Thursday, November 21, 2024
spot_img

अध्याय – 30 : औरंगजेब के उत्तराधिकारी (1707-1760 ई.)

1707 ई. में दक्खिन के मोर्चे पर जब औरंगजेब की मृत्यु हुई, तब तक मुगल सल्तनत राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक दृष्टि से काफी कमजोर हो गई थी किंतु उसकी मृत्यु के समय भी मुगल सल्तनत भारत की सबसे शक्तिशाली और विशाल सल्तनत थी। अपने अंतिम दिनों में औरंगजेब इस बात को लेकर चिंतित था कि उसके शहजादों में उत्तराधिकार के लिए खूनी संघर्ष होगा। इसलिये उसने शहजादा मुअज्जम को राज्यधर्म की शिक्षा दी तथा एक वसीयतनामा तैयार करवाया जिसमें उसने अपनी सल्तनत को अपने तीनों जीवित पुत्रों में विभाजित कर दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुअज्जम ने तेजी से आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह के नाम से तख्त पर बैठ गया। उसके पुत्र अजीम-उस-शान ने अपने पिता की आज्ञा से आगरा पर अधिकार कर लिया। जून 1707 में बहादुरशाह भी आगरा पहंुच गया। इस प्रकार राजधानी, खजाना तथा उत्तर भारत के प्रमुख शहर बहादुरशाह के अधिकार में आ गये। उधर दक्षिण भारत में आजम ने स्वयं को मुगल बादशाह घोषित कर दिया तथा आगरा की ओर बढ़ना आरंभ किया। बहादुरशाह ने आजम के समक्ष सल्तनत विभाजन का प्रस्ताव रखा किंतु आजम ने सल्तनत का विभाजन स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। आगरा के निकट जाजऊ के मैदान में दोनो भाइयों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें आजम परास्त हुआ और मारा गया।

बहादुरशाह प्रथम (1707-12 ई.)

औरंगजेब का सबसे बड़ा पुत्र मुअज्जम, बहादुरशाह की उपाधि धारण करके मुगलों के तख्त पर बैठा। उसे बहादुरशाह (प्रथम) तथा शाहआलम (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। आजम मारा जा चुका था किंतु कामबख्श अभी जीवित था। उसने स्वयं को बीजापुर में बादशाह घोषित कर दिया। 1708 ई. में बहादुरशाह ने कामबख्श के विरुद्ध दक्षिण की तरफ कूच किया। जनवरी 1709 में हैदराबाद के निकट दोनों भाइयों में युद्ध लड़ा गया जिसमें कामबख्श परास्त हुआ और घायल अवस्था में बन्दी बनाया गया। तीन-चार दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। अब बहादुरशाह सम्पूर्ण मुगल सल्तनत का एकमात्र स्वामी बन गया। वह 63 वर्ष की आयु में बादशाह बना था। वह जानता था कि मुगल अमीर एवं सैनिक पच्चीस साल के दीर्घकालीन युद्धों से थक गये हैं, उन्हें और अधिक समय तक युद्ध के मैदानों में रखना संभव नहीं था। सल्तनत आर्थिक एवं प्रशासनिक संकटों से ग्रस्त थी। ऐसी स्थिति में युद्धों को और अधिक समय तक नहीं चलाया जा सकता था। बहादुरशाह में अपने पिता औरंगजेब की तरह  धार्मिक कट्टरता भी नहीं थी। इन कारणों से उसने औरंगजेब से उलट, शासन में उदार नीति का अवलम्बन किया। मुस्लिम इतिहासकार कफीखां ने लिखा है- ‘बहादुरशाह उदार, दयालु एवं क्षमाशील था।’ अंग्रेजी इतिहासकार इरविन ने लिखा है- ‘वह विनम्र, शांत-स्वभाव, आदरणीय एवं क्षमाशील व्यक्ति था। बहादुरशाह को शाहे बेखबर कहा जाता है। बहादुरशाह के द्वारा उस शासन में निम्नलिखित प्रकार से नीति अपनाई गई-

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

(1) राजपूतों के प्रति नीति

बहादुरशाह ने राजपूत शासकों पर अंकुश लगाकर उन पर नियंत्रण पाने का प्रयास किया। इनमें आमेर का राजा सवाई जयसिंह तथा जोधपुर का राजा अजीतसिंह प्रमुख थे। 20 जनवरी 1708 को बहादुरशाह आमेर पहुँचा। उसने आमेर का राज्य सवाई जयसिंह से छीनकर उसके भाई विजयसिंह को दे दिया और सैयद अहमद खाँ को आमेर का फौजदार नियुक्त किया। जोधपुर के राजा अजीतसिंह से भी उसका राज्य छीन लिया गया। इसके बाद बहादुरशाह दक्षिण की तरफ बढ़ा। जयसिंह और अजीतसिंह अपने राज्य एवं राजधानियों को प्राप्त करने की आशा में कुछ दिनों तक बहादुरशाह के साथ-साथ चले परन्तु 30 अप्रैल 1708 को नर्मदा तट से वापस लौट पड़े। वापसी में दोनों ने मेवाड़ के महाराणा से भेंट कर उनसे सैनिक सहायता की याचना की। महाराणा ने उन्हें पर्याप्त सैनिक सहायता का वचन दिया और मैत्री दृढ़ करने के लिये अपनी पुत्री का विवाह जयसिंह के साथ कर दिया। जुलाई 1708 में राजपूतों की संयुक्त सेना ने जोधपुर पर आक्रमण कर मेहरानगढ़ दुर्ग मुक्त करा लिया। मुगल फौजदार को सामान सहित चले जाने दिया गया। इसके बाद राजपूतों ने आमेर पर आक्रमण कर वहाँ के मुगल फौजदार को खदेड़कर आमेर के दुर्ग को भी मुक्त करवा लिया। इसके बाद हिण्डौन, बयाना, साँभर, डीडवाना एवं आमेर के समीपवर्ती प्रदेश भी जीत लिये गये। साँभर के पास मुगलों और राजपूतों में भीषण संघर्ष हुआ जिसमें मुगल बुरी तरह परास्त हुए। उनका प्रमुख सेनापति सैयद हुसैन बारहा मारा गया। इससे मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। वजीर असद खाँ और मीरबख्शी जुल्फिकार खाँ ने समझौता करने का प्रयास किया। बहादुरशाह ने जयसिंह और अजीतसिंह को मनसब प्रदान करके उनके राज्य तो वापस लौटा दिये परन्तु आमेर और जोधपुर को खालसा में ही रखने का निश्चय किया। इस पर राजपूतों ने पुनः आक्रमण आरम्भ कर दिये। कामबख्श के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् बहादुरशाह नर्मदा पार करके राजस्थान की तरफ बढ़ा। उसका विचार राजपूत राजाओं को सख्त दण्ड देना था परन्तु उन्हीं दिनों पंजाब में बन्दा बहादुर के नेतृत्व में सिक्खों का विद्रोह जोर पकड़ने लगा। मई 1710 में सिक्खों ने सरहिन्द के फौजदार को मारकर नगर पर अधिकार कर लिया था। बहादुरशाह सिक्खों के विद्रोह को राजपूतों के विरोध से भी अधिक खतरनाक समझता था। अतः उसने राजपूतों से समझौता करके, सवाई जयसिंह और राठौड़ अजीतसिंह को उनके राज्य वापस लौटा दिये। इस प्रकार वह राजपूतों के विरुद्ध कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं कर सका तथा उसकी राजपूत नीति असफल रही।

(2) सिक्खों के प्रति नीति

गुरु गोविन्दसिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुरशाह के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की थी और उसके साथ दक्षिण की तरफ गये थे परन्तु मार्ग मेंएक अफगान ने गुरु की हत्या कर दी। गुरु की मृत्यु के डेढ़ वर्ष बाद, पूर्वी पंजाब में बन्दा बैरागी के नेतृत्व में सिक्खों का विद्रोह भड़क उठा। बन्दा बैरागी के तीन मुख्य ध्येय थे- (1.) गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों के हत्यारे सरहिन्द के फौजदार वजीर खाँ से बदला लेना, (2.) सरहिन्द शहर को ध्वस्त करना तथा (3.) पहाड़ी राजाओं का नाश करना। 24 मई 1710 को लाहौर के निकट से लेकर दिल्ली के दो-तीन पड़ाव तक का सरहिंद का प्रायः समस्त क्षेत्र सिक्खों के अधीन हो गया। बहादुरशाह ने अपने प्रमुख अमीरों को सिक्खों का दमन करने का उत्तरदायित्त्व सौंपा। उसने स्वयं भी पंजाब की तरफ प्रस्थान किया। दिसम्बर 1710 में मुगलों ने बन्दा के केन्द्र लौहगढ़ पर अधिकार कर लिया परन्तु बन्दा भाग निकला। इससे पहले कि सिक्ख विद्रोह पूर्ण रूप से कुचल दिया जाता, फरवरी 1712 में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सिक्खों के प्रति बहादुरशाह की नीति आंशिक रूप से सफल रही।

(3) मराठों के प्रति नीति

शाहूजी का मुगलों की कैद से मुक्त हो जाना बहादुरशाह (प्रथम) के शासन काल की प्रमुख घटनाओं में से एक था। इस समय शम्भाजी के दूसरे पुत्र राजाराम की रानी ताराबाई मराठों का नेतृत्व कर रही थी तथा अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी (द्वितीय) के नाम पर शासन कर रही थी। जब शाहूजी भागकर महाराष्ट्र पहुंचा तो  उसने मराठा राज्य पर अपना दावा किया। इस प्रकार मराठों में नेतृत्व के लिये संघर्ष छिड़ गया। इस संघर्ष में राजाराम की दूसरी विधवा रानी राजसबाई भी तीसरे मोर्चे के रूप में सम्मिलित हो गई जो अपने पुत्र शंभाजी (द्वितीय) को राजा बनाना चाहती थी। जब बहादुरशाह दक्षिण में था तो शाहूजी एवं ताराबाई दोनों ने दक्षिण के 6 सूबों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मांगा। बहादुरशाह ने शाहूजी और ताराबाई दोनों को सरदेशमुखी का अधिकार समान रूप से दे दिया और चौथ के बारे में निर्णय स्थगित रखा। उसकी इस नीति का परिणाम यह निकला कि बहादुरशाह के दक्षिण से लौटते ही शाहूजी और ताराबाई की सेनाओं ने मुगल सूबों में लूटमार मचा दी। इस प्रकार बहादुरशाह की मराठों के प्रति नीति भी लगभग असफल रही।

(4.) विधर्मियों के प्रति नीति

बहादुरशाह जीवन भर अपने पिता औरंगजेब के साथ युद्ध के मोर्चे पर रहा था और उसकी कट्टरता का परिणाम अपनी आंखों से देख चुका था। इसलिये उसमें औरंगजेब की भाँति संकीर्ण रूढ़िवादी विचार नहीं थे। उसे सूफी संतों के साथ चर्चा करने में आनन्द मिलता था। वह कट्टर सुन्नी धर्माचार्यों से दूर रहा। उसने हिन्दुओं के प्रति नरम नीति अपनाई। उसके शासनकाल में मंदिरों के विध्वंस तथा बलात् मुसलमान बनाये जाने का कोई उल्लेख नहीं मिलता परन्तु जजिया की वसूली जारी रही।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्याों के आलोक में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यद्यपि बहादुरशाह को ने विशाल मुगल सल्तनत को अपने शासन काल में काफी सीमा तक एक बनाये रखा और उसके समय में जोधपुर के राठौड़ राजा अजीतसिंह, आम्बेर के कच्छवाहा राजा सवाई जयसिंह तथा सिक्खों के नेता बंदा बैरागी के अतिरिक्त और किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर सके। इन विद्रोाहें को आंशिक रूप से दबा दिया गया। उसके शासन काल में किसी भी प्रान्तीय सूबेदार ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने का साहस नहीं किया। उसने औरंगजेब से उलट नरम नीति का अवलम्बन किया तथा सूफियों एवं हिन्दुओं के प्रति कट्टरता का प्रदर्शन नहीं किया। 27 फरवरी 1712 को वृद्धावस्था के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

जहाँदारशाह (1712-13 ई.)

बहादुरशाह के चार पुत्र थे- जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, जहानशाह एवं रफी-उस-शान। बहादुरशाह के मरते ही इन चारों में तख्त के लिये संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जहाँदारशाह, मुगल सेनापति जुल्फिकार खाँ की सहायता से 29 मार्च 1712 को दिल्ली के तख्त पर अधिकार जमाने में सफल रहा। शेष तीनों शहजादे मार डाले गये। तख्त पर बैठते समय जहाँदारशाह 51 वर्ष का था। वह विलासी प्रवृत्ति का था तथा लालकुंवर नामक वेश्या पर बुरी तरह आसक्त था। उसने लालकुंवर के रिश्तेदारों को शासन में उच्च पद प्रदान किये और राजदरबार को नाचने-गाने वालों का केन्द्र बना दिया। ऐसी स्थिति में शक्तिशाली एवं स्वार्थी अमीरों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। फिर भी सौभाग्य से जहाँदारशाह को असद खाँ और जुल्फिकार खाँ जैसे अनुभवी व्यक्तियों की सेवाएँ उपलब्ध हो गईं। इस कारण जहाँदारशाह ने शासन में औरंगजेब द्वारा अपनाई गई नीतियों को त्यागकर कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये-

(1.) राज्य से जजिया कर हटा दिया गया। (2.) राजपूत राजाओं को संतुष्ट किया गया। (3.) सवाई जयसिंह को मालवा का सूबेदार बनाया गया। (4.) अजीतसिंह को गुजरात का सूबेदार बनाया गया। (5.) मराठों के सम्बन्ध में पुरानी व्यवस्था को ही लागू रखा गया। अर्थात् सतारा और कोल्हापुर, दोनों राज्यों को मान्यता दी गई ताकि मराठे गृहयुद्ध में उलझे रहें। (6.) सिक्खों के विद्रोह का दमन किया गया और बन्दा बैरागी को मौत की सजा दे दी गई। (7.) गुरु गोविन्दसिंह के दत्तक पुत्र अजीतसिंह को मान्यता देकर सिक्खों में फूट का बीज बोया गया।

फर्रूखसीयर का विद्रोह

तख्त पर बैठने के दस माह बाद ही जहाँदारशाह को उसके मृत भाई अजीम-उश-शान के लड़के और बंगाल के नायब सूबेदार फर्रूखसियार की चुनौती का सामना करना पड़ा। जिस समय जहाँदारशाह ने अजीम-उस-शान को मार डाला था, उस समय फर्रूखसियर ने आत्महत्या करने का प्रयास किया किंतु उसे बचा लिया गया। फर्रूखसियर को सैयद बन्धुओं- पटना के नायब सूबेदार सैयद अली और उसके बड़े भाई इलाहाबाद के नायब सूबेदार हसन अली (जो आगे चलकर अब्दुला कहलाया) की सहायता प्राप्त हो गई। उनके समर्थन से फर्रूखसियर ने स्वयं को पटना में मुगलों का बादशाह घोषित कर दिया तथा अपने नाम के सिक्के चलाये। इसके बाद वह सेना लेकर आगरा की तरफ बढ़ा। 10 जनवरी 1713 को आगरा के निकट जहाँदारशाह तथा फर्रूखसियर की सेनाओं में युद्ध हुआ। यद्यपि जहाँदारशाह की सेना 70-80 हजार घुड़सवार तथा बड़ी संख्या में पैदल सैनिक थे और फर्रूखसियर के पास इससे एक-तिहाई फौज भी नहीं थी, फिर भी जहाँदारशाह की सेना परास्त हो गई। इस पराजय का प्रमुख कारण जुल्फिकारखाँ एवं कोकतलाशखाँ का एक-दूसरे के साथ असहयोग करना तथा चिनकुलीचखाँ (जो आगे चलकर निजाम-उल-मुल्क कहलाया) व अमीनखाँ का युद्ध में तटस्थ रहना था। जहाँदरशाह युद्ध से भागकर लालकुंवर के पास पहुँच गया। फर्रूखसियर के आदेश से उसे प्रेयसी के हाथों से छीनकर 11 फरवरी 1713 को मार डाला गया। 

फर्रूखसियर (1713-19 ई.)

सैयद बन्धुओं की सहायता से फर्रूखसियर बादशाह बना। उसने सैयद अब्दुल्ला को अपना वजीर नियुक्त किया तथा अब्दुल्ला के छोटे भाई सैयद हुसैन अली को मुगल सेना का प्रधान नियुक्त किया। तख्त पर बैठते समय फर्रूखसियर की आयु केवल तीस वर्ष थी किंतु उसमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव था तथा शासन करने का अनुभव भी नहीं था। इस कारण सल्तनत की सम्पूर्ण शक्ति सैयद बन्धुओं के हाथों में चली गई। इस कारण उसके शासन काल के आरंभ 1713 से लेकर 1721 ई. के काल को भारत इतिहास में सैयद बन्धुओं का युग कहा जाता है। फर्रूखसियर ने सैयदों का प्रभाव कम करने के लिये बहुत प्रयास किये तथा मीरजुमला, निजाम-उल-मुल्क, जयसिंह, मुहम्मद अमीन खाँ आदि कई लोगों से सहायता माँगी, सैयद अब्दुल्ला की हत्या करवाने का प्रयास किया परन्तु फर्रूखसीयर के समस्त प्रयास विफल रहे। एलफिंस्टन ने लिखा है- ‘फर्रूखसियर बड़ी योजनाओं को समझ नहीं सकता था और छोटी योजनाओं को अपनी आलसी प्रकृति के कारण दूसरों की सहायता के बिना पूरी नहीं कर सकता था।’

अजीतसिंह के विरुद्ध कार्यवाही

फर्रूखसीयर के काल में अजीतसिंह के विरुद्ध सैनिक अभियान किया गया। अजीतसिंह परास्त हो गया तथा उसे विवश होकर अपनी पुत्री इंद्र कुंवरी का विवाह फर्रूखसियर से कर देना पड़ा।

बंदा बैरागी के विरुद्ध कार्यवाही

बंदा बैरागी इन दिनों फिर से शक्तिशाली होकर मुगलों के विरुद्ध युद्ध कर रहा था। फर्रूखसियर ने उसके विरुद्ध सेना भेजी। बंदा बैरागी ने स्वयं को गुरदासपुर के किले में बंद कर लिया गया किंतु अंत में 1716 ई. उसे आत्म समर्पण करना पड़ा। बंदा बैरागी को उसके साथियों के साथ बड़ी निर्दयता के साथ मार डाला गया।

जाटों के विरुद्ध कार्यवाही

जाट अपने नेता गोकुल की हत्या से नाराज थे। इन दिनों चूड़ामन जाटों का नेतृत्व कर रहा था। उसने दिल्ली एवं आगरा के बीच के प्रदेशों में लूट मचा रखी थी। फर्रूखसियर ने आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह को निर्देश दिया कि वह जाटों के विरुद्ध कार्यवाही करे। जयसिंह चूड़ामन को नहीं दबा सका। चूड़मन के विरुद्ध अभियान जारी रखा गया। इस अभियान पर मुगलों के 2 करोड़ रुपये व्यय हुए। अंत में  1718 ई. में फर्रूखसियर ने चूड़ामन से समझौता कर लिया।

सैयद बंधुओं के विरुद्ध कार्यवाही

सैयद बंधुओं के उत्थान में फर्रूखसियर के पिता अजीम-उस-शान की बड़ी भूमिका रही थी। इसलिये सैयद बंधुओं ने जहाँदारशाह के विरुद्ध विद्रोह करके फर्रूखसियर को तख्त पर बैठाने में सहायता की थी। अब वे शासन के समस्त सूत्र अपने हाथों में लेकर बादशाह को कठपुतली बनाये रखना चाहते थे किंतु बादशाह उनके हाथों से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से शासन करना चाहता था इसलिये उसने सैयद बंधुओं के विरुद्ध षड़यंत्र रचने आरंभ किये। उसने मीर जुमला तथा चिनकुलीचखाँ को बढ़ावा देना आरंभ किया। मीर जुमला बादशाह के संवाद वाहकों का ही अध्यक्ष था किंतु उसे ही समस्त बड़े निर्णय करने के अधिकार दे दिये गये। इस पर सैयद बंधुओं के कान खड़े हुए। इसके बाद फर्रूखसियर ने हुसैन अलीखाँ को राजपूतों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के आदेश दिये तथा साथ ही सवाई जयसिंह को गुप्त रूप से लिखा गया कि यदि वह सैयद हुसैन अली को खत्म कर दे तो अजीतसिंह को पुरस्कृत किया जायेगा। हुसैन अली को इस षड़यंत्र की जानकारी मिल गई और उसने अजीतसिंह को अपनी तरफ मिल लिया तथा यह षड़यंत्र असफल हो गया। इस पर फर्रुखसियर ने सैयद हुसैन अली को दक्षिण का सूबेदार बनाकर दक्षिण जाने के आदेश दिये। साथ ही दक्षिण के कार्यवाहक सूबेदार दाऊदखाँ को गुप्त रूप से लिखा कि वह सैयद को रास्ते में ही खत्म कर दे। इस प्रयास में दाऊदखाँ स्वयं मारा गया। दिल्ली से प्रेषित गोपनीय कागज सैयद हुसैन के हाथ लग गये। उधर दिल्ली में बड़े सैयद अब्दुल्ला को कत्ल करने की योजना बनाई गई परन्तु अन्य षड्यन्त्रों की भाँति वह भी विफल रही।

फर्रूखसियर की हत्या

अब सैयद बंधुओं ने फर्रूखसियर को तख्त से हटाने का निर्णय किया। दक्षिण में नियुक्त सैयद हुसैन अली ने 1719 ई. में मराठों से समझौता कर लिया और 15,000 मराठा सैनिकों तथा स्वयं अपनी सेना के साथ दिल्ली आ पहुँचा। जाट नेता चूड़ामन ने भी सैयद बंधुओं का साथ दिया। 17 फरवरी 1719 को जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह ने सैय्यद बंधुओं की सहायता से दिल्ली के लाल किले पर अधिकार कर लिया। महाराजा ने लाल किले के दीवाने आम में अपना आवास बनाया तथा वहीं पर घण्टों और शंख-ध्वनियों के बीच हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की तथा तीन दिन तक लाल किले को अपने अधिकार में रखा। फर्रूखसीयर भागकर जनाने में छिप गया और तीन दिन तक वहाँ से नहीं निकला। रफीउद्दरजात को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया गया महाराजा अजीतसिंह के आदेश पर रफीउद्दरजात ने हिन्दुओं पर से जजिया उठा लिया तथा हिन्दू तीर्थों को सब प्रकार की बाधाओं से मुक्त कर दिया। फर्रूखसियर को तीन बाद हरम से नंगे सिर तथा नंगे पैरों घसीटते हुए, गालियां देते हुए एवं पीटते हुए निकाला गया तथा अन्धा करके कैद में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद उसे गला घोंटकर मार डाला गया।

रफी-उद्-दरजात तथा रफीउद्दौला

सैयद बन्धुओं ने फर्रूखसियार को तख्त से उतार कर रफी-उद्-दरजात को बादशाह बनाया परन्तु वह इतना अधिक बीमार रहता था कि तीन महीने बाद उसे हटाकर उसके बड़े भाई रफीउद्दौला को तख्त पर बैठाया गया। साढ़े तीन माह बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। कामवरखाँ ने आरोप लगाया है कि इन दोनों बादशाहों को सैयद बंधुओं ने विष देकर मरवाया था।

मुहम्मदशाह (रंगीला) (1719-48 ई.)

रफीउद्दौला की मृत्यु के बाद सैयदों ने बहादुरशाह के बड़े लड़के जहानशाह के लड़के मुहम्मदशाह को सिंहासन पर बैठाया। उस समय उसकी आयु 18 वर्ष थी। इतिहास में वह मुहम्मदशाह रंगीला के नाम से प्रसिद्ध हैं। उसका शासनकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं। सैयद बंधुओं ने बादशाह के चारों ओर अपने आदमी नियुक्त किये। बादशाह को केवल शुक्रवार की नमाज पढ़ने के लिये बाहर निकलने की अनुमति थी। उस समय भी वह सैयद बंधुओं के आदमियों से घिरा रहता। बादशाह को घुड़सवारी एवं आखेट की अनुमति भी बड़ी कठिनाई से मिलती थी। बादशाह ने सैयद बंधुओं के चंगुल से नियंत्रण पाने के लिये चिनकुलीचखाँ का सहयोग मांगा। सैयद बन्धुओं के विरोधियों में चिनकुलीचखाँ (निजाम-उल-मुल्क) सर्वाधिक योग्य एवं शक्तिशाली अमीर था।

सैयद बन्धुओं का अंत

जब सैयदों को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने चिनक्लिचखां से मालवा की सूबेदारी वापस लेकर दिल्ली आने का आदेश भिजवाया। इस पर चिनकुलीचखाँ चौकन्ना हो गया और दिल्ली आने की बजाय दक्षिण की तरफ चल पड़ा। उसने असीरगढ़ और बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया। सैयद बन्धुओं ने उसका दमन करने के लिये जो सेना भेजी, उसे निजाम ने खण्डवा और बालापुर के युद्धों में परास्त करके खदेड़ दिया। अब छोटे सैयद हुसैन अली ने बादशाह को साथ लेकर दक्षिण की तरफ कूच किया। बादशाह चिनकुलीचखाँ के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करना चाहता था किंतु उसे सैयद हुसैन अली के साथ जाना पड़ा। बादशाह अपनी इस स्थिति से मुक्ति चाहता था इसलिये उसने शाही शिविर के साथ चलने वाले अमीरों के साथ मिलकर मार्ग में ही हुसैन अली को समाप्त करने का षड्यन्त्र रचा। यह षड्यन्त्र सफल रहा और 8 अक्टूबर 1720 को हुसैन अली की हत्या कर दी गई। इसके बाद बादशाह राजधानी दिल्ली के लिये रवाना हो गया। जब दिल्ली में सैयद अब्दुल्ला को इसकी सूचना मिली तो उसने शाही परिवार के एक शाहजादे इब्राहीम को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया। अब्दुल्ला ने मुहम्मदशाह का मार्ग रोकने के लिये एक सेना भी दिल्ली से आगरा की ओर रवाना की। आगरा के निकट बिल्लोचपुर नामक स्थान पर हुए युद्ध में मुहम्मदशाह की सेना ने में अब्दुल्ला को परास्त कर दिया। अब्दुल्ला और इब्राहीम दोनों को कैदखाने में डाल दिया गया। इस प्रकार मुहम्मदशाह रंगीला के तख्त पर बैठने के लगभग एक वर्ष की अवधि में सैयद बंधुओं का अंत हो गया।

बादशाह की अय्याशी

सैयदों से पीछा छूट जाने पर भी मुहम्मदशाह की स्थिति अच्छी नहीं हो सकी। इस समय वह 20 वर्ष का था, उसके कई बच्चे थे तथा वह बीमार रहता था। वह कोकी नामक एक मुसलमान औरत के चक्कर में फंसा हुआ था और अपना अधिक समय शाही महल में नपुंसकों की संगति में व्यतीत करता था। वह शासन में उन लोगों को बड़े से बड़ा पद देता था जो बादशाह को अधिक से अधिक घूस देते थे। शहजादों और शहजादियों को बड़ी-बड़ी जागीरें बांट दी गई थीं जिससे शासन में दुर्बलता और अव्यवस्था आ गई। मुहम्मदशाह ने चिनकुलीचखाँ को अपना वजीर बनाया और स्वयं औरतों से घिरा रहता था। जब चिनकुलीचखाँ शासन में सुधार करने का प्रयत्न करता था तो मुहम्मदशाह उसका मखौल उड़ाते हुए कहता था कि देखो दक्षिण का गधा किस प्रकार नाचता है! 1722 ई. में चिनकुलीचखाँ दिल्ली छोड़कर दक्षिण में चला गया। इस कारण शासन की स्थिति दिन पर दिन बिगड़ने लगी।

दिल्ली की दुर्दशा

मुहम्मदशाह की निर्बलता देखकर मारवाड़ नरेश अजीतसिंह ने शाही फरमानों की अवहेलना आरम्भ कर दी तथा दिल्ली के निकट तक धावे मारने आरम्भ कर दिये। उसने नारनोल, अलवर, तिजारा और शाहजहाँपुर को लूट लिया तथा अजमेर पर अधिकार कर लिया। वह दिल्ली के आठ मील दूर सराय अलीवर्दीखाँ तक धावे मारने लगा जिससे दिल्ली में कोहराम मच गया। मुहम्मदशाह के समय में दिल्ली की यह हालत थी कि एक बार कोटा नरेश दुर्जनशाल बादशाह से मिलने के लिये आया। वहाँ उसने कुछ कसाईयों को देखा जो गायों को काटने के लिये शाही बाबर्चीखाने ले जा रहे थे। दुर्जनशाल ने अपने आदमियों से उन कसाइयों को मार डालने का आदेश दिया। हो हल्ला सुनकर दिल्ली का कोतवाल भी कसाइयों की रक्षा के लिये आ गया। इस पर उसे भी मार डाला गया तथा दुर्जनशाल उन गायों को लेकर कोटा आ गया।

नादिरशाह का आक्रमण

1737 ई. में फारस के शाह नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। वह कांधार तथा लाहौर को जीतता हुआ 1739 की गर्मियों में करनाल तक आ गया। मुहम्मदशाह की सेनाओं ने करनाल में उसका मार्ग रोकने का प्रयास किया किंतु वह आसानी से परास्त हो गया। नादिरशाह ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे दिल्ली के लाल किले में दीवाने खास के पास ठहराया गया। दिल्ली में नादिरशाह के सैनिकों तथा दुकानदारों में सामान खरीदने के ऊपर झगड़ा हो गया जिसमें कुछ ईरानी सैनिक मारे गये। इस पर नादिरशाह ने दिल्ली में कत्लेआम करने का आदेश दिया। तीस हजार आदमी मार डाले गये। उसके सिपाहियों ने दिल्ली के लाल किले में रहने वाली बेगमों, शहजादियों और बड़े-बड़े अमीरों की स्त्रियों का शील हरण किया। अंत में मुहम्मदशाह ने नादिरशाह को 70 करोड़ रुपये देकर उसके सैनिकों द्वारा किया जा रहा विनाश रुकवाया। नादिरशाह मुगलों के कोष से 70 करोड़ रुपये नगद, 50 करोड़ रुपये का माल, 100 हाथी, 7 हजार घोड़े, दस हजार ऊँट, कोहिनूर हीरा, हजारों स्त्री-पुरुष (गुलाम बनाने के लिये) तथा मुगलों के रत्न जटित तख्त ताऊस को लेकर फारस चला गया। मुहम्मदशाह ने उसे काश्मीर से लेकर सिन्ध तक का क्षेत्र भी समर्पित कर दिया। नादिरशाह, मुहम्मदशाह की एक शहजादी को भी अपने पुत्र से जबर्दस्ती विवाह करके अपने साथ ले गया। नादिरशाह अपने साथ भारत से हर प्रकार के सैंकड़ों कारीगरों को भी ले गया। उसके जाने के बाद आठ दिन बाद मुहम्मदशाह ने दरबार आयोजित किया तथा अपने नाम के सिक्के जारी किये। यह सब केवल दिखावा था। करनाल के युद्ध में प्रधान सेनापति, लगभग समस्त प्रमुख अमीर तथा बारह हजार सैनिक मारे जा चुके थे। खजाना खाली था। थानेश्वर, पानीपत और सोनीपत आदि समृद्ध नगर लुट चुके थे। दिल्ली की जनता, बादशाह के खानसामों एवं वजीरों को जूतों से पीटती थी। ऐसी स्थिति में बादशाह कैसे शासन कर सकता था। अप्रेल 1748 में इन्हीं परिस्थितियों में मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई।

अहमदशाह (1748-1754 ई.)

मुहम्मदशाह के बाद उसका पुत्र अहमदशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा। वह नितांत चरित्रहीन व्यक्ति था। इस समय तक दिल्ली सल्तनत नाम मात्र की रह गई थी किंतु बादशाह को इसकी चिंता नहीं थी। वह दो कोस लम्बे-चौड़े एक क्षेत्र में रहता था जिसमें अगणित सुंदर स्त्रियां भरी पड़ी थीं। उसने अपने ढाई वर्ष के एक पुत्र को पंजाब का सूबेदार तथा एक वर्ष के पुत्र को उसका नायब सूबेदार नियत किया। इसी प्रकार एक साल के एक और पुत्र को काश्मीर का सूबेदार नियत किया। अदमदशाह की माँ ऊधमबाई एक सुंदर वेश्या थी। अपने पुत्र को रंगरेलियों में व्यस्त देखकर ऊधमबाई दिल्ली का शासन चलाने लगी। एक साधारण अफसर जाबिदखाँ, ऊधमबाई का प्रेमी था। वह भी शासन चलाने में ऊधमबाई की सहायता करने लगा। वह ऊधमबाई के महल में ही रात गुजारा करता था। इन दोनों के अत्याचारों से जनता और शासन के अधिकारी और भी दुखी हो गये। शासन की इतनी दुर्गति हो गई कि किसानों और प्रजा से राजस्व वसूली की तो कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। एक बार महल के नौकरों को एक वर्ष तक वेतन नहीं मिला। इस पर उन्होंने बादशाह के महल के दरवाजे पर एक गधा और एक कुतिया बांध दी। जब अमीर लोग महल में आते थे तो उनसे कहा जाता था कि पहले इन्हें सलाम कीजिये। यह नवाब बहादुर हैं तथा ये हजरत ऊधमबाई हैं।

जब सैनिकों को तीन साल तक वेतन नहीं मिला तो भूखे सिपाही दिल्ली के बाजारों में ऊधम मचाने लगे। इस पर दिल्ली के लोगों ने लाल किले के दरवाजे बारह से बंद कर दिये ताकि किले के भीतर के लोग शहर में न आ सकें। जब अमीरखाँ फौजबख्शी का निधन हो गया तब सिपाहियों ने उसका घर घेर लिया तथा तब तक लाश नहीं उठने दी जब तक कि उनका बकाया वेतन नहीं चुका दिया गया। इस वेतन को जुटाने के लिये बख्शी के महल के गलीचे, हथियार, रसोई के बर्तन, कपड़े, पुस्तकें, बाजे बेचे गये। कुछ सिपाहियों को इस पर भी वेतन नहीं मिला तो वे बख्शी के घर का बचा-खुचा सामान ही लेकर भाग गये।

आलमशाह के समय में अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर तीन आक्रमण किये। अपने दूसरे और तीसरे आक्रमण में उसने मुल्तान तथा पंजाब को जीत लिया।

बादशाह और वजीर में लड़ाई

अहमदशाह ने सआदतखां बुरहान-उल-मुल्क के भतीजे सफदरजंग को अपना वजीर बनाया परंतु हिंजड़ों के सरदार जावेदखां ने जो बादशाह को अत्यंत प्रिय था और जिसे नवाब बहादुर की उपाधि मिली हुई थी, एक विरोधी गुट बना लिया। उसके गुट को इतिहास में दरबारी पार्टी कहते हैं। यह पार्टी वस्तुतः स्त्रियों और हिंजड़ों की महफिल थी। इस पार्टी का बादशाह पर अच्छा खासा प्रभाव था। यह पार्टी सफदरजंग तथा अन्य अमीरों के विरुद्ध जाल रचती थी। सफदरजंग किसी तरह दिल्ली की शासन व्यवस्था चलाता था किंतु बादशाह दरबारी पार्टी के बहकावे में आकर वजीर को मरवाने का षड़यंत्र रचने लगा। इस पर नाराज होकर सफदरजंग ने हिंजड़ों के सरदार नवाब बहादुर को मरवा दिया। इससे अहमदशाह और सफदरजंग के बीच ठन गई और सल्तनत में गृहयुद्ध आरंभ हो गया। बादहशाह ने सफदरजंग को हटाकर अवध भेज दिया तथा उसके स्थान पर इन्तिजमुद्दौला को वजीर बना दिया। कुछ ही दिनों में इन्तिजमुद्दौला को हटाकर मीर बख्शी इमाद-उल-मुल्क को वजीर बनाया गया। वजीर बनने के कुछ समय बाद इमाद-उल-मुल्क ने बादशाह आलमशाह को तख्त से उतार कर अंधा कर दिया। उसके स्थान पर आलमगीर द्वितीय को तख्त पर बैठाया। अब वजीर ने  खुलकर खेला आरंभ किया तथा शाही परिवार को भूखों मारने लगा।

आलमगीर (द्वितीय) से बहादुरशाह जफर तक

(1754-1857 ई.)

अहमदशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आलमगीर (द्वितीय) दिल्ली के तख्त पर बैठा। उसके समय में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर चौथा आक्रमण किया तथा दिल्ली में प्रवेश किया तथा भारी लूटमार मचाई। आलमगीर (द्वितीय) के वजीर इमाद-उल-मुल्क ने 1758 ई. में बादशाह की हत्या करवा दी और शाहजहाँ (तृतीय) को बादशाह बनाया। उसने केवल एक वर्ष तक शासन किया। 1759 ई. में आलमगीर के पुत्र अलीगौहर ने बिहार में स्वयं को शाहआलम (द्वितीय) के नाम से बादशाह घोषित कर दिया। उसने 1759 से 1806 ई. तक स्वयं को बादशाह घोषित करे रखा। यद्यपि वह वर्षों तक दिल्ली नहीं आ सका। 1772 ई. में वह मराठों के संरक्षण में दिल्ली पहुंचा। उसके समय में पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। शाहआलम (द्वितीय) के पश्चात् क्रमशः अकबर (द्वितीय) 1806-1837 ई. तक और बहादुरशाह (द्वितीय) 1838 से 1858 ई. तक मुगलों के तख्त पर बैठे। अंतिम बादशाह बहादुरशाह (द्वितीय) को इतिहास में बहादुरशाह जफर के नाम से भी जाना जाता है। उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् अपदस्थ करके रंगून भेज दिया जहां उसे कैद में रखा गया। कैद में ही उसकी मृत्यु हुई तथा भारत से मुगलों का शासन समाप्त हो गया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source