दक्षिण भारत में औरंगजेब अपने जीवन के अंतिम पच्चीस सालों में रहा। पूरे पच्चीस साल तक वह दक्षिण भारत में हाहाकार मचाता रहा!
औरंगजेब अपने बागी बेटे अकबर का पीछा करता हुआ ई.1682 में दक्खिन में आया था। अकबर तो अपने बाप के भय से भारत छोड़कर ईरान भाग गया किंतु औरंगजेब ने निश्चय किया कि वह मराठों तथा शियाओं को समाप्त करके ही अपनी राजधानी दिल्ली वापस लौटेगा। उसके लिए शिया भी उतने ही बुरे थे जितने मराठे! औरंगजेब की दृष्टि में दोनों ही कुफ्र थे और दोनों को ही मिट जाना चाहिए था।
दक्षिण भारत में औरंगजेब के पच्चीस साल उतने ही भयावह थे जितने तैमूर लंग के कुछ साल उत्तर भारत के लिए भयंकर विनाशकारी रहे थे।
औरंगजेब की दीर्घकालीन उपस्थिति के कारण दक्षिण भारत में हाहाकार मचा हुआ था फिर भी न तो शिया समाप्त होते थे और न मराठे काबू में आते थे। औरंगजेब अपने पिता शाहजहाँ के जीवन काल में ही गोलकुण्डा और बीजापुर राज्यों पर विजय प्राप्त कर चुका था परन्तु शाहजहाँ के हस्तक्षेप के कारण उन्हें मुगल सल्तनत में सम्मिलित नहीं कर सका था। अब वह अपनी इच्छा पूरी करना चाहता था।
दक्षिण भारत में औरंगजेब बीजापुर राज्य को बहुत गर्म आंखों से देखता था क्योंकि बीजापुर के शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर ही छत्रपति शिवाजी ने मराठों की शक्ति का विस्तार किया था। जब तक शिवाजी जीवित रहे मुगल सेनाएं बीजापुर को छू भी नहीं सकीं किंतु अब शिवाजी की मृत्यु हो चुकी थी तथा औरंगजेब पूरी तैयारी के साथ आया था।
उसकी सेना ने बीजापुर को चारों ओर से घेरकर उसकी रसद आपूर्ति काट दी। इससे बीजापुर के सैनिक भूखों मरने लगे। अंत में बीजापुर के सुल्तान सिकन्दर को समर्पण करना पड़ा। औरंगजेब ने उसे एक लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर दौलताबाद के दुर्ग में बंद कर दिया और बीजापुर के राज्य को मुगल सल्तनत में मिला लिया।
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दक्षिण भारत में औरंगजेब का दूसरा प्रमुख निशाना गोलकुण्डा राज्य था। इन दिनों गोलकुण्डा में विलासी तथा अकर्मण्य बादशाह अबुल हसन शासन कर रहा था। राज्य की वास्तविक शक्ति उसके ब्राह्मण मन्त्री मदन्ना तथा उसके भाई अदन्ना के हाथों में थी। मदन्ना ने मरहठों के साथ गठबन्धन कर लिया था। गोलकुण्डा ने मुगलों के विरुद्ध बीजापुर की भी सहायता की थी और बहुत दिनों से मुगल बादशाह को खिराज नहीं भेजा था।
यह सब औरंगजेब के लिए असह्य था। पाठकों को याद होगा कि औरंगजेब ने ई.1685 में शाहजादे मुअज्जम को गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के लिए भेजा था किंतु मुअज्जम अपने पिता से बगावत करके गोलकुण्डा के शासक से मिल गया था। इस पर औरंगजेब ने मुअज्जम को पंजाब का सूबेदार बनाकर लाहौर भेज दिया था।
ई.1687 में दक्षिण भारत में औरंगजेब ने स्वयं गोलकुण्डा के दुर्ग पर घेरा डाला। आठ माह की लम्बी घेराबंदी के बाद गोलकुण्डा के दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। गोलकुण्डा के शासक अबुल हसन को पकड़कर दौलताबाद के दुर्ग में भेज दिया गया और उसके राज्य को मुगल सल्तनत में मिला गया।
गोलकुण्डा तथा बीजापुर राज्यों को नष्ट करने के बाद वहाँ की सेनाओं के जो सैनिक जीवित बचे, उन्हें न तो मराठों ने और न औरंगजेब ने अपनी नौकरी में रखा। मराठों ने इसलिए नहीं रखा क्योंकि उन्हें आवश्यकता नहीं थी और मुगलों ने इसलिए नहीं रखा क्योंकि गोलकुण्डा और बीजापुर की सेनाओं के अधिकांश सैनिक शिया मुसलमान थे।
इस कारण गोलकुण्डा और बीजापुर के सैनिक बेरोजगार होकर लूटपाट करने लगे। उन्होंने आम जनता का जीवन दूभर कर दिया। बीजापुर और गोलकुण्डा के क्षेत्र डाकुओं और लुटेरों से थर्रा उठे किंतु औरंगजेब मराठों से लड़ने में व्यस्त था। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि जनता को कौन लूट रहा है! गोलकुण्डा तथा बीजापुर के राज्य महाराष्ट्र तथा मुगल सल्तनत के मध्य में स्थित थे। इन दोनों राज्यों के समाप्त हो जाने से मरहठों तथा मुगलों की सीमाएं आ मिलीं।
लम्बे समय से महाराष्ट्र औरंगजेब के विरोधियों का शरण-स्थल बना हुआ था। विद्रोही शाहजादे अकबर को महाराष्ट्र में ही शरण मिली थी। मुअज्जम ने भी राजपूतों एवं मराठों का सहयोग पाकर बगावत की थी। औरंगजेब को आशा थी कि शिवाजी की मृत्यु के बाद मरहठे कमजोर पड़ जाएंगे किंतु शंभाजी ने मराठों के विजय अभियान को पूरे उत्साह से जारी रखा था। हम पूर्व में चर्चा कर चुके हैं कि ई.1689 में औरंगजेब ने शम्भाजी को बंदी बना लिया था और पन्द्रह दिनों की भयानक यातनाओं के बाद शम्भाजी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके नदी में फैंक दिए थे।
शम्भाजी की मृत्यु के बाद उनका छोटा भाई राजाराम मरहठों का राजा हुआ। औरंगजेब ने राजाराम को जि´जी के दुर्ग में घेर लिया। यह घेरा नौ वर्षों तक चलता रहा। ई.1695 में दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया परन्तु राजाराम वहाँ से भी निकल गया और सतारा पहुँचकर मरहठों को संगठित करने लगा। दुर्भाग्यवश ई.1700 में छत्रपति राजाराम का निधन हो गया।
राजाराम की मृत्यु के बाद उसकी रानी ताराबाई ने मरहठों का नेतृत्व किया। उसने अपने पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को सिंहासन पर बैठा कर मराठों का स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। अब मरहठों की शक्ति बहुत बढ़ गई। वे अहमदाबाद तथा मालवा पर धावा बोलने लगे। वे गुजरात में भी घुस गये और उसे भी जमकर लूटने लगे। उन्होंने बरार को भी लूटा परन्तु औरंगजेब कुछ नहीं कर सका। मरहठे औरंगजेब के जीवनकाल के अन्त तक मुगलों से युद्ध करते रहे।
दक्षिण भारत में औरंगजेब के अभियान में औरंगजेब का राज्यकोष रीत गया। इसकी पूर्ति दक्षिण के राज्यों से मिले धन से नहीं हो सकी। इस कारण मुगल सेनाओं को समय पर वेतन नहीं मिल पाता था और वे प्रायः गरीब जनता से लूट-खसोट करके अपना पेट भरते थे।
इतनी दीर्घ अवधि तक निरन्तर युद्ध चलते रहने से समचे प्रदेश की कृषि तथा व्यापार को बड़ा आघात लगा। दक्षिण की अर्थ-व्यवस्था चौपट हो गई और प्रायः अकाल पड़ने लगे जिससे प्रजा को बड़ा कष्ट भोगना पड़ा। अकाल में भूख से मरने वाली जनता एवं युद्ध में घायल होकर मरने वाले सैनिकों के शव जहाँ-तहाँ सड़ते रहते थे इस कारण इस क्षेत्र में कई प्रकार की बीमारियां एवं महामारियां फैल गईं जिनसे ग्रस्त होकर असंख्य सैनिकों, श्रमिकों तथा प्रजा के प्राण गये।
बादशाह की उत्तरी भारत से अनुपस्थिति के कारण उत्तर भारत में अराजकता तथा अनुशासनहीनता फैल गई। राजपूतों, जाटों, सिक्खों तथा बुंदेलों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया।
उत्तर भारत की आर्थिक स्थिति पर भी दक्षिण भारत के युद्धों का बहुत बड़ा प्रभाव था। दक्षिण के मोर्चे पर भेजे जाने के लिए उत्तर भारत के किसानों से बलपूर्वक कर-वसूली की जा रही थी जिसके कारण किसान अपने खेत और गांव छोड़कर जंगलों में भाग रहे थे।
दक्षिण के युद्धों का देश के सांस्कृतिक जीवन पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। देश की युद्धकालीन परिस्थिति के कारण साहित्य तथा कला की उन्नति नहीं हो सकी। कवियों, साहित्यकारों तथा कलाकारों को राज्य का संरक्षण नहीं मिला। देश के उत्तर तथा दक्षिण दोनांे ही भागों में सांस्कृतिक शून्यता उत्पन्न हो गई।
इस प्रकार दक्षिण भारत के पच्चीस वर्षीय युद्धों से मुगल सल्तनत की दृढ़ता, राजकोष, सैनिक शक्ति एवं गौरव पर भीषण आघात हुआ जिससे वह पतनोन्मुख हो गया। मुगल सल्तनत की कब्र दक्षिण के इन युद्धों में ही खुदकर तैयार हुई।
स्मिथ ने लिखा है- ‘दक्षिण भारत, मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा तथा उसके शरीर की समाधि सिद्ध हुआ।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता