मौर्योत्तर युग अर्थात् शुंग, कण्व एवं
सातवाहन काल में वर्ण-व्यवस्था
मौर्य शासकों ने बौद्ध एवं जैन-धर्म को राजकीय संरक्षण दिया किंतु इन धर्मों के अहिंसा के सिद्धांत के कारण मौर्य साम्राज्य का स्वयं का ही पतन हो गया और समाज में इन धर्मों के विरुद्ध प्रतिक्रिया उत्पन्न हुइ। जिसके फलस्वरूप ब्राह्मण-शासक वंशों क्रमशः शुंग, कण्व एवं सातवाहन आदि राजवंशों का उदय हुआ। ये राजवंश ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी थे।
इन वंशों के शासनकाल में प्राचीन वैदिक धर्म का नए रूप में पुनरुत्थान हुआ। बौद्ध और जैन-धर्म व्यक्ति के ‘कुल की श्रेष्ठता’ के स्थान पर व्यक्ति के ‘गुण एवं कर्म’ को अधिक महत्त्व देते थे किंतु शुंग एवं कण्व काल के साहित्य से ज्ञात होता है कि समाज में ब्राह्मणों की उत्कृष्टता को फिर से स्वीकार कर लिया गया तथा वर्ण-भेद को पुनः महत्त्व प्राप्त हो गया।
शुंग एवं कण्व वंशों के शासनकाल में मनुस्मृति, याज्ञवलक्य स्मृति, नारद स्मृति और बृहस्पति स्मृति को उनका वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ। पाणिनी कृत अष्टाध्यायी की रचना भी शुंग काल में हुई। भास के संस्कृत नाटकों का प्रणयन भी इसी काल में हुआ। इसी प्रकार वाल्मीकि कृत रामायण को भी वर्तमान स्वरूप शुंगकाल में तथा महाभारत को वर्तमान स्वरूप गुप्तकाल में प्राप्त हुआ।
मौर्योत्तर काल में ब्राह्मण वर्ण की स्थिति
जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था: शुंग, कण्व एवं सातवाहन काल के सम्पूर्ण साहित्य से स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का महत्त्व एवं ब्राह्मणों का वर्चस्व पुनः स्थापित हो गया था। पतन्जलि के ‘महाभाष्य’ से के अनुसार ब्राह्मण वर्ण जन्म पर आधारित था। पतन्जलि ने लिखा है कि ब्राह्मणों की जातिगत पहचान उनका गौर वर्ण का होना, कपिल रंग के बालों का होना तथा पिंगल रंग की आंखों वाला होना है।
मगध प्रदेश में जहाँ कृष्ण वर्ण के अनार्यों की प्रधानता थी, वहाँ शरीर के बाह्य रूप को देखकर ब्राह्मणों को पहचानना अत्यंन्त सरल था। ये ब्राह्मण सदाचारी, विद्वान और तपस्वी भी हो सकते थे, किंतु ऐसे भी जो विद्या एवं सत्कर्मों से रहित हों। ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न व्यक्ति के लिए पतन्जलि ने ‘जाति-ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग किया है।
विद्वान और मूर्ख, सदाचारी और कुकर्मी समस्त ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न व्यक्ति ‘जाति ब्राह्मण’ माने जाते थे किन्तु वर्ण में सम्मिलित होने के लिए ब्राह्मणोचित विद्या का ज्ञान एवं ब्राह्मणोचित कर्म का होना अनिवार्य था। इस प्रकार जो व्यक्ति गुण और कर्म दोने से ब्राह्मण हो, वही ब्राह्मण वर्ण में माना जाता था।
ब्राह्मण वर्ण के मुख्य कार्य: मनु स्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में ब्राह्मणों को अन्य वर्णों से श्रेष्ठ माना गया है। इस काल में ब्राह्मणों का प्रधान कार्य वेदों का अध्ययन-अध्यापन करना, यज्ञ करना और कराना तथा दान देना और ग्रहण करना था। अन्य वर्णों के लोग न तो वेदों का अध्यापन कर सकते थे, न यज्ञ करा सकते थे और न दान ग्रहण कर सकते थे।
मनु के अनुसार यदि ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति यह कार्य करता तो उसकी सम्पत्ति छीनकर उसे कारावास का दण्ड दिया जाता था। इन कार्यों को करने वाले ब्राह्मण के लिए विद्वान, तपस्वी और त्यागी होना आवश्यक था।
ब्राह्मण के लिए कठोर आदर्श: मनु ने व्यवस्था दी कि ब्राह्मणों का जीवन आदर्शयुक्त होने पर ही समाज में उनकी उच्च स्थिति स्वीकार की जा सकती थी। मनु ने ब्राह्मणों के लिए कठोर आदर्श प्रस्तुत किया। मनु ने लिखा है कि ब्राह्मण, खेतों में बचे रह गए दानों को बीन कर अपना जीवन निर्वाह करे। वह केवल इतना ही अन्न संचित करे जो एक कुम्भी (छोटी मटकी) में भरने के लिए पर्याप्त हो या जिससे उसके परिवार का तीन दिन के भोजन का काम चल सके।
ब्राह्मण को दान में अधिक धन ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि अधिक धन से उसकी वह आलौकिक शक्ति समाप्त हो जाती है जिसके कारण उसे समाज में प्रतिष्ठत स्थिति प्राप्त होती है। बौद्ध और जैन धर्मों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की स्थिति का इसी आधार पर विरोध किया था कि ब्राह्मण लोग आम लोगों की तरह जीवन व्यतीत करते थे तथा लोभ आदि से रहित नहीं थे।
अतः ब्राह्मणों की उत्कृष्टता पुनः स्थापित करने के लिए स्मृतिकारों ने इस बात पर बहुत अधिक बल दिया कि ब्राह्मणों का जीवन लोभ रहित हो। वे अकिन्चन-वृत्ति को अपनाने वाले हों और त्यागी-तपस्वी बनें। ऐसे ब्राह्मणों को ही समाज में विशिष्ट स्थिति प्राप्त होनी चाहिए।
ब्राह्मणों के विशेषाधिकार: स्मृतिकारों ने ब्राह्मणों के लिए अत्यंन्त उच्च आदर्श प्रस्तुत किए तथा उन्हें विशेषाधिकार भी दिए। मनु ने व्यवस्था दी कि जब ब्राह्मण, वेदाध्ययन के बाद स्नातक होकर गुरु के पास से लौट रहा हो, तब राजा को भी उसके लिए मार्ग छोड़़ देना चाहिए। चूँकि ब्राह्मण अकिन्चन-वृत्ति वाला होता है और उसके पास कोई सम्पत्ति संचित नहीं होती, अतः ब्राह्मणों से कर नहीं लिया जाए तथा राजा उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करे।
कर्मच्युत ब्राह्मणों की स्थिति: स्मृति-ग्रन्थों में ब्राह्मणों के जिन विशेषाधिकारों का उल्लेख किया गया है, वे केवल उन ब्राह्मणों के लिए थे जो वास्तव में विद्वान् और तपस्वी हों एवं उच्च आदर्शों से युक्त जीवन व्यतीत करते हों। सामान्य काम-धन्धे करने वाले ब्राह्मण करों से मुक्त नहीं थे और उन्हें ‘अदण्ड्य’ नहीं माना जाता था।
महाभारत में लिखा है कि जो ब्राह्मण ‘अश्रोत्रिय’ (वेदों के ज्ञान से रहित) और ‘अनाहिताग्नि’ (यज्ञों से रहित) हों, उनसे कर और बेगार ली जानी चाहिए। स्मृति-ग्रन्थों के अनुसार जो ब्राह्मण ज्ञानी और तपस्वी न हों, उनसे अन्य प्रजाजनों के समान ही कर लिया जाना चाहिए। स्मृति-ग्रन्थों से ज्ञात है कि यद्यपि मौर्योत्तर युग में वर्ण का निर्धारण, गुण-कर्म पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित था तथापि कर्म-च्युत ब्राह्मण अपनी स्थिति से गिर जाते थे।
मनुस्मृति में ऐसे ब्राह्मणों की सूची दी गई है जिन्हें विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों की पंक्ति में बैठने का अधिकार नहीं था। मनु ने चोरी करने वाले, जुआ खेलने वाले, मांस बेचने वाले, व्यापार करने वाले, सूदखोर, नट, गायक व नर्तक, खेती करने वाले, भीख मांगने वाले, पशुओं का क्रय-विक्रय करने वाले, शिल्पकर्म करने वाले, चिकित्सक या पुजारी का काम करने वाले और वृत्ति ग्रहण करके शिक्षण करने वाले ब्राह्मणों को शूद्रों के समकक्ष माना है और लिखा है कि ऐसे ब्राह्मण सीधे नर्क में जाते हैं।
ब्राह्मणों के लिए कठोर दण्ड विधान: समाज में ब्राह्मणों की उच्च स्थिति के कारण उन्हें कुछ विशेष प्रकार के दण्डों से मुक्त रखा गया था किन्तु व्यभिचार, सुरापान तथा चोरी जैसा अपराध करने वाले ब्राह्मण के लिए कठोर दण्ड का विधान किया गया। बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार ऐसे अपराध करने वाले ब्राह्मण के सिर (ललाट) पर जलते हुए लोहे से दाग लगा कर उसे देश से बहिष्कृत कर देना चाहिए।
मौर्योत्तर काल में क्षत्रिय वर्ण की स्थिति
मौर्योत्तर काल में क्षत्रियों की स्थिति न्यूनाधिक वही थी, जो उत्तर-वैदिक-काल एवं मौर्य काल में थी। बौद्धकाल में क्षत्रियों ने श्रेष्ठता के लिए ब्राह्मणों से प्र्रतिस्पर्द्धा की किंतु मौर्योत्तर काल में क्षत्रियों ने ब्राह्मणों से प्र्रतिस्पर्द्धा करना बंद कर दिया। इस काल में ब्राह्मण वर्ण को सर्वश्रेष्ठ वर्ण स्वीकार कर लिया गया।
इस काल में भी क्षत्रियों के प्रधान कार्य अध्ययन करना, यज्ञ करना, शस्त्र धारण करना, दान देना तथा बाह्य एवं आन्तरिक शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करना माना जाता था। समाज में उनकी स्थिति सर्वसाधारण से श्रेष्ठ एवं ऊँची समझी जाती थी। ब्राह्मणों की तरह क्षत्रिय वर्ण भी जन्म पर आधारित था। मौर्योत्तर युग में वैश्यकर्म करके जीविकोपार्जन करने वाले क्षत्रिय भी थे। मनु-स्मृति और याज्ञवल्क्य-स्मृति में क्षत्रियों को संकटकालीन परिस्थितियों में वैश्यों के कर्म करने की अनुमति दी गई है।
मौर्योत्तर काल में वैश्य वर्ण की स्थिति
इस काल में भी वैश्यों को उत्तरवैदिक-काल की भांति द्विज होने का गौरव प्राप्त था। उनका उपनयन संस्कार होता था। वैश्य वर्ण के प्रधान कार्य पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, खेती, पशु-पालन, व्यापार, व्यवसाय और महाजनी करना था किन्तु संकटकालीन परिस्थितियों मे वैश्यों को शस्त्र धारण करने का अधिकार दिया गया था, ताकि वे समाज की एवं अपनी रक्षा कर सकें।
बौद्ध युग की भांति मौर्योत्तर युग में भी बहुत से वैश्य, श्रेष्ठि तथा सार्थवाह के रूप में अपार धन अर्जित करते थे। साधारण किसानों, पशुपालकों एवं वणिजों की तुलना में इनकी सामाजिक स्थिति थोड़ी ऊँची होती थी। इस युग के अभिलेखों में ऐसे अनेक धनी श्रेष्ठियों का उल्लेख है जो अपने धन से मन्दिर आदि धर्मस्थानों तथा सार्वजनिक उपयोग के सरोवरों, सरायों, भवनों आदि का निर्माण करवाते थे।
मौर्योत्तर काल में शूद्र वर्ण की सामाजिक स्थिति
मौर्योत्तर काल में शूद्रों की सामाजिक स्थिति, पूर्ववर्ती समस्त कालों से हीन हो गई थी। वे वेदाध्ययन, याज्ञिक कर्मकाण्ड एवं अनुष्ठान नहीं कर सकते थे। उन्हें केवल इतिहास-पुराण का श्रवण करके अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करने की अनुमति थी। उनके लिए यही पर्याप्त था कि वे देवताओं का स्मरण करके उनके प्रति नमस्कार निवेदित करें। तीनों उच्च वणों की सेवा करना ही शूद्रों का प्रधान कार्य था।
साधारणतः उनकी अपनी कोई सम्पत्ति नहीं होती थी। उनके लिए दण्ड-विधान भी कठोर था। यद्यपि मौर्योत्तर युग में शूद्रों की स्थिति अत्यंन्त हीन थी, फिर भी वे अस्पृश्य नहीं थे। मनु के अनुसार ब्राह्मण ऐसे शूद्र के यहाँ भोजन कर सकता था जो उसकी सेवा में पशुपालक का कार्य करता हो। बौद्ध-युग से पूर्व तो शूद्र, उच्च-वर्ण गृहस्थों के घरों में भोजन बनाने का कार्य भी करते थे किन्तु कालान्तर में रसोइये का कर्म शूद्रों से ले लिया गया।
पाराशर समृति के अनुसार ब्राह्मण, किसी शूद्र के द्वारा पकाया हुआ ऐसा भोजन कर सकता था जिसे घी, तेल और दूध में बनाया गया हो। अर्थात् शूद्रों द्वारा निर्मित पक्का भोजन उच्चवर्ण के लिए ग्राह्य था, किन्तु कच्चा भोजन ग्राह्य नहीं था। शूद्रों में उपनयन संस्कार नहीं होता था, अतः वे ब्राह्मचारी रहकर विद्याध्ययन नहीं कर सकते थे। वे वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम में प्रवेश नहीं कर सकते थे।
मौर्योत्तर काल में शूद्र जातियाँ
पतन्जलि के महाभाष्य में उन जातियों का उल्लेख है जिन्हें शूद्र वर्ण के अन्तर्गत माना जात था। पतन्जलि ने रथकारों, धीवरों (कहारों), तंतुवायों (जुलाहों), कुम्भकारों (कुम्हारों), अयस्कारों (लुहारों), नापितों (नाइयों), चर्मकारों (चमारों), आमीरों और धोबियों को शूद्र माना है। वैदिक एवं उत्तरवैदिक-काल में ये जातियाँ शिल्पी कहलाती थीं और ‘विश’ की साधारण प्रजा के अन्तर्गत थी। मौर्य काल एवं मौर्योत्तर काल में इन्हें शूद्र माना जाता था।
वर्ण आधारित दण्ड विधान
इस काल में भी दण्ड विधान वर्ण आधारित था। प्रत्येक वर्ण के लिए एक ही अपराध का अलग-अलग दण्ड विधान था। यदि कोई शूद्र ब्राह्मण-स्त्री से संभोग करे तो उसके लिए प्राणदण्ड की व्यवस्था थी किन्तु किसी ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय या वैश्य स्त्री से सम्भोग करने पर केवल अर्थ दण्ड का विधान था। यदि कोई शूद्र ब्राह्मण को गाली दे तो उसकी जीभ काट ली जाती थी किन्तु यदि ब्राह्मण किसी शूद्र को गाली दे तो उसे केवल 12 पण का दण्ड भरना होता था।
वर्णसंकर जातियाँ
प्राचीन ‘आर्य-जनों’ (कबीलों) का जब पूर्वी भारत के मगध, अंग और बंग के अनार्यों तथा दक्षिणी भारत के अनार्यों से सम्पर्क हुआ तो उनमें पारस्परिक वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे। इन विवाहों से उत्पन्न सन्तान को चातुर्वण्य में समाहित करने के लिए उन्हें ‘व्रात्य’ (व्रत द्वारा समाज में सम्मिलित) मान लिया गया।
अनार्यों में जो भी सैनिक थे, वे विशुद्ध क्षत्रिय न होकर ‘व्रात्य’ ही थे। वज्जि, मल्ल, लिच्छवी आदि सब ‘व्रात्य-क्षत्रिय’ ही थे। दक्षिणी और पूर्वी भारत के जनपदों में न केवल क्षत्रिय, अपितु ब्राह्मण भी वर्णसंकर थे। सातवाहन राजा जन्म से ब्राह्मण समझे जाते थे किन्तु उनमें अनार्य रक्त विद्यमान था। मनुस्मृति के अनुसार भूर्जकंटक और आवन्त्य, ‘व्रात्य ब्राह्मणों’ की सन्तान थे और मल्ल, झल्ल तथा लिच्छवियों की उत्पत्ति ‘व्रात्य क्षत्रियों’ से हुई थी।
कारूष और सात्वत ‘व्रात्य वैश्यों’ की सन्तान थे। वैश्य और क्षत्रियों के सम्मिश्रण से ‘मागध’ और वैश्य तथा ब्राह्मणों के सम्मिश्रण से ‘वैदेह’ लोगों की उत्पत्ति हुई थी। मनुस्मृति का कथन है कि मागध, वैदेह, आवन्त्य, लिच्छवि आदि वंश शुद्ध आर्य नहीं थे। चूँकि उन्होंने भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर ली थी, इसलिए उन्हें व्रात्य-ब्राह्मण, व्रात्य-क्षत्रिय, व्रात्य-वैश्य और वर्णसंकर के रूप में चातुर्वण्य की परिधि में लाया गया। शनैः शनैः वे चातुर्वर्ण्य में पूरी तरह विलोपित हो गए।
विदेशी आक्रांताओं का क्षत्रिय वर्ण में समायोजन
ईसा पूर्व की शतादियों में यूनानियों ने एवं ईसा की प्रारिम्भक शताब्दियों में शकों, कुषाणों एवं हूणों आदि विदेशी जातियों ने भारत पर आक्रमण किए एवं विभिन्न भागों पर अधिकार कर लिया। वे भारत के विविध जनपदों में बस गए। विजेता होने के कारण उनकी सामाजिक और राजनैतिक स्थिति ऊँची थी। वर्ण-भेद के विचारों से शून्य होने के कारण, बौद्ध एवं जैन-धर्म के लिए विदेशी म्लेच्छ विजेताओं को अपने धर्म में आत्मसात करने में विशेष कठिनाई नहीं हुई।
इन शक्तिशाली अनार्यों को सनातन आर्य धर्म के चातुर्वण्य में समाहित करने के लिए जिस विशेष नीति का प्रतिपादन किया गया, वह इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की है। आर्य ब्राह्मणों ने व्यवस्था दी कि यवन, शक, पल्हव, द्रविड़़, पौण्ड्रक आदि समस्त जातियाँ मूलतः क्षत्रिय थीं किन्तु ब्राह्मणों से सम्पर्क न रहने के कारण ये वृषलत्व (म्लेच्छत्व) को प्राप्त हो गयीं। अब इन्हें पुनः ब्राह्मणों का सम्पर्क मिल गया और इन्होंने वैदिक सम्प्रदायों को अपना लिया है, इसलिए इन्हें क्षत्रिय समझा जाना चाहिए।
इस प्रकार समस्त विदेशी आक्रांता मनु द्वारा प्रतिपादित क्षत्रिय वर्ण में सम्मिलित मान लिए गए। ब्राह्मणों के सम्पर्क से वे वासुदेव कृष्ण और शिव की उपासना करते थे और उनमें वृषलत्व शेष नहीं रह गया था। इन विदेशी म्लेच्छों के पुरोहित, ‘ब्राह्मण वर्ण’ में सम्मिलित कर लिए गए, क्योंकि उन्होंने भी प्राचीन आर्य-धर्म को अंगीकार कर लिया था।
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