यद्यपि बाबरनामा स्वयं भी झूठ से भरा पड़ा है तथापि बाबरनामा से कई चौंकाने वाले खुलासे होते हैं किंतु यह देखकर हैरानी होती है कि आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने बाबरनामा की सच्चाइयों को यत्नपूर्वक छिपाया है। इनमें से सबसे बड़ी सच्चाई बाबर के वंश के सम्बन्ध में है।
बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में अपनी माता कुतलुग निगार खानम को आधा चगताई तथा आधा मुगुल (मुगल) बताया है जबकि बाबर का पिता मिर्जा उमर शेख तैमूर लंग का चौथा वंशज था और तुर्क खानदान का बादशाह था। भारत में लिखी गई इतिहास की पुस्तकों में बाबर के वंशजों को बहुत कम स्थानों पर तैमूरी खानदान कहा गया है।
उन्हें अधिकांशतः चंगेजी खानदान, चगताई खानदान और मुगलिया खानदान कहकर पुकारा गया है जो कि वस्तुतः बाबर की माता के पूर्वजों के खानदान थे न कि बाबर के पिता के पूर्वजों के। हालांकि उमर शेख की तरह उमर शेख के किसी पूर्वज का विवाह भी चंगेजी खानदान की किसी शहजादी से हुआ था। इस कारण तैमूरी खनदान को तुर्को-मंगोल माना जाता था किंतु यह मुगल खानदान तो कतई नहीं था!
वंशनाम का यह परिवर्तन बहुत ही आश्चर्यजनक था। बाबरनामा में तो इस बात का उल्लेख होना ही नहीं था क्योंकि बाबर के जीवन-काल में बाबर को मुगल नहीं कहा जाता था किंतु हुमायूंनामा आदि ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि हुमायूँ के जीवनकाल में भी इस खानदान को मुगल खानदान नहीं कहा जाता था।
यह एक पहेली ही है कि बाबर के खानदान के नाम का परिवर्तन क्यों ओर कैसे संभव हुआ? जबकि बाबरनामा में बाबर ने अनेक स्थानों पर मुगलों की निंदा की है। बाबर को मंगोलों (मुगलों) के रहन-सहन, आचार-विचार तथा जीवन-शैली पर बड़ी आपत्तियां थीं। सैयद अतहर अब्बास रिजवी ने अपनी पुस्तक मुगलकालीन भारत में लिखा है कि बाबर को जब भी अवसर मिला उसने मुगलों पर चोट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
हुमायूँ भी प्रकट रूप में, सार्वजनिक रूप से मुगलों की निंदा किया करता था। बाबरनामा में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, वह चगताई-तुर्की है न कि मुगलों द्वारा प्रयुक्त होने वाली भाषा। चगताई-तुर्की भाषा मध्य-एशिया की सर एवं आमू नामक नदियों के बीच बोली जाती थी। इस भाषा में दो-तिहाई शब्द तुर्की भाषा के थे तथा एक-तिहाई शब्द फारसी एवं अरबी भाषाओं से लिए गए थे। बाबर की भाषा के आधार पर भी बाबर को मुगल नहीं कहा जाना चाहिए था।
तुर्क होने के कारण बाबर को अपने तुर्की भाषा के ज्ञान पर बड़ा गर्व था। इसलिए वह हुमायूँ के पत्रों में भाषा सम्बन्धी कमियां निकाला करता था और हुमायूँ के पत्रों के जवाब में वह हुमायूँ को लगातार सलाह देता था कि- ‘तेरे द्वारा लिखे गए पत्र में अशुद्ध तुर्की लिखी जाती है। तेरे वाक्य बड़े ही अस्पष्ट और जटिल होते हैं। मनुष्य को अपने लेखन में सरल भाषा में स्पष्ट संदेश लिखना चाहिए।’
बाबर ने तुर्की लिपि में एक नयी लेखन-शैली को जन्म दिया जिसे ‘खते बाबरी’ कहा जाता है। तुर्की के सबसे बड़े कवि मीर अली शेर बेग के बाद बाबर को ही स्थान दिया जाता है। इस दृष्टि से भी बाबर तुर्क ठहरता है न कि मुगुल अथवा मुगल।
बाबर तथा हुमायूँ के चित्रों में उनकी पगड़ी के बीच एक शंक्वाकार उभार दिखाई देता है जो उनके तुर्की होने की स्पष्ट घोषणा करता है। बाबर एवं हुमायूँ की पगड़ी, दाढ़ी, आंखें, आंखों के नीचे के उभार कोई भी चीज मुगलों से मेल नहीं खाती। इस आधार पर भी बाबर ओर हुमायूँ ‘तुर्की’ ठहरते हैं न कि मुगल।
संभवतः भारत के किसी इतिहासकार ने बाबर को उसके पूर्ववर्ती तुर्क सुल्तानों से अलग करने के लिए मुगल कहकर पुकारा। जब एक बार यह गलती हो गई तब यह गलती आगे से आगे चलती रही किसी ने इस बात का खण्डन करने का प्रयास नहीं किया।
यहाँ एक बात और समझी जानी चाहिए कि बाबर भी अफगानिस्तान से भारत आया था और उसके पूर्ववर्ती दिल्ली सल्तनत के शासक भी अफगानिस्तान से भारत आए थे। बाबर भी तुर्की था और उसके पूर्ववर्ती दिल्ली सल्तनत के शासक भी तुर्की थे। फिर भी उनमें अंतर यह था कि बाबर मूलतः समरकंद का तुर्क था और उसके पूर्ववर्ती सुल्तान अफगानिस्तान के तुर्क थे।
अब हम थोड़ी सी चर्चा बाबर की मृत्यु वाले दिन की करना चाहते हैं। बाबर की पुत्री गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब बाबर का रोग बढ़ने लगा तो उसने समस्त अमीरों को बुलाकर कहा कि बहुत वर्ष हुए, मेरी इच्छा थी कि हुमायूँ मिर्जा को बादशाही देकर मैं स्वयं जरअफशां बाग में एकांतवास करूं किंतु मैं अपने स्वस्थ रहते ऐसा नहीं कर सका।
इसलिए अब इस रोग से दुःखी होकर वसीअत करता हूँ कि आप सब हुमायूँ को हमारे स्थान पर समझें, उसका भला चाहने में कमी न करें और उससे एकमत रहें। मैं हुमायूं, समस्त सम्बन्धियों और अपने आदमियों को अल्लाह को और हुमायूँ को सौंपता हूँ।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि बादशाह के इतना कहते ही वहाँ उपस्थित सभी लोग रोने-पीटने लगे। बादशाह की आंखों में भी आंसू भर आए। जब यह बात हरम में पहुंची तो हरमवालियां भी रोने लगीं।
बाबर ने हुमायूँ को सलाह दी कि- ‘संसार उसका है जो परिश्रम करता है। किसी भी आपत्ति का सामना करने से मत चूकना। परिश्रमहीनता तथा आराम बादशाह के लिये हानिकारक है।’
अपनी आँखें बन्द करने से पहले बाबर ने हुमायूँ को आदेश दिया कि- ‘वह अपने भाइयों के साथ सदैव सद्व्यवहार करे चाहे वे उसके साथ दुर्व्यवहार ही क्यों न करें।’ हुमायूँ ने अपने पिता की इस आज्ञा का जीवन भर पालन किया। हालांकि बाबर की इस आज्ञा के कारण हुमायूँ को आगे चलकर बड़े कष्ट उठाने पड़े।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि तीन दिन के अनंतर 26 दिसम्बर 1530 को बादशाह इस नश्वर संसार से अमरलोक को चले गए। जब बाबर की मृत्यु हुई तो हरम की औरतों को बाबर के कक्ष से यह कहकर निकाला गया कि आप लोग पीछे के कमरे में जाइए, हकीम लोग बादशाह के स्वास्थ्य की जांच करने आ रहे हैं। हरम की औरतें जान चुकी थीं कि बादशाह का इंतकाल हो चुका है। अतः वे अपने कमरों में जाकर बंद हो गईं और रोने लगीं।
बाबर की मृत्यु की सूचना उसके महल से बाहर नहीं जाने दी गई क्योंकि हिंदुस्तान में यह चलन है कि जैसे ही लोगों को पता चलता है कि बादशाह की मृत्यु हो गई है तो जनता घरों से बाहर निकलकर लूटपाट करने लगती है। चूंकि मुगल खानदान को इस समय तक भारत में आए हुए चार साल ही हुए थे इसलिए इस बात की भी आशंका थी कि जनता शाही महलों में घुसकर लूटपाट मचाए।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि यह निर्णय लिया गया कि एक आदमी को लाल कपड़े पहनाकर हाथी पर बैठाकर मुनादी करवाई जाए कि बादशाह बाबर दरवेश हो गए हैं और मुल्क बादशाह हुमायूँ को दे गए हैं। हुमायूँ बादशाह के नाम की मुनादी सुनकर प्रजा को संतोष हो गया और सबने उनकी लम्बी उम्र की कामना की।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता