शिवाजी महाराज के आगरा से भाग जाने के बाद, औरंगजेब द्वारा कुंअर रामसिंह को अपदस्थ किए जाने तथा उसके पिता मिर्जाराजा जयसिंह को दक्खिन की सूबेदारी से च्युत किए से आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह बुरी तरह आहत हो गया। औरंगजेब का आदेश मिलते ही मिर्जाराजा जयसिंह तत्काल दक्षिण का मोर्चा छोड़कर औरंगाबाद की तरफ रवाना हो गया।
जयसिंह तथा उसके पूर्वज अकबर के समय से मुगलों की सेवा करते आए थे तथा मुगलों और कच्छवाहों की मैत्री को अब सौ साल से अधिक हो गए थे। पिछले सौ साल में कच्छवाहों ने अपने राज्य में एक गज धरती भी नहीं बढ़ाई थी, वे हर समय मुगलों का राज्य स्थिर करने एवं उसका विस्तार करने में लगे रहे थे।
जब ई.1621 में औरंगजेब के बाबा जहांगीर ने देखा कि आम्बेर रियासत में कोई वयस्क राजकुमार जीवित नहीं बचा है तो जहांगीर ने अपनी इच्छा से 11 वर्षीय राजकुमार जयसिंह को आम्बेर का राजा बनाया था। तब से जयसिंह मुगलों की नौकरी करता आ रहा था। उसने 6 वर्ष तक जहांगीर की और 31 वर्ष तक शाहजहाँ की सेवा की थी तथा अब विगत 6 वर्षों से औरंगजेब की सेवा कर रहा था।
ई.1635 में जयसिंह ने शिवाजी के पिता शाहजी भौंसले के 3 हजार सिपाही और 8 हजार बैल पकड़े थे। इन बैलों पर बड़ा भारी तोपखाना और बारूद लदा हुआ था। इससे प्रसन्न होकर ई.1636 में शाहजहाँ ने जयसिंह को ‘मिर्जा-राजा’ की उपाधि दी थी। तब से मिर्जाराजा जयसिंह शाहजी एवं शिवाजी को हानि पहुंचाता आ रहा था।
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मिर्जाराजा जयसिंह को रह-रह कर वे पुराने दिन याद आते थे जब ई.1647 में शाहजहाँ बल्ख और बदख्शां में असफल होकर काबुल में फंस गया था और धन की कमी के कारण उसकी हालत पतली हो गई थी, तब मिर्जाराजा जयसिंह आगरा से 1 करोड़ 20 लाख रुपये, बारूद तथा रसद लेकर काबुल पहुंचा था जिसके कारण शाहजहाँ का काबुल से जीवित बच निकलना संभव हो पाया था।
शाहजहाँ के जीवन काल में ही एक बार औरंगजेब भी बल्ख में फंस गया। तब मिर्जाराजा जयसिंह उसे उजबेगों से बचाकर काबुल ले आया था। जब शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तब वली-ए-अहद दारा शिकोह द्वारा मिर्जाराजा जयसिंह को दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह का संरक्षक बनाया गया था किंतु जयसिंह ने दारा शिकोह का साथ छोड़कर औरंगजेब का साथ दिया था, अजमेर के युद्ध की जीत का बहुत बड़ा श्रेय मिर्जाराजा जयसिंह को ही था। इतना ही नहीं जयसिंह ने औरंगजेब के धुर विरोधी महाराजा जसवंतसिंह को भी औरंगजेब के पक्ष में कर रखा था।
औरंगजेब पर मिर्जाराजा जयसिंह के उपकारों की सूची बहुत लम्बी थी। उत्तराधिकार के युद्ध के दौरान औरंगजेब के ओदश से मिर्जाराजा जयसिंह दारा शिकोह की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ गया था। जहाँ-जहाँ दारा गया, जयसिंह उसका दुर्भाग्य बनकर उसके पीछे लगा रहा। अंत में जयसिंह की सहायता से ही दारा को पकड़ा गया था और उसे भयानक अपमान एवं पीड़ादायक मृत्यु के हवाले किया गया था। औरंगजेब मिर्जाराजा जयसिंह से इतना प्रसन्न था कि उसने मिर्जाराजा जयसिंह को शिवाजी को पकड़ने या मारने की विशेष जिम्मेदारी सौंपी थी।
दक्खिन में पहुंचकर जयसिंह ने शिवाजी की सेना को बहुत क्षति पहुंचाई थी जिसके परिणाम स्वरूप 11 जून 1665 को छत्रपति शिवाजी तथा मुगलों के बीच पुरंदर की दुर्भाग्यपूर्ण संधि हुई थी। इस संधि के लिये छत्रपति को मिर्जाराजा जयसिंह ने अपनी तलवार के जोर पर विवश किया था। यह संधि मिर्जाराजा के जीवन की सबसे बड़ी सफलता और शिवाजी के जीवन की सबसे बड़ी विफलता थी। इस संधि के परिणाम स्वरूप शिवाजी ने अपने अधिकार वाले 35 दुर्गों में से 23 दुर्ग औरंगजेब को सौंप दिये थे।
इस प्रकार औरंगजेब का पिता शाहजहाँ तथा स्वयं औरंगजेब मिर्जाराजा जयसिंह के अहसानों के बोझ तले दबे हुए थे किंतु शिवाजी के आगरा से भाग निकलने के कारण औरंगजेब जयसिंह तथा उसके पूर्वजों के समस्त पिछले उपकारों और अहसानों को भूल गया तथा उसने जयसिंह को आगरा में बुलाकर अपमानित करने का निश्चय किया।
औरंगजेब के आदेश से मिर्जाराजा जयसिंह औरंगाबाद होता हुआ बुरहानपुर के लिए रवाना हुआ। 28 अगस्त 1667 को बुरहानपुर में ही मिर्जाराजा जयसिंह की मृत्यु हो गई। वह भी अपने बाबा मानसिंह की तरह टूटा हुआ हृदय लेकर इस असार संसार से गया। जीवन भर की गई मुगलों की सेवा का यही अंतिम पुरस्कार जयसिंह को मिला जैसा कि उसके बाबा मानसिंह को भी पूर्व में अपमानजनक मृत्यु के रूप में मिला था।
अंग्रेज इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया के पृष्ठ संख्या 427-428 पर लिखा है- ‘औरंगजेब के कहने से आम्बेर नरेश जयसिंह के पुत्र कीरतसिंह ने अपने पिता मिर्जाराजा जयसिंह को जहर दे दिया जिससे महाराजा की मृत्यु हो गई।’ हालांकि जयपुर राज्य की ख्यातें तथा मुगल तवारीखें इस तथ्य की पुष्टि नहीं करतीं। वे केवल मिर्जाराजा की बुरहानपुर में मृत्यु हो जाने का उल्लेख करती हैं।
औरंगजेब का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘जयसिंह की मृत्यु एलिजाबेथ के दरबार के सदस्य वॉलघिंम की भांति हुई जिसने अपना बलिदान ऐसे स्वामी के लिये किया जो काम लेने में कठोर तथा काम के मूल्यांकन में कृतघ्न था।’
छत्रपति तथा उनका पुत्र शंभाजी, कच्छवाहा राजकुमार रामसिंह के पहरे से भाग निकले थे, इस बात को औरंगजेब जीवन-पर्यंत नहीं भुला सका। यहाँ तक कि अपने वसीयतनामे में भी औरंगजेब ने इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया- ‘देखो, किस प्रकार उस अभागे शिवा का पलायन जो असावधानी के कारण हुआ, मुझे मृत्यु-पर्यंत परेशान करने वाली मुहिमों में उलझाये रहा।’
शिवाजी द्वारा औरंगजेब को इतना अपमानित किए जाने पर भी औरंगजेब ने अपनी मक्कारी नहीं छोड़ी। उसने शिवाजी को पत्र लिखकर उसे फिर से आगरा बुलवाया। 6 मई 1667 के फारसी रोजनामचे में लिखा है- ‘बादशाह ने वजीरे आजम को हुक्म दिया कि शिवा के वकील को बुलाए, उसे आश्वस्त करे और दो महीने में लौटने की शर्त पर शिवा को सूचित करे कि हुजूरे अनवर ने उसके गुनाहों को माफ कर दिया है। उसके पुत्र सम्भाजी को 5000 का मनसब बहाल किया गया है। वह अपनी शक्ति के अनुसार बीजापुर का जितना इलाका छीन सकता है, छीन ले। अन्यथा अपने स्थान पर डटा रहे और बादशाह के बेटे का हुक्म माने।’
शिवाजी ने औरंगजेब के आदेश की अनदेखी कर दी तथा दोनों ओर से शांति बनी रही। इस पर 9 मार्च 1668 को शहजादे मुअज्जम ने शिवाजी को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘जहांपनाह ने आपको राजा की उपाधि देकर आपका सिर ऊंचा किया है जो कि आपकी उच्चतम अभिलाषा है।’
औरंगजेब द्वारा शिवाजी के प्रति इस प्रकार आदर और सम्मान प्रकट किए जाने पर शिवाजी ने अपने पुत्र संभाजी को मुगल शहजादे मुअज्जम के शिविर में जाने की अनुमति दे दी क्योंकि औरंगजेब ने संभाजी को पांच हजारी मनसबदार घोषित किया था। मुअज्जम और संभाजी के समवयस्क होने के कारण उन दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई।
औरंगजेब के सेनापति दिलेर खाँ को मुअज्जम और संभाजी की यह दोस्ती अच्छी नहीं लगी। उसने औरंगजेब को पत्र लिखकर सूचित किया कि शहजादा मुअज्जम, मराठों के साथ मिलकर स्वयं बादशाह बनने का षड़यंत्र रच रहा है। दिलेर खाँ का पत्र पाकर औरंगजेब ने मुअज्जम को आदेश भिजवाया कि वह सम्भाजी को दिल्ली भेज दे।
मुअज्जम को दिलेर खाँ के षड़यंत्र के बारे में पता लग गया और उसने सम्भाजी को सावधान कर दिया। इस पर सम्भाजी शिकार खेलने के बहाने से एक दिन अपने साथियों सहित मुगलों के शिविर से बाहर निकला और भागकर पूना चला गया।
इस प्रकार दक्षिण भारत में कुछ दिनों के लिए हुई शांति में एक बार फिर से विघ्न पड़ गया और लाल किला अपने षड़यंत्रों में सफल नहीं हो सका।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता