रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी के साहित्य की एक ऐसी अनूठी विशेषता है जिसका जोड़ कहीं अन्यत्र देखना कठिन है। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत पर मुसलमानों का शासन था किंतु वह शताब्दी गोस्वामी तुलसीदास की थी। उस काल में भारत भर में तुलसीदास के समान लोकप्रिय एवं लोकहितकारी मनुष्य और कोई नहीं हुआ।
भारतीय जनमानस पर रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभाव शताब्दियों को लांघकर कालजयी बन गया है। यही कारण है कि आज भी गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित साहित्य राष्ट्र एवं लोक के लिए उतना ही प्रासंगिक एवं आवश्यक है जितना कि सोलहवीं शताब्दी के भारत के लिए था।
यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास का सम्पूर्ण साहित्य धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म को लक्ष्य बनाकर लिखा गया है तथापि उनका सर्वप्रधान लक्ष्य लोकमंगल है। किसी कालजयी साहित्य के जितने भी विराट् लक्ष्य हो सकते हैं, गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य उन लक्ष्यों को एक साथ साधता है। इस लेख में हम गोस्वामीजी के महाकाव्य रामचरित मानस में लिखित ज्योतिषीय उल्लेखों पर चर्चा कर रहे हैं।
ज्योतिष भारतीय लोकजीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रत्येक हिन्दू अपने जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के लिए कभी न कभी ज्योतिषशास्त्र की किसी न किसी शाखा का सहारा लेता ही है। लोकजीवन का अंग होने के कारण गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में ज्योतिष को स्थान मिलना ही था।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ग्रंथों की वास्तविक सूची के बारे में यद्यपि अभी तक अंतिम निर्णय नहीं हो पाया है तथापि नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा 12 ग्रंथों को गोस्वामीजी द्वारा प्रणीत माना गया है-
1. रामचरित मानस,
2. रामलला नहछू,
3. वैराग्यसंदीपनी,
4. बरवै रामायण,
5. पार्वती मंगल,
6. जानकी मंगल,
7. रामाज्ञा-प्रश्न,
8. दोहावली,
9. कवितावली,
10. गीतावली,
11. कृष्णगीतावली,
12. विनय पत्रिका।
यह ग्रंथ सूची पूरी नहीं है। हनुमान बाहुक तथा हनुमान चालीसा गोस्वामीजी द्वारा रचित दो ऐसे लघु ग्रंथ हैं जिन्हें ग्रंथों का रत्न कहा जा सकता है। करोड़ों भारतीय प्रतिदिन इन दोनों अथवा इनमें से किसी एक ग्रंथ का पाठ करते ही हैं, ठीक रामचरित मानस की तरह। कुछ और ग्रंथ भी गोस्वामीजी द्वारा रचित हो सकते हैं। इन समस्त ग्रन्थों में से ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ को छोड़कर एक भी ज्योतिष-ग्रंथ नहीं है किंतु इन सभी ग्रंथों में प्रसंगवश ज्योतषीय उल्लेख मिलते हैं।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख
रामचरित मानस लोकजीवन का ग्रंथ है। इसमें दशरथ पुत्र राम को न केवल पूर्णब्रह्म परमात्मा के अवतार के रूप में, अपितु लोकजीवन के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भारत में इस ग्रंथ के समान कोई अन्य ग्रंथ लोकप्रियता का स्तर स्पर्श नहीं कर सका है। इस ग्रंथ में सैंकड़ों स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी तथ्यों का उल्लेख हुआ है। इनमें नक्षत्र-दर्शन, ग्रह गोचर, स्वप्नफल, शुभ-दिन, जन्मकुण्डली मिलान, शकुन विचार, उल्कापात आदि विषयक तथ्य कहे गए हैं।
काल की प्रबलता का विचार
रामचरित मानस में काल की प्रबलता को स्वीकार किया गया है जो कि ज्योतिष शास्त्र की प्रमुख अवधारणा है। अयोध्याकाण्ड में राम-वनवास प्रसंग में जब रानी कैकेई रामजी को वनवास भेजने के लिए हठ पकड़ लेती है तब राजा दशरथ कहते हैं कि तेरा कोई दोष नहीं है, मेरा काल (मृत्यु) तेरे ऊपर आकर बैठ गया है, वही तुझसे इस प्रकार के वचन कहलवा रहा है-
मरम बचन सुनि राउ कह, कहु कछु दोष न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि काल कहावत मोरि।।
काल के भी काल का विचार
लंकाकाण्ड में उल्लेख आया है कि विभीषणजी रावण को श्रीराम के ईश्वरत्व के बारे में बताते हुए कहते हैं कि राम मनुष्य या राजा मात्र नहीं हैं, वे सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी तथा कालों के काल हैं-
‘तात राम नहीं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु कर काला।’
जब हम ‘कालों के काल’ के आशय पर विचार करते हैं तो इसके कई अर्थ निकल सकते हैं, यथा-
1. राम ‘काल’ अर्थात् ‘समय’ के स्वामी हैं,
2. राम काल को भी मृत्यु देने वाले हैं,
3. राम ‘मृत्यु’ को भी ‘मृत्यु’ देने वाले हैं, आदि।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – काल गणना का विचार
भारत में किसी महत्वपूर्ण कार्य अथवा घटना के समय का अंकन करने के लिए संवत्, मास, तिथि, वार आदि का उल्लेख किया जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में, ज्योतिष परम्परा के अनुसार ग्रंथ आरम्भ करने की तिथि का इसी प्रकार उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि संवत 1631 के मधुमास (चैत्रमास) की नवमी तिथि, मंगलवार को यह चरित प्रकाशित हुआ-
संबत सोरह सै एकतीसा, करउँ कथा हरि पद धर सीसा।
नौमी भौम बार मधुमासा, अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – संवत् सम्बन्धी अवधारणा
संवत् का अर्थ एक ‘वर्ष’ की अवधि से है। भारतीय ज्योतिष में एक कहावत प्रचलित है कि ‘यदि संवत्सर न होता तो मुहूर्त, तिथि, नक्षत्र, ऋतु और अयन, सभी व्याकुल रहते।’ रामचरित मानस में संवत् का उल्लेख अनेक दोहों एवं चौपाइयों में हुआ है। बालकाण्ड में उल्लेख है कि जब भी मकर संक्रांति आती है तो ऋषि-मुनि तीर्थराज प्रयाग में स्नान करने के बाद अपने स्थानों के लिए प्रस्थान करते हैं। यह आनंद प्रति वर्ष होता है-
‘प्रति संबत अति होई अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनि बृंदा।’
बालकाण्ड में ही उल्लेख हुआ है कि सत्तासी हजार वर्ष तक समाधिस्थ रहने के बाद भगवान शिव ने अपनी समाधि छोड़ी-
‘बीते संबत सहस सतासी, तजी समाधि संभु अबिनासी।’
पार्वती द्वारा शिव को वर प्राप्त करने के लिए की गई तपस्या के संदर्भ में कहा गया है कि एक हजार साल तक पार्वती ने वनों में उगने वाले मूल एवं फल खाए और उसके बाद सौ साल केवल शाक खाकर व्यतीत किए-
‘संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए।’
मनु और शतरूपा द्वारा भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए जो तपस्या की गई, उसके वर्णन में गोस्वामीजी ने लिखा है कि मनु और शतरूपा ने साठ हजार सालों तक केवल पानी ही आहार रूप में ग्रहण किया और उसके बाद सात हजार साल तक केवल हवा को ही प्राणों का आधार बनाया। एक हजार साल तक बिना हवा के, एक पैर पर खड़े रहे-
एहि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार।
बरस सहस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ।।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – कल्प सम्बन्धी अवधारणा
हजारों वर्षों की तपस्याओं के बारे में सुनकर बहुत से लोग इन कथनों पर अविश्वास करने लगते हैं। वस्तुतः भारतीय धर्मशास्त्रों में वर्णित इतिहास केवल वर्तमान सृष्टि का नहीं है, अपितु इन धर्मशास्त्रों में काल के गाल में समा चुकी बहुत सी सृष्टियों का वर्णन हुआ है जिनमें से कुछ इस धरती पर घटित हुई थीं तो कुछ सृष्टियाँ अलौकिक होने के कारण इस इस लोक में न होकर किसी अन्य लोक में घटित हुई थीं। इनमें से कुछ घटनाएँ मानवीय न होकर प्राकृतिक घटनाओं से सम्बन्ध रखती हैं।
इन घटनाओं के संदर्भ स्पष्ट नहीं होने से हमें हजारों सालों की तपस्याओं के बारे में जानकर विश्वास नहीं होता। ऐसी सृष्टियों में काल की गणना संवत् अर्थात् 365 दिन के कैलेण्डर में नहीं की जाती, अपितु युगों, चतुर्युगों, महायुगों एवं कल्पों में चलती है। ठीक उसी तरह जिस तरह खगोलीय पिण्डों की दूरी मीटर या किलोमीटर में न नापी जाकर, प्रकाशवर्ष में नापी जाती है। प्रकाश की किरण एक वर्ष में लगभग 95 खरब किलोमीटर चल सकती है, इस दूरी को एक प्रकाशवर्ष कहते हैं। जिस तरह प्रकाशवर्ष दूरी नापने की इकाई है, उसी प्रकार ‘कल्प’ काल की अवधि नापने की बड़ी इकाई है।
भारतीय धर्मशास्त्रों एवं ज्योतिषशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन को एक ‘कल्प’ कहते हैं। एक कल्प की अवधि मानवों के 432 करोड़ वर्ष के बराबर होती है। रामचरित मानस में भी काल की इस बड़ी इकाई अर्थात् ‘कल्प’ का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है। प्रत्येक कल्प में 14 मन्वंतर होते हैं अर्थात् एक कल्प में 14 सृष्टियां जन्म लेती हैं और 14 बार प्रलय होती है।
प्रत्येक नई सृष्टि, पहले वाली सृष्टि से बिल्कुल अलग होती है किंतु पुरानी सृष्टि का कोई मनुष्य नई सृष्टि के लिए नया मनु बनता है। प्रत्येक सृष्टि में भगवान के कई-कई अवतार होते हैं। रामचरित मानस में विभिन्न कल्पों में हुए अवतारों की चर्चा बहुत संक्षेप में हुई है। पूर्व के किसी कल्प में भगवान ने जलंधर नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार धारण किया-
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे।।
एक अन्य पूर्व कल्प का उल्लेख करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है कि एक बार नारद मुनि ने भगवान को श्राप दिया। इस कारण एक कल्प में भगवान को अलग से अवतार लेना पड़ा-
‘नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।’
वर्तमान कल्प में भगवान कौसल्या एवं दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित हुए।
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा।।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – कल्पांत में भी न मरने वाले भक्त
हिन्दू धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि काल प्रत्येक जीव को मृत्यु देता है किंतु भगवान के कुछ भक्तों का नाश कभी नहीं होता। वे कल्पांत में भी नहीं मरते। रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में भगवान शिव ऐसे ही एक भक्त कागभुशुण्डि का उल्लेख करते हुए, पार्वती से कहते हैं-
‘तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।’
उत्तरकाण्ड में ही उल्लेख आया है कि जब भगवान राम ने अपनी बाल्यावस्था में कागभुशुण्डि को अपने मुख में ले लिया तो कागभुशुण्डि ने भगवान के उदर के भीतर करोड़ों ब्रह्माण्ड देखे जिनमें काकभुशुण्डि एक-एक सौ वर्ष तक रहे। इस प्रकार वे भगवान के उदर में सौ कल्पों तक घूमते फिरे-
एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहउँ बरष सत एक।
ऐहि बिधि देखत फिरऊँ मैं अण्ड कटाह अनेक।
भ्रमत मोहि ब्रह्माण्ड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।
इसी प्रकार रामचरित मानस में लोमश ऋषि का भी उल्लेख हुआ है जिनकी आयु इतनी अधिक है कि जब कल्पान्त में ब्रह्माजी का लय होता है, तब इनका केवल एक रोम (लोम) गिर जाता है।
ऐसे और भी उदाहरण हैं जिनमें काल की इतनी दीर्घ अवधि का उल्लेख हुआ है जो कि भारतीय ज्योतिष की अनूठी कालगणन विधि पर आधारित है।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – युगों की अवधारणा
भारतीय धर्मग्रंथों में चार युगों की अवधारणा है- कृतयुग (सतयुग), त्रेता, द्वापर, कलियुग। सतयुग में धर्म के चार चरण रहते हैं, त्रेता में धर्म के तीन चरण रहते हैं, द्वापर में धर्म के दो चरण रहते हैं तथा कलियुग में धर्म का एक ही चरण बचता है। इसी कारण कलियुग लंगड़ा है। रामचरित मानस में चतुर्युग की अवधारणा का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है-
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भइ कृतजुग कै करनी।
एक बार त्रेता जुग माहीं, संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।
काल के शुभ-अशुभ होने का विचार
वैदिक ऋषियों ने यज्ञों के लिए शुभ समय का पता लगाने के लिए ही कालगणना आरम्भ की। रामचरित मानस में शुभ-अशुभ समय का उल्लेख बार-बार हुआ है जो कि ज्योतिषीय गणना से ही ज्ञात हो सकती है।
पर्वतराज हिमालय ने शिव-पार्वती विवाह के लिए ज्योतिष के अनुसार शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ घड़ी, शुभ लग्न और शुभ मुहूर्त निर्धारित करवाने के बाद लग्नपत्रिका लिखवाई-
सुदिनु सुनखतु सुधरी सोचाई। वेगि बेदविधि लगन धराई।।
सीता स्वयंवर में विश्वामित्र शुभ समय जानकर रामचंद्रजी को धनुषभंग करने के लिए उठने का आदेश देते हैं-
विश्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सीता-राम विवाह के लिए दशरथजी और जनकजी दोनों राजा अपने-अपने ज्योतिषियों से शुभ मुहूर्त निलवाते हैं। इस प्रसंग में गोस्वामीजी ने लिखा है कि ब्रह्माजी ने स्वयं हेमन्त ऋतु, अगहन मास, शुभ ग्रह, शुभ तिथि, शुभ योग, शुभ नक्षत्र और श्रेष्ठ वार शोधकर मुहूर्त निकाला-
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।
मंगल मूल लगन दिन आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।
महाराजा जनक के ज्योतिषों ने भी शुभ मुहूर्त की वही गणना कर रखी थी-
‘गुनी जनक के गनकन्ह जोई।’
रामचरित मानस में बेला का भी उल्लेख हुआ है। राजा जनक ने गोधूलि बेला में बारात का स्वागत किया। इसी प्रकार बरात की विदाई के अवसर पर राजा जनक ने सुलग्न अर्थात् शुभ मुहूर्त का विचार किया-
प्रेम बिबस परिवारु सब जानि सुलगन नरेस। कुंअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।
जब चारों राजकुमार अयोध्या लौट आते हैं और विवाहोत्सव पूर्ण हो जाता है तब शुभ मुहूर्त में उनकी कलाइयों के कंकण खोले गए-
सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।
अयोध्याकाण्ड में उल्लेख है कि जब महाराजा दशरथ ने गुरु वसिष्ठ से कहा कि मैं राम को युवराज बनाना चाहता हूँ। तो वसिष्ठ ने कहा कि आप राम को युवराज बनाने में विलम्ब न करें। जिस समय राम युवराज होंगे, वह दिन बहुत शुभ एवं मंगलकारी होगा।
बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।
जब राजा जनक को यह समाचार मिला कि राजकुमार भरत अपने भाई श्रीराम को मनाने चित्रकूट गए हैं तो वे भी अपने मंत्रियों एवं परिवार को लेकर चित्रकूट के लिए रवाना हो गए। वे यात्रा आरम्भ करने के लिए ग्रह-नक्षत्र आदि पर विचार न करके दो घड़ी में मिलने वाले शुभ मुहूर्त में रवाना हो गए-
दुघरी साधि चले तत्काला। किए बिश्राम न मग महिपाला।।
इसी प्रकार जब भरतजी चित्रकूट से रामजी की पादुकाएं लेकर अयोध्या लौटते हैं तो वे गणक (ज्योतिषों) को बुलाकर शुभ घड़ी में पादुकाओं को सिंहासन पर निर्विघ्न विराजमान करते हैं-
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।।
जब भगवान राम अपने महल में चले गए, तो अयोध्या के नर-नारी सुखी हुए। गुरु वसिष्ठ ने ब्राह्मणों को बुलाकर कहा आज शुभ घड़ी, शुभ दिन तथा समस्त शुभ योग हैं।
शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष की अवधारणा
प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं- शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती जाती हैं और कृष्णपक्ष में घटती जाती हैं। इसी तथ्य को कवि ने सुयश और अपयश के रूप में चित्रित किया है। गोस्वामीजी लिखते हैं कि शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में चंद्रमा का प्रकाश एक जैसा ही होता है किंतु चूंकि एक पक्ष में चंद्रमा घटता है इसलिए उसे काला (कृष्णपक्ष) नाम का अपयश मिला जबकि दूसरे पक्ष में चंद्रमा बढ़ता है, इसलिए उसे श्वेत (शुक्लपक्ष) नाम का यश मिला-
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।
ग्रह एवं नक्षत्रादि योग
गोस्वामीजी ने रामकथा के विभिन्न प्रसंगों में ग्रह-नक्षत्रों का उल्लेख बार-बार किया है। रामचंद्र के जन्म-समय के ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है सुखों के मूल ‘राम-जन्म’ पर समस्त नक्षत्रों के योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। चेतन और जड़ सभी प्रसन्न हो उठे। कहने का आशय यह कि लोक में कार्य-सिद्धि के लिए नक्षत्रों के योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि अनुकूल होने चाहिए, इसलिए रामचंद्रजी के जन्म के समय समस्त ग्रह-नक्षत्र स्वयं ही अनुकूल हो गए।
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – नौ ग्रहों की शोभा
एक चौपाई में अंतरिक्ष में विराजमान ग्रहों की शोभा का वर्ण करते हुए गोस्वामीजी लिखते हैं- ऐसा लगता है मानो नौ ग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो-
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।
नवग्रह वन्दना
एक दोहे में गोस्वामीजी ने ग्रहों को देवताओं, ब्राह्मणों एवं पण्डितों की श्रेणी में रखते हुए कहा है कि देवता, ब्राह्मण, पंडित और ग्रह के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप सब प्रसन्न होकर मेरे समस्त मनोरथ पूरे करें-
बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि।।
मघा नक्षत्र में वर्षा की अवधारणा
मघा नामक नक्षत्र के बादल मूसलाधार वर्षा के कारक होते हैं। ज्योतिष की इस धारणा को रामचरित मानस में भी व्यक्त किया गया गया है। जब कुंभकरण वध हो जाने के बाद मेघनाद रणभूमि में आता है तो वह अपने धनुष से बाणों की वृष्टि सी कर देता है। इसका वर्णन करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है-
‘मानहुं मघा मेघ झरि लाई।’
ग्रहों की संक्रांति की अवधारणा
रामचरित मानस में ग्रहों की संक्रांति के अध्यात्मिक महत्त्व की अवधारणा भी उपलब्ध है जिसकी गणना ज्योतिषशास्त्र में होती है। गोस्वामीजी ने मकर संक्रांति के अध्यात्मिक महत्त्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि माघ मास में जब सूर्य मकर राशि का संक्रमण करता है तब समस्त जन तीर्थपति प्रयागराज में आते हैं- ‘माघ मकरगत रबि जब होई, तीरथपतहिं आव सब कोई।’
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – बुरे ग्रहों की अवधारणा
ज्योतिष शास्त्र में राहु, केतू और शनि को पापग्रह माना गया है। गोस्वामीजी ने रामचरित मानस में बुरे मनुष्यों की तुलना राहु-केतु एवं शनि आदि पापग्रहों से की है। एक चौपाई में उन्होंने लिखा है कि विष्णु और शिव के यशस्वी पूर्णिमा रूपी चन्द्रमा के लिये, दुष्टजन राहु के समान हैं। वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए सहस्रबाहु के समान बलवान हैं-
हरिहर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।
जिस प्रकार केतु के उदय होने पर मनुष्य का बुरा होता है। उसी प्रकार कुछ लोग अपनी शक्ति बढ़ने पर दूसरों का अनिष्ट करते हैं-
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।
आदमी को जब बुरे ग्रह घेर लेते हैं तो जीवन में उसका हर ओर से अनिष्ट होता है। भारतीय ज्योतिष की इस अवधारणा को गोस्वामीजी ने एक दोहे में इस प्रकार लिखा है कि जिसे बुरे ग्रह लगे हों, फिर जो वायुरोग से पीड़ित हो और उसी को फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाए, तो कहिए यह कैसा इलाज है-
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।
शनि की साढ़े साती
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब शनि किसी राशि में साढ़े सात साल रहता है तो उसे साढ़े साती कहते हैं तथा वह अवधि जातक के लिए कष्टकारक होती है। अयोध्याकाण्ड में मंथरा को अयोध्या की साढ़ेसाती कहा गया है जो रानी कैकेई को भड़काकर रामजी को वनवास दिलवाती है।
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।
ज्योतिषी से परामर्श
भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्व में ही पता लगाने के लिए भारत में ज्योतिषी से परामर्श करने की परम्परा रही है। इस परम्परा का उल्लेख रामचरित मानस में भी हुआ है- दासी मंथरा रानी कैकेई को भ्रमित करने के लिए कहती है कि मैंने ज्यातिषियों से गणित करवाई है और उन्होंने बताया है कि भरत राजा होंगे-
पूंछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खींची, भरत भुआल होहिं यह सांची।
राहु द्वारा सूर्य-चंद्र ग्रहण
परशुराम-लक्ष्मण संवाद में परशुराम अकारण श्रीराम पर क्रोध करते हैं तब श्रीराम विचार करते हैं कि कहीं-कहीं सीधापन भी दोष होता है। टेढ़े चन्द्र को राहु भी नहीं ग्रसता-
बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू।
चन्द्र दर्शन विचार
ज्योतिष में मान्यता है कि चतुर्थी के चंद्रमा के दर्शन नहीं किए जाते। रामचरित मानस में भी यह अवधारणा व्यक्त हुई है। जब रावण सीताजी का हरण करके ले आता है तब विभीषणजी रावण को समझाते हुए कहते हैं-
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं।।
शकुन विचार
रामचरित मानस में शकुन विचार के उद्धरण सैंकड़ों हैं। अच्छे और बुरे दोनों तरह के शकुन कहे गए हैं। जब राजा दशरथ के आदेश से रामचंद्र की बारात ने अयोध्या से जनकपुरी के लिए प्रस्थान किया, तब जो शुभ-शकुन हुए, उनका वर्णन गोस्वामीजी ने इस प्रकार किया है-
बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।
चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।
अर्थात्- बारात इतनी सुंदर बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो।
दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा।।
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी।।
अर्थात्- दाहिनी ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं।
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।।
मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।
अर्थात्- लोमड़ी बार-बार दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली बाईं ओर से घूमकर दाहिनी ओर आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया।
छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।।
सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।
अर्थात्- सफेद सिर वाली चील विशेष रूप से क्षेम (कुशल) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान-ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए।
मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।
अर्थात्- समस्त मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक साथ घटित हो गए।
दशा विचार
राम वनगमन के समय गोस्वामीजी ने देवताओं के अनुरोध पर सरस्वती के अयोध्या आगमन की तुलना, खराब दशा के आने से की है-
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।
छींक विचार
जब निषादराज को ज्ञात हुआ कि भरतजी एक सेना लेकर चित्रकूट जा रहे हैं तो निषादराज ने समझा कि भरतजी रामजी पर आक्रमण करने जा रहे हैं। इसलिए वह युद्ध के निश्चय से उठा किंतु उसी समय छींक हो गई। इस पर एक वृद्धि व्यक्ति ने शकुन विचार कर कहा कि भरतजी से युद्ध नहीं होगा, मित्रता होगी क्योंकि छींक बाईं तरफ हुई है।
एतना कहत छींक भई बाएं। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।
बूढ एक कह सगुन बिचारी, भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।
रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – स्वप्न विचार
रामचरित मानस में कुछ स्थलों पर स्वप्न-फल पर विचार किया गया है। जब भरतजी रामजी को मनाने के लिए अयोध्या से चित्रकूट जाते हैं, तब सीताजी एक स्वप्न देखती हैं कि भरतजी समाज सहित आए हैं, सभी लोगों के शरीर दुःख से तप्त हैं। सभी मलिन हैं और सबके मन दुःखी हैं। समस्त सासों के रूप बदले हुए हैं। सीताजी के इस स्वप्न को सुनकर रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर आया और वे चिंतामग्न हो गए। वे लक्ष्मण से कहते हैं कि यह स्वप्न अच्छा नहीं है, ऐसा लगता है जैसे कोई व्यक्ति हमें अपनी कठोर इच्छा सुनाना चाहता है-
उहाँ राम रजनी अवसेषा। जागे सीयं सपन अस देखा।
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।
सकल मलिन मन दीख दुखारी। देखीं सास आन अनुहारी।
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।
इसी प्रकार जब रावण राक्षसियों को आज्ञा देता है कि वे सीताजी को भय दिखाएं। तब त्रिजटा नामक एक राक्षसी अपनी साथिनों को एक स्वप्न सुनाती है कि मैंने स्वप्न में देखा है कि एक वानर ने सारी लंका जला दी है। राक्षसों की सारी सेना मारी गई है। रावण नंगा होकर गधे पर बैठा है। उसके सिर कटे हुए हैं और उसकी बीसों भुजाएं कटी हुई हैं। इस वेश में वह दक्षिण दिशा की तरफ जा रहा है। विभीषणजी को लंका का राज मिल गया है। और नगर में रामजी की दुहाई फिर गई है। रामजी ने सीता को बुलावा भेजा है। मैं निश्चय के साथ कहती हूँ कि यह स्वप्न केवल चार दिन में ही सत्य हो जाएगा। इसलिए तुम सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो। त्रिजटा के वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गयीं और जानकीजीके चरणोंपर गिर पड़ीं-
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
यह सपना मैं कहउँ कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।।
इस प्रकार रामचरित मानस में सैंकड़ों स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी अवधारणाओं के उल्लेख हुए हैं, जिनमें से कहाँ कुछ ही प्रसंगों की चर्चा की गई है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता