बाबर ने कई बार समरकंद पर अधिकार करने का प्रयास किया था तथा तीन बार समरकंद पर अधिकार भी किया था किंतु हर बार कुछ ही समय में समरकंद उसके हाथों से निकल गया था। इसका मुख्य कारण यह था कि बाबर तुर्को-मंगोल कबीले का तैमूरी बादशाह था और इस काल तक समरकंद के ट्रान्स-ऑक्सियाना क्षेत्र में उज्बेगों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए बाबर को समरकंद, बुखारा, फरगना, ताशकंद, कुंदूज और खुरासान की जनता से सहयोग नहीं मिल पा रहा था।
उज्बेगों ने इस काल में मध्य-एशिया के समस्त तैमूरी बादशाहों को नष्ट कर दिया था। इस कारण बाबर अकेला अपने दम पर ट्रान्स-ऑक्सियाना पर अधिकार नहीं रख सकता था। बाबर ने फारस के शिया शासक की सहायता से समरकंद एवं समस्त ट्रान्स-ऑक्सियाना क्षेत्र पर अधिकार कर लिया किंतु बाबर के मंत्री, सेनापति एवं सैनिक ही नहीं ट्रान्स-ऑक्सियाना क्षेत्र की जनता भी सुन्नी मत को मानने वाली थी। इस कारण शियाओं की सहायता लेने से बाबर का दांव उलटा पड़ गया।
यही कारण था कि इस बार उसे हमेशा के लिए ट्रान्स-ऑक्सियाना अर्थात् समरकंद, बुखारा, फरगना, ताशकंद, कुंदूज और खुरासान के क्षेत्र छोड़ देने पड़े। बदख्शां में अवश्य ही बाबर के अधीन गवर्नर शासन करता था किंतु बाबर का भाग्य मुख्यतः अफगानिस्तान में सिमट कर रह गया था जहाँ काबुल, कांधार और गजनी उसके अधीन थे किंतु यह क्षेत्र इतना निर्धन था कि वह बाबर जैसे महत्वाकांक्षी बादशाह का पेट नहीं भर सकता था।
इस क्षेत्र में यूसुफजाई जाति के कबीले बड़ी संख्या में रहते थे। उस काल में ये लोग बड़े झगड़ालू, विद्रोही और हद दर्जे तक बर्बर थे। वे किसी भी तरह के अनुशासन में रहने की आदी नहीं थे तथा किसी को भी कर के रूप में फूटी कौड़ी नहीं देना चाहते थे। बाबर ने उन्हें बलपूर्वक कुचलना चाहा किंतु उसे सफलता नहीं मिली। पहाड़ी और अनुपजाऊ क्षेत्र होने के कारण बाबर इस क्षेत्र से इतनी आय भी नहीं जुटा पाया जिससे उसका और उसकी सेना का निर्वहन हो सके।
जीवन भर की लड़ाइयों के चलते तुर्क, मंगोल, ईरानी, उजबेग और अफगानी लड़ाके बाबर के खून के प्यासे हो गये थे। इस कारण यह आवश्यक था कि उसके पास एक विशाल सेना रहे किंतु इस निर्धन प्रदेश में सेना को चुकाने के लिये वेतन एवं घोड़ों के लिए दाने का प्रबंध करना बाबर के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई थी।
एक सौ ग्यारह साल की बुढ़िया से बाबर ने भारत की सम्पन्नता और तैमूर के भारत आक्रमण की जो कहानियाँ सुनीं थीं वे अब भी बाबर के अवचेतन मस्तिष्क में घर बनाये हुए बैठी थीं। इसलिये इस बार बाबर ने देवभूमि भारत में अपना भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। इन सब से भी बढ़कर एक और चीज थी जो उसे अफगानिस्तान में चैन से बैठने नहीं दे रही थी। वह थी उसकी खूनी ताकत। आखिर उसके खून में चंगेज खाँ और तैमूर लंग का सम्मिलित खून ठाठें मार रहा था जो क्रूरता की सारी सीमायें पार करके नई मिसाल स्थापित करना चाहता था।
बाबर को अपनी खूनी ताकत पर पूरा भरोसा था जिसके बल पर वह अपना भाग्य नये सिरे से लिख सकता था। हालांकि बाबर एक दुर्भाग्यशाली व्यक्ति था किंतु परिश्रम के मामले में वह अपने युग के लोगों में सबसे आगे रहने वाला था। संभवतः बाबर का भाग्य और भारत का दुर्भाग्य बाबर को हिन्दुस्तान की ओर खींच रहे थे।
मुगलों के इतिहास में आगे बढ़ने से पहले हम थोड़ी सी चर्चा बैराम खाँ तथा उसके पूर्वजों के सम्बन्ध में करनी चाहिए जो शीघ्र ही मुगलों का संरक्षक बनने वाला था। बैरम खाँ शिया मुसलमान था और तुर्कों की कराकूयलू शाखा में उत्पन्न हुआ था।
हम चर्चा कर चुके हैं कि मध्य-एशिया में तुर्कों के कई कबीले थे जिन्होंने अलग-अलग स्थानों पर अपने कई राज्य स्थापित किये। जो ‘तुुर्क’ तुर्किस्तान से आकर ईरान में बस गये थे, उन्हें तुर्कमान कहा जाता था। तुर्कमानों का जो कबीला काली बकरियां चराता था वह ‘कराकूयलू’ कहलाता था। तुर्की भाषा में ‘करा’ काले को कहते हैं, ‘कूय’ माने बकरी और ‘लू’ का अर्थ होता है- वाले। इस प्रकार काली बकरियों वाले कराकूयलू कहलाये।
सफेद बकरियां चराने वाले उनके भाई आककूयलू कहलाते थे। तुर्कों के कराकूयलू तथा आककूयलू कबीले वर्तमान अजरबैजान में निवास करते थे जो एशिया कोचक अर्थात् वर्तमान टर्की और रूस की सीमाओं पर स्थित है।
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी तक कराकूयलू कबीले की कई शाखायें हो चुकी थीं जिनमें से एक प्रमुख शाखा थी- ‘बहारलू’। मुगल अमीर तैमूर लंगड़े के समय में बहारलू शाखा में अली शकरबेग नाम का एक योद्धा हुआ जिसकी जागीर में हमदान, देनूर और गुर्दिस्तान के इलाके आते थे। यह जागीर ‘अली शकर बेग की विलायत’ कहलाता था। अलीशकर बेग इतना नामी आदमी था कि जब इस क्षेत्र से तुर्कमानों का राज्य चला गया तब भी यह क्षेत्र ‘अलीशकर बेग की विलायत’ कहलाता रहा।
अलीशकर बेग का बेटा पीरअली हुआ जिसने अपनी बहिन का विवाह समरकंद के शाह महमूद मिरजा से कर दिया और वह महमूद मिरजा का अमीर हो गया। यहीं से बहारलू खानदान मुगल खानदान से जुड़ा। समरकंद से महमूद मिर्जा का राज्य खत्म होने के बाद पीर अली तूरान से खुरासान चला गया। खुरसान के अमीरां मेंने पीरअली को शक्तिशाली समझ कर और आने वाले समय में अपने लिये प्रबल प्रतिद्वंद्वी जानकर उसकी हत्या कर दी।
पीरअली का बेटा यारबेग हुआ जो ईरान में रहता था। जब ईरान का वह क्षेत्र आककूयलू शाखा के हाथों से निकल गया तो यारबेग भाग कर बदख्शां आ गया और बदख्शां के कुन्दूज नामक शहर में रहने लगा। बदख्शां उस समय उमर शेख के पिता अर्थात बाबर के बाबा अबू सईद के अधीन था।
जब उमर शेख बदख्शां का शासक हुआ था तब यारबेग कुन्दूज में रहता था। यारबेग के बेटे सैफ अली ने बदख्शां की सेना में नौकरी कर ली। सैफअली का बेटा बैरम बेग उमर शेख के बेटे बाबर की सेना में शामिल हो गया। जब ईस्वी 1513 में बाबर अंतिम बार बदख्शां से अफगानिस्तान के लिये रवाना हुआ तो कराकायलू शाखा का यह वंशज भी अपना भाग्य आजमाने के लिये बाबर के साथ लग लिया।
बाबर ने अपने मौसा हुसैन मिर्जा को बदख्शां का गवर्नर नियुक्त किया था। ई.1520 में अचानक हुसैन मिर्जा की मृत्यु हो गई। उस समय हुसैन मिर्जा का पुत्र मिर्जा सुलेमान बहुत छोटा था। इसलिए बाबर की मौसी अपने पुत्र सुलेमान को लेकर बाबर के पास चली आई।
बाबर ने अपनी मौसी की इच्छा के अनुसार उसके पुत्र मिर्जा सुलेमान को बदख्शां का गवर्नर बने रहने दिया तथा अपने पुत्र हुमायूँ को उसका मार्गदर्शन करने के लिए बदख्शां भेज दिया। हुमायूँ का जन्म ई.1508 में हुआ था। इसलिए हुमायूँ इस समय केवल 12 साल का किशोर था। कुछ समय बाद बाबर ने अपने दूसरे अल्पवय-पुत्र कामरान को कांधार का शासक नियुक्त कर दिया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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