आश्रम व्यवस्था के धर्म एवं कर्त्तव्य
मनुष्य के जीवन को कर्म के अनुसार व्यस्थित करने के लिए वैदिक ऋषियों ने चार आश्रमों की व्यवस्था की थी- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम। याज्ञवल्क्य के अनुसार ब्राह्मणों के लिए चारों आश्रम अत्यंन्त आवश्यक थे और जो ब्राह्मण इन चारों आश्रमों का शास्त्रानुसार पालन करता था, वह परमगति को प्राप्त करता था।
ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य द्विजों (क्षत्रिय एवं वैश्य) के लिए तीन आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ थे, उनके लिए सन्यास आश्रम का विधान नहीं था। पुराणों ने भी चार आश्रमों का महत्त्व बताया है। मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण और वायु पुराण के अनुसार गृहस्थ, भिक्षु, आचार्यकर्मा (ब्रह्मचारी) तथा वानप्रस्थ, चार आश्रमजीवी हैं तथा वर्णों के धर्म को प्रतिष्ठित करने के उपरान्त ब्रह्मा ने चार आश्रमों को स्थापित किया।
10वीं-11वीं शताब्दी के लेखक अलबरूनी ने भी चार आश्रमों का उल्लेख किया है। वह लिखता है- ‘ब्राह्मण (द्विज) का जीवन सात वर्ष की आयु के पश्चात् चार भागों (आश्रमों) में विभाजित है।’ इन विवरणों से स्पष्ट है कि उत्तर-वैदिक युग से पूर्व-मध्य-युग तक चार आश्रमों का अस्तित्त्व था।
ब्रह्मचर्य आश्रम
मनुष्य को बाल्यकाल में ही शिक्षा, ज्ञान एवं विवेक प्राप्त हो, इसके लिए ब्रह्मचर्य आश्रम की व्यवस्था की गई। ब्रह्मचर्य दो शब्दों, ‘ब्रह्म’ और ‘चर्य’ से मिलकर बना है। ब्रह्म का अर्थ है ‘ईश्वर’ और ‘चर्य’ का अर्थ है। ‘विचरण’। इन दोनों का सम्मिलित अर्थ है ‘ब्रह्म के मार्ग पर चलना’।
ब्रह्मचर्य का व्यावहारिक अर्थ इन्द्रिय-निग्रह के साथ-साथ विद्या एवं वेदाध्ययन है। इस आश्रम का पालन करने हेतु बालक अपने पिता का घर छोड़कर गुरु अथवा आचार्य के आश्रम में रहता था एवं उसके सानिध्य में वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करता था। ‘ब्रह्म’ और ‘वेद’ का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ब्रह्मचर्य का दूसरा अर्थ है ‘वेद मार्ग पर चलना’ अर्थात् ‘ब्रह्म-ज्ञान’। उपनिषद् काल में ब्रह्म-ज्ञान की प्रतिष्ठा अपने चरम पर थी। मनुष्य तप और संयम से रहता हुआ ज्ञान और विज्ञान का अर्जन करता था।
महाभारत के अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम में रहने वाले ब्रह्मचारी को आन्तरिक एवं बाह्य शुद्धि और वैदिक संस्कारों का पालन करते हुए अपने मन को वश में रखना चाहिए। प्रातः और सायं दोनों समय सन्ध्योपासना, सूर्योपासना और अग्निहोत्र (यज्ञ) द्वारा अग्निदेव की आराधना करनी चाहिए। तन्द्रा और आलस्य को त्याग कर प्रतिदिन गुरु को प्रणाम करना और वेदों के अभ्यास तथा श्रवण से अपनी अन्तरात्मा को पवित्र करना चाहिए।
प्रातः, दोपहर और सायं तीनों समय स्नान करना चाहिए। नित्य भिक्षा मांग कर लानी चाहिए और उसे गुरु की सेवा में समर्पित करनी चाहिए। गुरु जो कुछ कहे, जिसके लिए संकेत करे और जिस कार्य के लिए आदेश दे, उसके विपरीत आचरण नहीं करना चाहिए। गुरु के कृपा-प्रसाद से मिले हुए स्वाध्याय में तत्पर रहना चाहिए।
कोई व्यक्ति उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार के पश्चात् ही ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश कर सकता था। इस संस्कार के द्वारा ब्रह्मचारी ‘गुरु’ का सान्निध्य प्राप्त करता था और उसके पास रहते हुए ज्ञानोपार्जन करता था। ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के बाद बालक को ब्रह्मचारी कहा जाता था। वह ब्रह्म-विद्या के लिए व्रत का पालन करता था।
मनु के अनुसार वह सूर्योपासना के बाद भिक्षाटन के लिए निकलता था। ब्रह्मचारी के लिए भिक्षावृत्ति का निर्देश किया गया था ताकि वह निरभिमान होकर संयम और नियम का पालन करे। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मचारी को भिक्षा प्रदान न करने वाली स्त्रियों से, दान-यज्ञ से उत्पन्न पुण्य, उनके पशुओं, उनके कुलों की विद्या और अन्न छीन लिया जाता है।
इसलिए ब्रह्मचारी को अपने द्वार से भिक्षा दिए बिना नहीं लौटाया जाता था। प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्त्तव्य था कि वह ब्रह्मचारी को भिक्षा दे। ब्रह्मचारी दिन में दो बार अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल में ही भोजन करता था, बीच में भोजन करना निषिद्ध था।
ब्रह्मचारी का जीवन व्यवस्थित, संयमित और नियमों से बंधा हुआ होता था। वह मन, वचन एवं कर्म से शील, साधना और अनुशासन का अनुसरण करता था। वह गुरु के पशुओं की देखभाल करता था, समिधा एकत्रित करता था, भिक्षा माँगता था, यज्ञ करता था और निष्ठापूर्वक गुरु की सेवा करता था। ऐसा करने वाला ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर स्वर्ग को प्राप्त करता था। ब्रह्मचारी का जीवन समस्त धर्मों में अत्यन्त श्रेष्ठ, ब्रह्म-स्वरूप और आदर-युक्त था।
उसके लिए नृत्य, गायन, वाद्य, सुगंधित वस्तुएँ, माला, जूता, छाता, अंजन, हंसना, नग्न स्त्री को देखना, स्त्री की कामना करना तथा उसे अकारण स्पर्श करना आदि निषिद्ध था। उसे सत्य ही बोलना होता था और उसके लिए अंहकार करना वर्जित था। शिष्य के लिए गुरु से पहले जागना आवश्यक था। कौटिल्य के अनुसार ब्रह्मचारी का कर्त्तव्य वेद का अध्ययन करना, अग्नि अभिषेक करना, भिक्षावृति करना, गुरु की अनुपस्थिति में गुरु-पुत्र या ज्येष्ठ ब्रह्मचारी की सेवा करना है। मनु का कहना है कि गुरु विनयी, सेवारत और हितैषी विद्यार्थी को ही शिक्षा देता है।
सदाचार और सच्चरित्रता का पालन करना ब्रह्मचारी की अनुपम साधना थी। अपनी इच्छाओं को अपने वश में करना तथा अपनी क्रियाओं को धर्म-समन्वित करना उसका श्रेष्ठ आचरण था। वह अपनी विचरणशील इन्द्रियों को संयमित रखता था, जिससे उसे सिद्धि की प्राप्ति होती थी।
इस प्रकार वह मनसा, वाचा और कर्मणा संयमशील होकर प्रतिष्ठित होता था। तप, स्वाध्याय और ईश्वर-आराधना उसके मुख्य कर्त्तव्य थे जिनसे ब्रह्मचारी का पूर्ण विकास होता था। यम-नियम का पालन करने से ब्रह्मचारी का आत्मिक विकास होता था। यमों के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि नियमों का पालन करना होता था।
11वीं शताब्दी के भारत में भी ब्रह्मचारी का जीवन इसी प्रकार का था। अलबरूनी ने लिखा है- ‘वह दिन में तीन बार स्नान करता है, प्रातः एवं सायंकाल में होम करता है तथा होम के पश्चात् गुरु की पूजा करता है। वह एक दिन उपवास करता है और एक दिन उपवास तोड़ता है। वह गुरु-गृह में ही निवास करता है। भिक्षाटन के लिए जाते समय ही वह गुरु-गृह छोड़ता है।
एक बार में वह पांच से अधिक घर से भिक्षा नहीं माँगता। जो कुछ उसे भिक्षा में मिलता है वह गुरु के समक्ष समर्पित कर देता है, इसलिए कि वह इच्छानुसार ले ले, तब गुरु शेष भाग को उसे देकर खाने की आज्ञा देता है। इस प्रकार विद्यार्थी अपने गुरु के बचे भोजन से अपना पोषण करता है। फिर वह यज्ञ के लिए दो तरह के वृक्षों- पलास और दर्भ की लकड़ी लाता है क्योंकि हिन्दू यज्ञ-होम की अधिक पूजा करते और फूल चढ़ाते हैं।’
ब्रह्मचारी के अध्ययन की अवधि
ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि प्रायः बारह वर्ष की होती थी, ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण होने तक उसकी आयु लगभग पच्चीस वर्ष हो जाती थी। वैसे कुछ ब्रह्मचारी 12, 24, 36 और 48 वर्ष तक अध्ययन करते थे। शिक्षा समाप्त करने के बाद वह गुरु की आज्ञा प्राप्त करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था।
ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि के सम्बन्ध में मनु ने लिखा है कि ब्रह्मचारी गुरु के समीप 36 वर्ष तक (तीन वेदों का अध्ययन) या उसका आधा 18 वर्ष तक अथवा उसका चतुर्थांश 9 वर्ष तक या वेदों के ग्रहण करने की अवधि तक अध्ययनरत रहे। निश्चय ही वेदों के अध्ययन में ब्रह्मचारी को अनेक वर्ष लगाने पड़ते थे।
वेदों का अध्ययन कम से कम 9 वर्ष में हो पाता था। तीन वेद या दो वेद अथवा एक वेद में ब्रह्मचारी का पांरगत होना अनिवार्य था। एक वेद का सम्यक् ज्ञान कम से कम नौ या बारह वर्ष में ही हो पाता था। छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार प्रजापति के निकट इन्द्र ने 101 वर्षों तक रहकर ज्ञान प्राप्त किया था। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार भरद्वाज 75 वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहे।
ब्रह्मचारी के प्रकार
उत्तर-वैदिक-काल में गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करने वाले कई प्रकार के ब्रह्मचारी होते थे। इन्हें उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। कुछ ब्रह्मचारी पढ़ने में बहुत अच्छे होते थे तथा उनका आचरण और व्यवहार उत्तम होता था।
कुछ ब्रह्मचारी अध्ययन में मध्यम होते थे, जो न तो बहुत तीव्र होते थे और न बिल्कुल मन्द। कुछ ब्रह्मचारी ऐसे होते थे जो पढ़ने में अत्यन्त मन्द और हीन रहते थे किंतु बुद्धि-मेधा के आधार पर उनमें भेद नहीं किया जाता था। विद्यार्थियों का वर्गीकरण उप कुर्वाण और नैष्ठिक के रूप में किया जाता था।
उप-कुर्वाण: उप-कुर्वाण विद्यार्थी वे होते थे जो दस-पन्द्रह वर्ष गुरुकुल में रहते थे और विद्याध्ययन के पश्चात् अपने गुरु को यथा-शक्ति गुरु-दक्षिणा देकर अपने घर लौटते थे। उप-कुर्वाण विद्यार्थियों में भी तीन प्रकार के स्नातक होते थे- वेद स्नातक, व्रत स्नातक और वेद-व्रत स्नातक।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी: नैष्ठिक ब्रह्मचारी वे होते थे जिनका आठ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होता था। वे अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य-व्रत रखते हुए छप्पन वर्ष की आयु होने तक अध्ययन करते थे। कभी-कभी वे जीवनपर्यन्त गुरु के आश्रम में रहकर अध्ययनरत रहते थे और अन्त में उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती थी। उनका पुनर्जन्म नहीं होता था।
जो विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे, वे ‘अन्तेवासी’ कहे जाते थे। किसी विशेष विषय का अध्ययन करने के लिए दीक्षित हुआ विद्यार्थी गुरुकुल अवधि के अनुसार द्वादश वार्षिकी, वार्षिक, मासिक और अर्धमासिक विद्यार्थी कहा जाता था। कभी-कभी विद्यार्थी किसी विशेष ऋचा अथवा शास्त्र का अध्ययन करने के लिए भी गुरुकुल में प्रवेश लेता था।
ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति समावर्तन समारोह के साथ होती थी। इसके बाद ब्रह्मचारी अपने गुरु से आज्ञा लेकर अपने पिता के परिवार में लौट जाता था।