औरंगजेब ने जहानआरा को फिर से शाहबेगम बना दिया! वह अपनी इस बड़ी बहिन के अहसान कभी नहीं भूल सकता था। उसी ने औरंगजेब को पाला था।
औरंगजेब ने अपनी इस पुत्री को शाहबेगम का दर्जा दिया था। यह ओहदा मुमताज महल की मृत्यु के बाद रिक्त हुआ था। शाहबेगम के ओहदे के कारण ही जहानआरा अपने भाइयों एवं बहिनों सहित पूरे मुगलिया हरम पर शासन करती थी।
जब शाहजहाँ मर गया तो औरंगजेब दिल्ली से आगरा आया और अपनी बहिन शाहबेगम जहानआरा से मिला। जहानआरा ने उसे वह क्षमापत्र सौंप दिया जो शाहजहाँ ने अपने अंतिम क्षणों में लिखवाया था। औरंगजेब के लिए कागज के इस टुकड़े का कोई महत्व नहीं था, फिर भी अपनी बड़ी बहिन का दिल रखने के लिए औरंगजेब ने वह क्षमापत्र स्वीकार कर लिया।
बहुत देर तक भाई-बहिन एक-साथ बैठकर पुराने दिनों को याद करते रहे। औरंगजेब ने अनुभव किया कि बहिन की आंखों में औरंगजेब के प्रति किसी बात को लेकर कोई शिकायत नहीं थी। हालांकि इस बीच जहानआरा की आंखों में पुरानी बातों को याद करके जाने कितनी बार पानी आया किंतु औरंगजेब की शैतानी आंखों की बिल्लौरी चमक एक बार के लिए भी नम नहीं हुई। औरंगजेब अपनी इस बहिन को देखकर हैरान था। जाने ऊपर वाले ने उसे किस मजबूत मिट्टी से गढ़ा था, कितनी भी बड़ी मुसीबत क्यों नहीं हो, वह कभी परेशान नहीं होती थी!
औरंगजेब यह देखकर भी हैरान था कि शहजादी जहानआरा करोड़ों रुपयों की मालकिन होने के बावजूद पिछले नौ साल से फकीरों जैसा जीवन जी रही थी तथा उसके चेहरे पर संतोष और तृप्ति की आभा दमक रही थी। जहानआरा के पास बेतहाशा सोना-चांदी और लाखों रुपए वार्षिक आय की जागीरें थीं, वह चाहती तो औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद उससे समझौता करके आराम से अपनी जिंदगी जी सकती थी किंतु उसने अपने समस्त ऐश्वर्य को ठोकर मारकर अपने बीमार, बूढ़े एवं अपदस्थ पिता के साथ बंदी की तरह जीवन जिया था।
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पिछले नौ साल में जहानआरा ने जनाना महल से बाहर झांककर भी नहीं देखा था किंतु अब शाहजहाँ कयामत तक विश्राम करने के लिए ताजमहल में जा चुका था तथा औरंगजेब चाहता था कि जहानआरा जनाना महल से निकल कर पुनः बाहर की दुनिया में लौट आए।
ऐसा चाहने के पीछे औरंगजेब का एक निजी स्वार्थ भी था। वह अपनी दूसरे नम्बर की बहिन रौशनआरा के व्यवहार से बुरी तरह तंग आ चुका था जो विगत नौ वर्षों से शाह-बेगम के रूप में सल्तनत की अंदरूनी राजनीति संभाल रही थी। औरंगजेब रौशनआरा को शाहबेगम के ओहदे से हटाकर उसके स्थान पर फिर से बहिन जहानआरा को प्रतिष्ठित करना चाहता था किंतु जहानआरा ने फिर से मुगलिया राजनीति में लौटने से मना कर दिया।
जहानआरा ने औरंगजेब को समझाया कि हरम की औरतें अब जहानआरा का अनुशासन स्वीकार नहीं करेंगी इसलिए जहानआरा के लिए काम करना आसान नहीं होगा। इस पर औंगजेब ने जहानआरा से कहा कि रौशनआरा अपने काम में बुरी तरह असफल रही है और रियाया के साथ-साथ हरम और बादशाह का विश्वास खो चुकी है। इसलिए जहानआरा को अपने पद पर फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होगी। इस पर जहानआरा ने पुनः शाह बेगम बनना स्वीकार कर लिया।
अब जहानआरा फिर से शाह-बेगम कहलाने लगी। इस समय तक जहानआरा 54 साल की प्रौढ़ हो चुकी थी। पुनः शाह-बेगम बनने के बाद जहानआरा लगभग 20 साल और जीवित रही किंतु उसका अपने भाई औरंगजेब से किसी बात पर झगड़ा नहीं हुआ और वह सल्तनत में मिले अधिकारों का बड़ी शान से उपयोग करती रही।
जब औरंगजेब दक्षिण के मोर्चे पर रहने लगा तो शाह-बेगम जहानआरा ने उत्तरी भारत का शासन संभाला। उसने अकाल के समय में रियाया की बड़ी मदद की तथा हज के लिए मक्का जाने वाले लोगों को सरकार की तरफ से धन देने की परम्परा आरम्भ की।
उसने साहित्य, दर्शन एवं कला पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए वजीफे की व्यवस्था की और धार्मिक ग्रंथों पर की जाने वाली समीक्षाओं को पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया। विश्व-प्रसिद्ध लेखक रूमी की पुस्तक ‘मथनवी’ पर की गई टीका का प्रकाशन जहानआरा ने ही करवाया था जो मुगल काल की महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है।
सूफियों के कादरिया सम्प्रदाय का धर्मगुरु मुल्ला शाह बदख्शी, जहानआरा के सदाचरण से इतना प्रभावित था कि वह जहानआरा को अपनी उत्तराधिकारी घोषित करना चाहता था किंतु औरंगजेब ने इसकी अनुमति नहीं दी। जहानआरा ने भारत में सूफियों के चिश्तिया सम्प्रदाय के संस्थापक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी लिखी। दिल्ली में चांदनी चौक बाजार का निर्माण जहानआरा ने ही करवाया था। जहानआरा ने दिल्ली में कारवां सराय का निर्माण करवाया जो अपने समय की सबसे प्रसिद्ध सराय थी। आगरा की जामा मस्जिद भी जहानआरा ने बनाई थी।
जब ई.1679 में औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया लगाया तो जहानआरा ने औरंगजेब के निर्णय का जमकर विरोध किया किंतु औरंगजेब अपने कठमुल्लापन को कभी छोड़ नहीं पाया और जजिया लगाकर ही माना।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता