अकबर के खुरदरे चेहरे से चिंता की लकीरें मिटी नहीं। न तो अब्दुर्रहीम और न ही दोनों करिश्माई फकीर उसके सीने में जलती आग को शांत कर पाये। बादशाह ने अपने आप को भीषण ज्वाला में घिरे हुए पाया। हहराती हुई लपटों में झुलसा जा रहा था वह। जाने कैसा लावा था जो पिघल-पिघल कर उसके मन में भर गया था! स्थितियाँ इतनी विकट हो जायेंगी, इसका उसे स्वप्न में भी अनुमान नहीं था। उसने जीतना चाहा था किंतु बाजी उसके हाथ से निकल गयी थी। वह जीत कर भी हार गया था, सदा-सदा के लिये।
संसार में अब ऐसा कोई नहीं बचा था जिसे दिखाने के लिये वह जीतना चाहता था। उसने तो चाहा था कि बैरामखाँ देखे कि अकबर बिना बैरामखाँ के भी जीत सकता है किंतु बैरामखाँ ने उसे यह अवसर ही नहीं दिया। यह ठीक था कि उसने बैरामखाँ को परास्त किया था किंतु वह बैरामखाँ को परास्त नहीं करना चाहता था। बैरामखाँ ने उसे ऐसा करने के लिये मजबूर किया था। अकबर की इच्छा तो केवल इतनी ही थी कि खानाखाना अपनी आँखों से देखे कि अकबर जीत के लिये खानाखाना का मोहताज नहीं है। वह स्वयं भी जीत सकता है अपने बल बूते पर!
आज उसे बार-बार ‘कालानौर’ याद आ रहा था जब वह कुल तेरह साल की उम्र में बैरामखाँ के संरक्षण में मानकोट के दुर्ग पर घेरा डाले हुए था। अपनी विशाल सेना के साथ दुर्ग में बंद सिकन्दर सूर किसी भी भाँति काबू में आता ही न था। एक तो बैरामखाँ के पास सैनिकों की संख्या बहुत कम थी और दूसरी ओर राजधानी आगरा से किसी तरह की सहायता मिलने की आशा भी नहीं थी। बैरामखाँ के पास कुछ ही वफादार शिया सिपाही बचे थे जिन्हें बैरामखाँ फारस के शाह तहमास्प से लेकर आया था या फिर जिन सिपाहियों को खुद बैरामखाँ ने अपने बलबूते पर सेना में भरती किया था।
खानखाना को यह लड़ाई उन्हीं मुट्ठी भर सिपाहियों के बूते पर लड़नी थी क्योंकि बादशाह हुजूर[1] तो आगरा छोड़कर जंग के मैदान में आते ही नहीं थे। बादशाह हुजूर के सिपहसलार दबी-ढंकी जुबान से चर्चा करते थे कि बादशाह हुजूर अपनी पुरानी आदत के अनुसार बादशाही पाते ही फिर से अय्याशी में डूब गये थे। सिपहसलारों का यह भी कहना था कि बादशाह हुजूर को जो भी पैसा मिलता था, बादशाह हुजूर उसे शराब और सुंदर औरतों पर खर्च कर डालते थे। यही कारण था कि बादशाह हुजूर को मरहूम बड़े बादशाह हुजूर[2] द्वारा जीता गया हिन्दुस्तान लगभग हमेशा के लिये खोकर फारस भाग जाना पड़ा था। बादशाह हुजूर में इतनी क्षमता न थी कि वे हिन्दुस्तान पर फिर से राज्य कायम कर सकते।
यह तो खानखाना ही था जो किसी भी कीमत पर बादशाह हुजूर को हिन्दुस्तान का ताज दिलवाने पर तुले हुआ था। यह उसी का बुलंद हौसला था कि बादशाह हुजूर रेगिस्तान की खाक छानना छोड़कर फिर से आगरा में आ बैठे थे और हिन्दुस्तान के बादशाह कहलाने लगे थे। पूरे पन्द्रह साल तक बैरामखाँ घोड़े की पीठ पर बैठा रहा था तो केवल इसलिये कि बादशाह हुजूर को दिल्ली और आगरा के तख्त पर फिर से बैठा सके। लेकिन बादशाह हुजूर! उन्हें तो जैसे ही आगरा मिला, तलवार म्यान में रख ली। उन्होंने बैरामखाँ को सिकन्दर सूर के पीछे लगा दिया था और स्वयं आगरा के महलों में रहकर रास-रंग में डूब गये थे।
कक्ष में कुछ आवाज हुई तो अकबर ने सिर उठा कर देखा मशालची मशालों में तेल डाल रहा था। संभवतः सूरज डूबने को था। मशालों से निकलने वाले धुएँ से कुछ देर निजात पाने के लिये वह महल से निकल कर बाहर बागीचे में आ गया। पेड़ों की चोटी पर सूरज की किरणें अब भी थकी-हारी सी बैठी थीं। बादशाह ने चारों ओर आँख घुमाकर देखा, कैसी अजीब वीरानगी सी फैली हुई है! जाने कहाँ गयीं यहाँ की रौनकें! शायद खानबाबा के साथ चली गयीं! बैरामखाँ का ध्यान आया तो अकबर फिर से विचारों की दुनिया में डूब गया।
क्या सोच रहा था वह कुछ देर पहले! कालानौर! हाँ, वही तो! कालानौर के दृश्य अकबर की आँखों के सामने तैर गये। उनमें से कुछ चित्र तो इतने ताजे थे मानो आज कल में ही देखे हों और कुछ चित्र धूमिल हो चले थे। कुछ तो संभवतः स्मृति पटल से पूरी तरह लुप्त भी हो गये थे।
अकबर स्मृति पटल पर शेष बच गये चित्रों से बात करने लगा। कितना निर्भर करते थे बादशाह हुजूर खानबाबा पर! लगता था जैसे बादशाह हुजूर को खुदा के बाद खानबाबा का ही आसरा था। तभी तो बादशाह हुजूर ने हमें बारह वर्ष की उम्र में ही खानबाबा के संरक्षण में दे दिया था ताकि हम जंग और जंग के मैदान को समझ सकें। और खानबाबा! उन्हें भी तो जैसे बादशाह हुजूर की प्रत्येक मंशा पूरी करने का नशा सा छाया रहता था। लगता था जैसे बादशाह हुजूर की जीभ से आदेश बाद में निकलता था, उसकी पालना पहले हो जाती थी!
बादशाह हुजूर जानते थे कि वे जो कर रहे हैं, वह एक बादशाह के लिये उचित नहीं है। वे ये भी जानते थे कि बादशाही का आधार जंग का मैदान होता है न कि उसका हरम। इसीलिये तो बादशाह हुजूर ने हमें हरम में पलकर बड़ा होने देने के बजाय मैदाने जंग में रखना अधिक उचित समझा था। बादशाह हुजूर की मंशा को समझकर खानबाबा ने हमें जंग और मैदाने जंग की हर पेचीदगी समझाई। इतना ही नहीं खानबाबा ने तो हमें जीवन में आने वाली उन पेचीदगियों को भी बताया जिन्हें केवल एक बाप ही बेटे को बताता है। हम भी तो कितना प्रसन्न थे एक अतालीक को पाकर! उन दिनों तो जैसे वे ही हमारे सब कुछ थे- दोस्त, उस्ताद और यहाँ तक कि वालिद भी।
देखा जाये तो खानबाबा को पाने से पहले हमने जीवन में पाया ही क्या था? मनहूसियत और केवल मनहूसियत! हमारा तो जन्म ही मनहूसियतों के बीच हुआ था। जाने कितनी तरह की मनहूसियतें तकदीर बनाने वाले ने हमारी किस्मत में लिखी थीं! रेगिस्तान में चारों ओर पसरी हुई धूल, सिर पर मगज को तपा देने वाला सूरज और हमें मार डालने के लिये चारों तरफ घूमते हुए दुश्मन। दुश्मन भी कैसे? हमारे अपने सगे सम्बंधी!
माँ-बाप जान बचाकर भागे तो हमें पीछे भूल गये। और हमारी किस्मत तो देखो! हम उन सगे सम्बंधियों के बीच पल कर बड़े हुए जो दुश्मनों से भी अधिक संगदिल और बेरहम हुआ करते हैं। जब हमारा सगा चाचा कामरान ही हमें दीवार पर टांक कर तोप से उड़ा देने को उतारू था तो फिर दूसरा कौन था जो हम पर रहम करता! कैसा था हमारा कुनबा! ऐसे तंगदिल और स्वार्थी मनुष्यों का झुण्ड जो अपने ही खून के खिलाफ षड़यंत्र रचता था! जो अपनों का ही खून पीने को लालायित रहता था। बड़े बादशाह हुजूर[3] को तो हमने देखा नहीं किंतु सुना है कि वे अपने कुनबे से बहुत प्रेम करते थे। फिर क्यों उनका कुनबा इतने घृणित लोगों से भर गया था! तब हमारे लिये यह दुनिया तपते हुए रेगिस्तान से अधिक क्या थी? तरुण बादशाह की आँखों में पानी तैर आया। खानबाबा जैसे तपते हुए रेगिस्तान में ठण्डी हवा का
झौंका बनकर आये थे। जब कांधार में तोपें आग के शोले उगल रहीं थीं और हम मारे डर के हाथ पैर फैंक-फैंक कर रो रहे थे तब खानबाबा ही थे जिन्होंने किले की दीवार पर चढ़कर हमें छाती से लगा लिया था। खानाबाबा के रूप में पहली बार हमारा परिचय प्रेम और विश्वास के संसार से हुआ था।
तब पहली बार हमें पता लगा था कि जन्म देने वाली माँ और छाया देने वाले बाप के अलावा भी संसार में अच्छे लोग होते हैं। कितना चाहा था हमने कि अधिक से अधिक दिन हम
खानबाबा के साथ मैदाने जंग में रहें और उनसे वो सब इल्म हासिल करें जो एक बादशाह के पास होना चाहिये किंतु कुदरत को तो यह भी मंजूर नहीं था। उधर हम खानबाबा से जंग और जिंदगी के सबक सीख रहे थे तो इधर कुदरत हमारे लिये जंग और जिंदगी में मुश्किलों के नये हर्फ लिख रही थी।
लगभग ऐसा ही मनहूस दिन था वह भी जब बादशाह हुजूर की असमय मौत का समाचार कालानौर जंग के मैदान में पहुँचा था। कैसा लगा था तब! जैसे कोई शीशा झन्ना कर टूट पड़ता है! जैसे आसमानी बिजली जमीन पर आ गिरती है! जैसे कोई घोड़ा तेज रफ्तार से दौड़ता हुआ पहाड़ों की खाई में जा गिरता है।
कुदरत ने जाने कैसी मनहूसियत लिखी थी हमारी जिंदगी में! खानबाबा भी तो जैसे सन्न रह गये थे! उन पर यह दोहरी मार थी। मानकोट का दुर्ग एक दो दिन में ही टूटने वाला था। ऐसे में यदि बादशाह हुजूर की मौत का समाचार सिकन्दर सूर तक पहुँच जाता तो वह दोगुने जोश से भर जाता!
सेना और सेनापति बादशाह के लिये लड़ते हैं, भले ही बादशाह कैसा भी क्यों न हो। बिना बादशाह के लड़ती हुई सेना को शायद ही कोई सेनापति जीत हासिल करा सके! यह भी तो संभव था कि यदि हमारी अपनी मुगल सेना को बादशाह हुजूर की मौत का समाचार मिल जाता तो जाने कितने सैनिक खानबाबा का साथ छोड़कर सिकन्दर सूर से जा मिलते! यदि ऐसा हो जाता तो हाथ आयी हुई बाजी निश्चत ही पराजय में बदल जाती।
हमारी स्थिति तो और भी विचित्र थी। बादशाह हुजूर के बाद हम ही हिन्दुस्तान के तख्त के वारिस थे किंतु बादशाह हुजूर उस समय हमारे लिये जो तख्त छोड़ गये थे उसके नीचे केवल दिल्ली और आगरा के ही सूबे थे और वे भी पूरे नहीं थे। अधिकांश इलाकों पर सिकन्दर सूर के वफादार सूबेदार कायम थे।
तेरह वर्ष के बालक ही तो थे हम! हमारी समझ में कुछ नहीं आता था कि ऐसी स्थिति में हम क्या करें? लगता था कि हम भी बादशाह हुजूर की तरह शतरंज के बादशाह बनकर रह जायेंगे? क़यामत जैसी मुश्किल के उन दिनों में खानबाबा ही तो एकमात्र भरोसा रह गये थे हमारे। इस मुसीबत से बाहर निकलने के रास्ते केवल खानबाबा जानते थे। जो कुछ करना था उन्हीं को करना था, हमें तो केवल उनके साथ रहना था।
स्मृतियों का झरोखा एक बार खुला तो खुलता ही चला गया। रात काफी हो गयी थी। बरसात के दिन थे इसलिये ओस भी गिर रही थी लेकिन बादशाह बाहर की दुनिया से बेखबर जाने किन विचारों में डूबा हुआ था! गुलाम हाथ बांधे खड़े थे। बेगमों तक खबर पहुँची तो वे भी चली आयीं थी। मुँह लगे अमीर-उमराव भी खिदमत में हाजिर थे किंतु किसी की मजाल नहीं थी जो तरुण बादशाह को भीतर चलने के लिये कह सके। इस समय बादशाह को टोकने का एक ही अर्थ था और वह था बादशाही कोप!
बादशाह के करीबी लोग जानते थे कि आज बादशाह उस हद तक गमगीन है जिस हद तक कोई अपने पिता की मौत पर होता है। जाने कैसा सम्बंध था बादशाह और बैरामखाँ के बीच? शायद ही कोई अनुमान लगा सकता था! कितना-कितना प्रेम था दोनों के बीच और कितनी-कितनी घृणा! शायद ही संसार में ऐसा कहीं होता हो। यदि कोई आदमी बादशाह के सामने बैरामखाँ का उल्लेख भर कर देता था तो उसे बादशाह की गालियां खानी पड़ती थीं, चाहे वह बैरामखाँ की प्रशंसा करे या फिर उसकी बुराई।
स्मृतियों के भण्डार में कितने-कितने चित्र थे जो अकबर को बैरामखाँ से जोड़े हुए थे। हुमायूँ बैरामखाँ की सेवाओं का उल्लेख करते हुए अक्सर भावुक हो जाता था और कहा करता था कि बैरामखाँ की सेवाओं के प्रत्युपकार में कई तैमूरी बादशाह और शहजादे कुरबान किये जा सकते हैं किंतु भाग्य की विडम्बना यह रही कि इतना सब जानने पर भी अकबर ने बैरामखाँ को देश निकाला दिया था। तरुण बादशाह को आज उन बातों का स्मरण बरबस हो आया।
[1] हुमायूँ।
[2] बाबर।
[3] बाबर।
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