Wednesday, November 13, 2024
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अध्याय – 24 – आर्यों की वर्ण व्यवस्था (ब)

महाभारत काल में शूद्रों की स्थिति

महाभारत के मूल स्वरूप का रचनाकाल ई.पू. चौथी शताब्दी (मौर्यकाल) अथवा उससे भी पूर्व का माना जाता है तथा वर्तमान स्वरूप चौथी शताब्दी ईस्वी (गुप्तकाल) माना जाता है। अतः यह कहना कठिन है कि महाभारत की कौनसी बात किस काल में लिखी गई। महाभारत के शांति पर्व के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्म है, न कि जन्म। संभवतः महाभारत में आया यह उल्लेख मौर्यकाल से भी बहुत पहले किया गया होगा-

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।

ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।

अर्थात् वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।

सूत्र ग्रन्थों के काल में विभिन्न वर्णों की स्थिति

ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद सूत्र ग्रन्थों की रचना हुई थी। ये सूत्र ग्रन्थ तीन प्रकार के हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र। इन ग्रन्थों का रचनाकाल सामान्यतः ई.पू.600 से ई.पू.400 माना जाता है। सूत्र ग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था और वर्ण-भेद के स्पष्ट उल्लेख हैं।

ब्राह्मण वर्ण: इस काल में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। ‘गौतम धर्म सूत्र’ में कहा गया है कि राजा अन्य समस्त वर्णों से श्रेष्ठ है किन्तु ब्राह्मणों से नहीं। ब्राह्मणों का आदर-सत्कार करना राजा का परम् कर्त्तव्य है। यदि कोई ब्राह्मण आ रहा हो, तो राजा को उसके लिए मार्ग छोड़़ देना चाहिए। धर्म सूत्रों में ब्राह्मणों को अवध्य, अदण्ड्य, अबहिष्कार्य और अबन्ध्य कहा गया है तथा ब्रह्म-हत्या को घोर पाप बताया गया है।

यह भी व्यवस्था की गई है कि ब्राह्मणों से किसी प्रकार का कोई कर न लिया जाय, क्योंकि वह वेदपाठ करता है और विपत्तियों का निवारण करता है। इस युग में ब्राह्मण वर्ण का आधार जन्म से माना जाने लगा। विशेष परिस्थितियों में ब्राह्मणों को यह अनुमति दी गई थी कि वे अन्य वर्णों के कार्य भी कर सकें।

बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार संकटकालीन परिस्थितियों में ब्राह्मण के लिए शस्त्र धारण करना उचित है। आवश्यकता होने पर वैश्य भी शस्त्र धारण कर सकते थे।

क्षत्रिय वर्ण: समाज में क्षत्रियों का स्थान ब्राह्मणों के नीचे था। क्षत्रियों का कार्य बाह्य शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करना तथा राज्य में शन्ति बनाए रखना था। इन कार्यों के लिए ब्राह्मणों के सहयोग की आवश्यकता स्वीकार की गई थी। वैदिक युग में भी यह विचार विद्यमान था कि ब्रह्म-शक्ति और क्षत्र-शक्ति एक दूसरे की पूरक हैं। सूत्र ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर राजा और क्षत्रिय वर्ग के लिए ब्राह्मणों के सहयोग की आवश्यकता बताई गई है।

वैश्य वर्ण: वैश्य वर्ग के लोगों का कार्य कृषि, पशु-पालन, वाणिज्य और महाजनी करना था किन्तु संकटकालीन परिस्थितियों में उन्हें शस्त्र धारण करने की अनुमति दी गई थी।

शूद्र वर्ण: सूत्रकाल के आते-आते समाज में शूद्रों की स्थिति पहले से हीन हो गई। समाज में उनकी भूमिका तीनों उच्च वर्णों के लोगों की सेवा करने तक सीमित हो गई थी। ‘गौतम धर्मसूत्र’ में कहा गया है कि उच्च वर्ण के लोगों के जीर्ण-शीर्ण जूते एवं वस्त्र आदि, शूद्रों के प्रयोग के लिए दिये जाएं तथा उच्च वर्णों के लोगों के भोजन-पात्रों में बची झूठन से शूद्र अपनी भूख शान्त करें।

शूद्र हत्या करने पर उसी दण्ड की व्यवस्था की गई जो कौवे, मेंढक, कुत्ते आदि की हत्या के लिए निर्धारित थी। शूद्रों को न तो वेद पढ़ने का अधिकार था और न यज्ञ करने का। ‘गौतम धर्मसूत्र’ में कहा गया है कि यदि कोई शूद्र, वेद-मन्त्र सुन ले तो उसके कानों में सीसा या लाख पिघलाकर डालना चाहिए और यदि कोई शूद्र, वेद मन्त्रों का उच्चारण करे, तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए।

शूद्रों के लिए उपनयन संस्कार वर्जित था। अतः उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्राप्त नहीं हो सकता था। किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त न कर सकने के कारण उनके लिए यही एकमात्र कार्य रह जाता था कि वह तीनों वर्णों की सेवा करके अपना जीवन निर्वाह करें। इस प्रकार समाज में शूद्रों की स्थिति अत्यंत हीन हो गई थी।

सूत्रग्रंथों में ब्राह्मणों की जिस स्थिति का वर्णन किया गया है, वह बाद के युग में लिखे जाने वाले बौद्ध-ग्रंथों में वर्णित शूद्रों की स्थिति से मेल नहीं खाता। बौद्ध-ग्रंथों से पता चलता है कि बौद्ध-काल में शूद्रों की स्थिति उतनी गिरी हुई नहीं थी। इससे अनुमान होता है कि गौतम धर्मसूत्र में शूद्रों के लिए जो कुछ भी कहा गया है, वह बाद के किसी काल में जोड़ा गया है।

क्योंकि सूत्रकाल मौर्यकाल से पहले प्रारम्भ होता है तथा मौर्यकाल में वर्ण-व्यवस्था कर्म-आधारित थी न कि जन्म आधारित। सूत्रकाल में शिल्पी एवं सेवक दोनों ही शूद्र वर्ण में आते थे। इसलिए इनकी सामाजिक स्थिति इतनी खराब नहीं हो सकती थी। अतः सूत्रग्रंथों में शूद्रों की स्थिति के उल्लेख बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं।

यस्क मुनि के निरुक्त में वर्णों की स्थिति

ई.पू.600 से ई.पू.500 के बीच यस्क मुनि हुए। वे वैदिक संज्ञाओं के प्रसिद्ध व्युत्पत्तिकार एवं वैयाकरण थे। उन्हें निरुक्तकार कहा गया है। निरुक्त को तीसरा वेदाङग् माना जाता है। यस्क ने ‘निघण्टु’ नामक वैदिक शब्दकोश तैयार किया। निरुक्त उसी का विशेषण है। यस्क मुनि ने लिखा है-

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारादद्विज उच्यते।

वेदपाठी भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।

अर्थात्- जन्म से सभी शूद्र हैं। अपने कार्यों से मनुष्य द्विज बनता है। वेेद पढ़ने वाला विप्र हो जाता है और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने वाला ब्राह्मण होता है।

निरवसित तथा अनिरवसित शूद

पाणिनी (ई.पू. पांचवी शताब्दी) ने शूद्रों के दो वर्गों का उल्लेख किया है- निरवसित और अनिरवसित। कुम्हार, नाई, धोबी, लुहार आदि शिल्पी अनिरवसित वर्ग के शूद्र थे अर्थात् ये लोग अपवित्र कार्य नहीं करते थे, इस कारण नगर में ही रहते थे और उच्च-वर्ण के लोगों के भोजन-पात्रों को छू सकते थे।

चाण्डाल आदि जातियाँ अपवित्र कार्य करने के कारण उच्च वर्ण के व्यक्ति के भोजन-पात्रों को नहीं छू सकती थीं। उन्हें नगरों एवं गांवों के बाहर रहना पड़ता था इस कारण वे निरवसित शूद्र कहलाते थे। उनके छूने से पात्र अपवित्र हो जाता था। ऐसे पात्र को अग्नि द्वारा शुद्ध करके ही उच्च वर्ण के व्यक्ति प्रयोग में ला सकते थे।

संभवतः अनिरवसित शूद्र आर्यों की चतुर्वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत थे। वे शिल्प एवं सेवा का कार्य करने वाले आर्य ही थे जबकि निरवसित शूद्र आर्य नहीं थे, वे शिल्प एवं सेवा कार्यों से जुड़े हुए नहीं थे। वे अनार्य थे तथा उन्हें उदरपूर्ति के लिए अपवित्र कार्य करने पड़ते थे जिनमें मृतक पशुओं को गांवों एवं नगरों से उठाकर ले जाना, मृतक पशुओं के चर्म उतारना, उनकी अस्थियों का निस्तारण करना, शासक परिवारों के घरों से मैला उठाना आदि कार्य शामिल थे।

उस काल में ऐसे कार्य करने वाले लोगों को ही चाण्डाल कहा जाता होगा। यदि ‘गौतम धर्मसूत्र’ में शूद्रों के लिए वर्णित दण्ड विधान के वर्णन को वास्तविक मान लिया जाए तो वह दण्ड-विधान इन्हीं निरवसित शूद्रों अर्थात् चाण्डाल, श्वपच एवं निषाद आदि के लिए रहा होगा। ऐसे लोगों को वेदों के अध्ययन एवं यज्ञ आदि से वंचित किया गया होगा।

वर्ण आधारित दण्ड व्यवस्था

विभिन्न वर्णों के व्यक्तियों के लिए एक ही अपराध के लिए अलग-अलग दण्ड व्यवस्था की गई थी। ‘गौतम धर्मसूत्र’ के अनुसार ब्राह्मण का अपमान करने पर क्षत्रिय पर 100 कार्षापण की शास्ति की जा सकती थी। ब्राह्मण द्वारा वैश्य का अपमान करने पर केवल 25 कार्षापण दण्ड देने का विधान था। ‘आपस्तम्ब धर्म सूत्र’ में कहा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार वर्ण हैं और इनमें प्रथम तीन वर्ण जन्म के आधार पर अधिकाधिक श्रेष्ठ हैं।

इस प्रकार सूत्र ग्रन्थों के रचना काल में वर्ण-भेद न केवल पुष्ट हो गया था अपितु वर्ण का आधार जन्म को माना जाने लगा था किंतु इस काल में भी निम्न वर्ण का व्यक्ति धर्माचरण करके, अपने से उच्च वर्ण को प्राप्त कर सकता था। ‘आपस्तम्ब धर्मसूत्र’ में कहा गया है कि, ‘धर्माचरण द्वारा निकृष्ट वर्ण का व्यक्ति भी अपने से उच्च वर्ण को प्राप्त कर सकता है और अधर्म का आचरण करने पर उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने से निचले वर्ण में हो जाता है।’ अतः वर्ण परिवर्तन सर्वथा असम्भव नहीं था।

यदि आपस्तम्ब धर्मसूत्र के कथन पर विचार किया जाए तो यह संभव नहीं लगता कि उस युग में शूद्र को वेदमंत्र सुनने या बोलने पर कानों में सीसा भरने या जीभ काट लेने की व्यवस्था की गई होगी। पर्याप्त संभव है कि शूद्रों की जीभ काट लेने जैसी बातें बाद के किसी काल में जोड़ी गई होंगी।

महात्मा बुद्ध के काल में विभिन्न वर्णों की स्थिति

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में सूत्र-ग्रन्थों के रचना-काल आरम्भ हुआ तथा छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में ही बौद्ध एवं जैन-धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी के आविर्भाव के समय तक वर्ण व्यवस्था जन्म-आधारित होने लगी थी। इसीलिए बौद्ध साहित्य में वर्ण-भेद की आलोचना की गई है। बौद्ध साहित्य में जन्म के स्थान पर कर्म को अधिक महत्त्व दिया गया तथा समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना के विरुद्ध विचार व्यक्त किए गए।

क्षत्रिय वर्ण द्वारा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती: बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार इस युग में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ के लिए प्रतिद्वन्द्विता प्रारम्भ हो गई थी। बौद्ध धर्म का उद्भव पूर्वी भारत में हुआ था, जहाँ अनार्य लोगों की प्रधानता थी तथा याज्ञिक कर्मकाण्डों का अभाव था। वहाँ का क्षत्रिय वर्ण विशुद्ध आर्य क्षत्रिय न होकर ‘व्रात्य’ था। ‘व्रात्य क्षत्रियों’ द्वारा ब्राह्मणों की प्रमुखता के विचार को नकार दिया गया।

महात्मा बुद्ध के अनुसार जन्म से न तो कोई ब्राह्मण होता है और न कोई चाण्डाल। किसी व्यक्ति को ब्राह्मण या चाण्डाल केवल उसके कर्म के आधार पर कहा जा सकता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार केवल ब्राह्मण ही स्वर्ग का अधिकारी नहीं है, अपितु अपने पुण्य कर्मों द्वारा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी स्वर्ग प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते हैं।

ब्राह्मण वर्ण की स्थिति: जातक कथाओं में ऐसे ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने कृषि, वाणिज्य, सुथारी तथा पशु-चारण आदि विभिन्न व्यवसाय अपना लिए थे। उस युग में ऐसे ब्राह्मण भी हो गए थे जो धर्म विरोधी कार्यों में रत रहते थे। इस कारण बुद्ध द्वारा जन्म के आधार पर किसी को ब्राह्मण मानने का विचार नकार दिया गया।

वैश्य वर्ण की स्थिति: बौद्ध साहित्य के अनुसार वैश्य वर्ण में अनेक वर्गों के गृहपति सम्मिलित थे। इस वर्ण में श्रेष्ठि एवं सार्थवाह जैसे धनी वर्ग के वैश्य भी थे और लघु व्यवसाय तथा व्यापार करने वाले वैश्य भी थे।

शूद्रों की स्थिति: बौद्ध साहित्य में शूद्रों की स्थिति का वर्णन, पूर्ववर्ती सूत्र ग्रंथों के वर्णन से मेल नहीं खाता। सूत्र ग्रंथों में शूद्र को द्विजों की झूठन खाकर अपनी क्षुधाशान्त करने का निर्देशन किया गया है जबकि बौद्धकाल में परिश्रम करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले शिल्पी, नट, नर्तक, घसियारे, ग्वाले, सपेरे आदि शूद्र वर्ण के अन्तर्गत माने गए हैं।

इससे अनुमान होता है कि सूत्रग्रंथों में शूद्रों के उल्लेख सम्बन्धी वर्णन बाद के किसी काल में जोड़ दिए गए होंगे एवं सूत्रग्रंथ कालीन समाज में शूद्रों की स्थिति, बौद्ध कालीन शूद्रों की स्थिति से हेय नहीं रही होगी।

चाण्डाल आदि जातियाँ: बौद्ध साहित्य में चाण्डाल और निषाद जैसी कुछ जातियों का उल्लेख मिलता है जिन्हें शूद्रों से हीन माना गया है।

जैन-धर्म में वर्ण व्यवस्था की अस्वीकार्यता

जिस प्रकार महात्मा बुद्ध द्वारा जन्म के आधार पर श्रेष्ठता के विचार को नकार कर कर्म के आधार पर श्रेष्ठता का समर्थन किया गया, उसी प्रकार महावीर स्वामी ने भी जन्म के स्थान पर गुण-कर्म को सामाजिक स्थिति के लिए महत्त्वपूर्ण माना। अनेक प्राचीन जैन-ग्रंथों में इस प्रकार के विचार मिलते हैं।

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