मानते थे कि आश्रम-व्यवस्था उन्नत और विकसित समाज के लिए आवश्यक है, अतः दूसरों को भी अपनानी चाहिए। महाभारत, ब्रह्माण्ड-पुराण और वायु-पुराण के अनुसार ब्रह्मा द्वारा चार वर्णों के समान चार आश्रमों की भी स्थापना की गई।
चार वर्णों की तरह चार आश्रमों का उद्गम ब्रह्मा से होना इसलिए बताया गया ताकि लोग इसे धर्म समझकर स्वीकार कर लें। इन आश्रमों के नाम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक दिए गए हैं। सन्यासी के लिए ही भिक्षुक शब्द का प्रयोग हुआ है।
पुराणों के अनुसार आश्रमों का चिन्तन इसलिए किया गया ताकि समाज के विभिन्न सदस्य अपने कर्म निष्ठापूर्वक सम्पादित कर सकें। ब्रह्माण्ड-पुराण के अनुसार महाराज सगर के राज्य में आश्रम-व्यवस्था का पूर्णतः पालन किया जाता था। छान्दोग्य-उपनिषद के अनुसार आश्रम धर्म का पालन करने वालों को पुण्य-लोक की प्राप्ति होती है।
मत्स्य-पुराण के अनुसार इसका पालन न करने वाले अथवा निरादर करने वाले यातना के भागी होते हैं। वायु पुराण के अनुसार इसका पालन न करने वालों को नर्क की प्राप्ति होती थी। द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के लिए आश्रम-व्यवस्था का पालन करना आवश्यक था।
प्रारम्भ में आश्रमों की संख्या तीन थी- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ। उस काल में वानप्रस्थ और सन्यास को एक ही आश्रम माना गया था, क्योंकि दोनों (वानप्रस्थ और सन्यास) का आधार आध्यात्म, सत्य की खोज और मोक्ष की प्राप्ति करना था। व्यक्ति को सन्यास में जो कुछ करना होता था, उसी की तैयारी वह वानप्रस्थ आश्रम में करता था। सम्भवतः इसीलिए दोनों में भेद करना उचित नहीं समझा गया किंतु बाद में सन्यास आश्रम अलग से स्थापित हुआ तथा इन दोनों आश्रमों के कर्त्तव्य सुस्पष्ट रूप से अलग-अलग निर्धारित किए गए।
छान्दोग्य उपनिषद में धर्म के तीन स्कन्ध (आधार स्तम्भ) बताए गए हैं- (1.) यज्ञ, (2.) अध्ययन और (3.) दान। प्रथम स्कन्ध में तप करना, द्वितीय स्कन्ध में ब्रह्मचारी रूप में आचार्य-कुल में निवास करना और तृतीय स्कन्ध में अपने शरीर को क्षीण कर देना शामिल हैं। मनु ने भी एक स्थान पर तीन आश्रमों का उल्लेख किया है किन्तु बाद में उसने कहा है कि सौ वर्ष के चार आश्रमों को पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।
गौतम धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, विष्णु-पुराण, वसिष्ठ आदि शास्त्रकारों ने भी चार आश्रमों की चर्चा की है- (1.) ब्रह्मचर्य, (2.) गृहस्थ, (3.) वानप्रस्थ और (4.) सन्यास अथवा परिव्राजक (यति)।
राजा का यह कर्त्तव्य था कि प्रजा को अपने-अपने वर्ण-धर्मों का पालन करने के साथ-साथ आश्रम-धर्मों के पालन के लिए भी प्रेरित करे किंतु आश्रम-व्यवस्था मूलतः राजनीतिक या धार्मिक न होकर सामाजिक व्यवस्था थी। आश्रम व्यवस्था का व्यावहारिक अर्थ व्यवस्थित और नियमित जीवन जीने से है। अव्यवस्थित जीवन से मनुष्य भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियां अर्जित नहीं कर सकता।
मनुष्य स्वाभाविक रूप से भी अपने जीवन के प्राम्भ में शिक्षा ग्रहण करता है, उसके बाद गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके अर्थ और काम का सेवन करता है तथा अंत में आध्यात्मिक उपलब्धियों को अर्जित करता हुआ, मोक्ष प्राप्त करना चाहता है। आश्रम व्यवस्था में यद्यपि समस्त आश्रमों का बराबर महत्व था किंतु गृहस्थ आश्रम को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया था, क्योंकि अन्य सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही निर्भर करते थे।
मनु ने कहा है- ‘जिस प्रकार प्राणवायु का आश्रय प्राप्त कर समस्त जीव जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम का आश्रय प्राप्त करके समस्त आश्रम चलते हैं।’
बौद्ध काल में आश्रम व्यवस्था की स्थिति
छठी शताब्दी ईसा पूर्व के काल को बौद्ध काल कहा जाता है। इस काल में भारत में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का अभ्युदय हुआ जिनमें बौद्ध और जैन-धर्म प्रमुख थे। इन धर्मों के अनुयाई प्राचीन आश्रम-मर्यादा का पालन नहीं करते थे। धर्मसूत्रों और स्मृतियों आदि प्राचीन ग्रंथों में वर्णाश्रम धर्म पर आधारित आदर्श समाज का चित्र प्रस्तुत किया गया है परन्तु बौद्ध साहित्य से प्राचीन भारतीय समाज का वास्तविक चित्र प्राप्त होता है।
जातक कथाएं और गौतम बुद्ध के संवाद तत्कालीन समाज की जानकारी देते हैं। बौद्ध साहित्य में गृहस्थ के लिए ‘गहपति’ (गृहपति) शब्द का प्रयोग किया गया है। कुछ गहपति अतुल धन के स्वामी होते थे और कुछ साधारण गृहस्थ भी। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर चलने वाले गृहपति को बौद्ध साहित्य में ‘उपासक’ कहा गया है। कोई भी गहपति या किसी भी परिवार का सदस्य यहाँ तक कि बालक भी ‘भिक्षुव्रत’ ग्रहण करके बौद्धसंघ का सदस्य बन सकता था।
स्त्रियों को भी भिक्षुणी बनने का अधिकार था। भिक्षुाओं एवं भिक्षुणियों को बौद्ध संघारामों में निःशुल्क भोजन, आश्रय एवं वस्त्र मिलते थे तथा उन्हें धर्म चर्चा एवं प्रतिदिन कुछ समय के लिए भिक्षाटन के अतिक्ति कोई काम नहीं करना पड़ता था। इसलिए समाज के बहुत से निर्धन एवं आलसी लोग बौद्धभिक्षु बन गए। इस कारण प्राचीन आर्यों द्वारा स्थापित वर्ण, आश्रम एवं पुरुषार्थ सम्बन्धी व्यवस्थाएं टूटने लगीं।
मौर्य काल में आश्रम-व्यवस्था की स्थिति
मौर्य काल में आश्रम-व्यवस्था के स्वरूप की जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र और यूनानी लेखकों के विवरण से प्राप्त होती है। कौटिल्य ने चारों आश्रमों के ‘स्वधर्म’ इस प्रकार बताए हैं-
(1.) ब्रह्मचारी आश्रम: ब्रह्मचारी का स्वधर्म स्वाध्याय, अग्निकर्म (यज्ञ), अभिषेक, भैक्षव्रत (भिक्षा द्वारा निर्वाह), आचार्य के प्रति सेवा या भक्ति है। आचार्य के अभाव में ब्रह्मचारी अपने गुरु-पुत्र अथवा अपने से ज्येष्ठ ब्रह्मचारी के प्रति सेवा या भक्ति रखता था।
(2.) गृहस्थ आश्रम: गृहस्थ के स्वधर्म अपने व्यवसाय द्वारा आजीविका कमाना, अपने से समान स्थिति वाले परिवार में विवाह करना जिसका ऋषि (गोत्र) अपने परिवार के ऋषि से भिन्न हो, ऋतुगामित्व (पत्नी के साथ मासिक धर्म के पश्चात् सहवास); देवता, पितर, अतिथि तथा भृत्यों के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करने में अपनी आय खर्च करना और शेष राशि से अपना एवं अपने परिवार का निर्वाह करना।
(3.) वानप्रस्थ आश्रम: वानप्रस्थी का स्वधर्म ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना, भूमि पर शयन करना, जटा धारण करना, अजिन (मृगचर्म) ओड़ना, अग्निहोत्र तथा अभिशेष करना, देवता, पितर तथा अतिथियों की पूजा करना और वन्य-आहार (कंद, मूल एवं फल) से निर्वाह करना था।
(4.) परिव्राज्य आश्रम: परिव्राज्य के स्वधर्म इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना, अनारम्भ (कोई भी व्यवसाय नहीं करना) निष्किंचनत्व (कोई भी सम्पत्ति न रखना), संग-त्याग (किसी की भी संगति नहीं करना), अनेक स्थानों से भिक्षा ग्रहण कर निर्वाह करना, जंगल में निवास करना तथा बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता रखना था।
कौटिल्य द्वारा वर्णित आश्रमों के स्वधर्म, स्मृति-ग्रन्थों में वर्णित स्वधर्मों से कुछ भिन्न हैं। कौटिल्य ने सर्वप्रथम गृहस्थ का स्वधर्म निर्दिष्ट किया। अतः कौटिल्य की दृष्टि में गृहस्थ आश्रम का महत्त्व सर्वाधिक था। कौटिल्य की सम्मति में स्वधर्म का पालन करना श्रेयस्कर है तथा राज्य का कर्त्तव्य है कि वह समस्त प्रजा को वर्ण-धर्म और आश्रम धर्म में स्थिर रखे।
द्विज वर्ग के लिए आवश्यक था कि उनके परिवार का प्रत्येक बालक सोलह वर्ष तक ब्रह्मचारी रहकर विद्याध्ययन करे तथा अपने शरीर, मन और बुद्धि को भलिभाँति विकसित कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे। गृहस्थ का कर्त्तव्य था कि वह अपनी पत्नी, सन्तान, माता-पिता, अवयस्क भाई-बहिन और अपने परिवार की विधवा स्त्रियों का भरण-पोषण करे। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता था, उसके लिए बारह पण दण्ड का विधान था।
कौटिल्य ने व्यवस्था दी कि कोई भी मनुष्य अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा न करे। यदि कोई मनुष्य अपनी पत्नी और सन्तान के भरण-पोषण की समुचित व्यवस्था किए बिना ही प्रवज्या ग्रहण कर ले तो उसे दण्ड दिया जाय। यही दण्ड उस व्यक्ति के लिए भी है, जो किसी स्त्री को प्रव्रज्या दे। ऐसे मनुष्य ही परिव्राजक बनें जिनमें सन्तानोत्पत्ति की शक्ति नष्ट हो गयी हो और जिन्होंने धर्मस्थों (धर्मस्थ न्यायालयों के न्यायधीशों) से परिव्राजक होने की अनुमति प्राप्त कर ली हो।
किसी ऐसे परिव्राजक को जनपद में न आने दिया जाए, जिसने वानप्रस्थ ग्रहण किए बिना ही प्रव्रज्या ग्रहण कर ली हो। कौटिल्य के अनुसार मनुष्य को अपना पूरा जीवन गृहस्थ आश्रम में ही व्यतीत नहीं करना चाहिए। परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के बाद मनुष्य को वानप्रस्थी बनना चाहिए और अन्त में सन्यास लेकर अकिंचनवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए।
बौद्धकाल, मौर्यकाल एवं परवर्ती कालों में भी बौद्ध एवं जैन सम्प्रदायों के अनुयाई आश्रम-व्यवस्था का अनुसरण नहीं करते थे। लाखों लोग किसी बौद्ध आचार्य से प्रव्रज्या ग्रहण करके भिक्षु बन जाते थे। जब सनातन पौराणिक धर्म पर भी इसका प्रभाव पड़ने लगा तब धर्मसूत्रों के आचार्यों ने व्यवस्था दी कि जब भी व्यक्ति को वैराग्य उत्पन्न हो जाय, वह परिव्राजक बन जाए, चाहे वह ब्रह्मचर्य आश्रम में हो और चाहे गृहस्थ या वानप्रस्थ में।
कौटिल्य इस मत से सहमत नहीं था। उसने व्यवस्था दी कि केवल ऐसे व्यक्ति ही परिव्राजक बनें जिन्होंने अपनी पत्नी, सन्तान और परिवारजनों के भरण-पोषण की व्यवस्था कर दी हो, जिनमें सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो चुकी हो और जिन्होंने प्रव्रज्या के लिए धर्मस्थों से अनुमति प्राप्त कर ली हो।
बुद्ध के समय से ही कुछ स्त्रियों ने प्रव्रज्या ग्रहण करके भिक्षुणी बनना प्रारम्भ कर दिया था तथा भिक्षुणियों के पृथक् संघ स्थापित हो गए थे किन्तु कौटिल्य को स्त्रियों का परिव्राजिका बनना पसन्द नहीं था। इसलिए कौटिल्य ने व्यवस्था दी कि यदि कोई व्यक्ति स्त्रियों को परिव्राजक बनाए तो उसे दण्ड दिया जाए किंतु मौर्य युग एवं उसके बाद भी स्त्रियां पूर्ववत् परिव्राजिका बनती रहीं। कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र में ऐसी परिव्राजिकाओं का उल्लेख हुआ है जिनका उपयोग गुप्तचरों के रूप में किया जाता था।
यूनानी लेखकों के विवरणों से भी भारत के सन्यासियों का परिचय मिलता है। सिकन्दर ने तक्षशिला में पन्द्रह ऐसे सन्यासियों को देखा जो सांसारिक जीवन को त्याग कर ध्यान, तपस्या और समाधि में समय व्यतीत कर रहे थे। सिकन्दर इन सन्यासियों की साधना-विधि जानना चाहता था। अतः जब सिकन्दर की ओर से ओनेसिक्रितस इन सन्यासियों से मिला, तो उनमें से एक सन्यासी ने कहा- ‘अश्वारोहियों के लम्बे चोगे और ऊँचे बूट पहन कर कोई व्यक्ति साधना-विधि नहीं जान सकता। यदि सचमुच इसे जानना चाहते हो तो तुम्हें अपने समस्त वस्त्र उतार कर गर्म चट्टानों पर हमारे साथ बैठना होगा।’
यूनानी लेखकों ने दण्डी नामक वृद्ध सन्यासी का उल्लेख किया है जो जंगल में पर्णकुटी में निवास करता था और उसके अनेक शिष्य थे। सिकन्दर ने ओनेसिक्रितस को उसे बुलाने के लिए भेजा। ओनेसिक्रितस ने दण्डी के पास जाकर कहा- ‘परम-शक्ति-सम्पन्न द्यौ-देवता के पुत्र सिकन्दर ने तुम्हें बुलाया है। वह समस्त मनुष्यों का स्वामी एवं अधीश्वर है। यदि तुम उसके आदेश को स्वीकार करके उसके पास चलोगे तो वह बहुमूल्य उपहारों से तुम्हें सन्तुष्ट करेगा किन्तु यदि तुमने उसके आदेश का पालन नहीं किया तो वह तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देगा।’
दण्डी ने उपेक्षापूर्ण हंसी हंसते हुए कहा- ‘सबका अधिपति ईश्वर है वह कभी किसी का बुरा नहीं करता। ज्योति, जीवन, शान्ति, जल, शरीर और आत्मा का वही स्रष्टा है। मै उस ईश्वर का उपासक हूँ जो युद्ध नहीं करता और जिसे हत्या से घृणा है। सिकन्दर ईश्वर नहीं है, क्योंकि उसे भी एक दिन मरना है, वह अपने को संसार का स्वामी कैसे समझ सकता है! सिकन्दर मुझे जिन उपहारों का लालच दिखा रहा है, मेरे लिए वे अनुपयोगी हैं। संसार के लोग जिन वस्तुओं का संग्रह करते हैं, मेरे लिए उनका कोई उपयोग नहीं है। उनसे मनुष्य को केवल चिन्ता और दुःख की प्राप्ति होती है। मैं पर्णशय्या पर निश्चिंत होकर सोता हूँ, क्योंकि मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसकी रक्षा के लिए मुझे चिन्ता करनी पड़े। यदि मेरे पास स्वर्ण होता तो मुझे सुख की नींद कैसे आ सकती थी। सिकन्दर मेरा सिर काट सकता है किन्तु मेरी आत्मा को नष्ट करने की शक्ति उसमें नहीं है। सिकन्दर अपना डर, उन लोगों को दिखाए, जिन्हें स्वर्ण और सम्पत्ति की चाह हो और जो मृत्यु से डरते हों। हम ब्राह्मण न तो मौत से डरते हैं और न हमें सम्पत्ति से कोई प्रेम है। इसलिए तुम सिकन्दर से कहो कि जो कुछ तुम्हारे पास है और जो तुम दूसरों को दे सकते हो, दण्डी को उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए वह सिकन्दर के पास नहीं जाएगा, किन्तु यदि सिकन्दर दण्डी से कुछ प्राप्त करना चाहे तो वह मेरे पास आ सकता है।’
ओनेसिक्रितस से दण्डी का उत्तर सुनकर सिकन्दर को भारत के सन्यासियों के जीवन दर्शन का परिचय मिला।
शुंग काल में आश्रम-व्यवस्था की स्थिति
मौर्यवंश के पतन के बाद वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ। इस काल के चिन्तकों ने गृहस्थाश्रम को अधिक महत्त्व दिया। महाभारत का वर्तमान स्वरूप शुंग काल में तैयार हुआ था। अतः महाभारत में शुंग काल की आश्रम व्यवस्था का परिचय मिलता है।
महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त प्राणी अपने जीवन के लिए माता पर आश्रित होते हैं वैसे ही अन्य समस्त आश्रमों की स्थिति का आधार गृहस्थ आश्रम है। शान्तिपर्व के एक प्रकरण में विदेह के राजा जनक और उसकी पत्नी के बीच का वार्तालाप संकलित है।
जब राजा जनक ने सन्यास लेने का विचार किया तब जनक की रानी ने कहा- ‘वे सन्यास ग्रहण करके कर्त्तव्यों से विमुख हो रहे हैं।’
महाभारत में कर्त्तव्यपालन से विमुख होकर सन्यासी बनने वाले व्यक्तियों की उपमा उन कुत्तों से की गई जो भोजन की आशा में दूसरों के मुंह की ओर देखते रहते हैं। शान्तिपर्व में एक कथा दी गई है जिसमें किशोर-वय के भिक्षुओं ने इन्द्र के समझाने पर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना स्वीकार कर लिया था। महाभारत-युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर को अपने बन्धु-बान्धवों के विनाश पर बड़ा संताप हुआ और उसने वैरागी होकर भिक्षुवृत्ति ग्रहण करने का विचार किया।
इस पर अन्य पाण्डवों ने उसे समझाया कि ‘यह पाप-पूर्ण वृत्ति है। जो मनुष्य अकेला रहता है तथा पुत्र-पौत्रों, देवताओं, ऋषियों एवं अतिथियों का भरण-पोषण नहीं करता, उस मनुष्य में और जंगली पशुओं में कोई अन्तर नहीं है। जंगली पशु-पक्षी कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करते। वृक्ष और पहाड़ सांसारिक झंझटों से दूर अकेले खड़े रहते हैं, वे भी मोक्ष-सिद्धि नहीं कर पाते।
मनुष्य को अपने सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति सजग होना चाहिए, तभी वह पितृऋण, देव-ऋण और ऋषि-ऋण से मुक्त हो सकता है। यह गृहस्थ आश्रम द्वारा ही सम्भव है। जो लोग केवल मोक्ष को अपना लक्ष्य मानकर गृहस्थ धर्म की उपेक्षा करते हैं, वे निन्दनीय हैं।’
वैदिक धर्म के इस पुनरुत्थान काल में समाज का नेतृत्व जिन ब्राह्मणों के पास था, वे भिक्षु या सन्यासी बने बिना ही एवं गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ही अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन किया करते थे। पुराणों, स्मृतियों तथा अन्य प्राचीन साहित्य में भी गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई।
मनु के अनुसार कहा कि जिस प्रकार वायु को पाकर ही समस्त प्राणी जीवन धारण करने में समर्थ होते हैं, वैसे ही समस्त आश्रम गृहस्थ पर आधारित होकर अपनी सत्ता को कायम रख सकते हैं। ब्रह्माण्ड-पुराण और विष्णु-पुराण के अनुसार अन्य समस्त आश्रम, गृहस्थ आश्रम में ही प्रतिष्ठित हैं, अतः वही सबसे श्रेष्ठ है। वायु-पुराण में गृहस्थ आश्रम को शेष तीनों आश्रमों की ‘प्रतिष्ठायोनि’ कहा गया है।