चगताई शहजादों का रक्त बहाने का अभ्यस्त था बाबर का वंश! चगताई शहजादे चंगेज खाँ के दूसरे बेटे चगताई खाँ के वंशज थे। भारत के मुगल स्वयं को इसी चगताई खाँ का वंशज मानते थे।
बाबर की नसों में चगताई खाँ के साथ-साथ तैमूर लंग का भी रक्त मिश्रित था। इसलिए उसके वंशज स्वयं को मुगल, बाबरी, चंगेजी, चगताई, तैमूरी एवं कजलबाश कहते थे। इस प्रकार चगताई शहजादों का रक्त मध्य एशियाई लड़ाकों के रक्त का मिश्रण बन गया था।
बाबर के वंशज चगताई शहजादों का रक्त बहाने के अभ्यस्त थे। ईस्वी 1530 में बाबर की मृत्यु से लकर ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु तक इस वंश के जितने शहजादों का खून स्वयं इस परिवार के सदस्यों ने बहाया, उतना खून उनके शत्रुओं ने भी नहीं बहाया था।
औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारत में मुगल शहजादों के रक्तपात का एक युग समाप्त हो जाता है तथा दूसरा युग आरम्भ होता है। औरंगजेब की मृत्यु के समय उसके तीन शहजादे आजम, मुअज्जम तथा कामबख्श जीवित थे जो दिल्ली एवं आगरा के लाल किलों, तख्ते ताउस तथा कोहिनूर हीरे पर अधिकार करने के लिए एक दूसरे पर टूट पड़े। इस खूनी खेल का इतिहास जानने से पहले हम पाठकों को चगताइयों के इतिहास में थोड़ा पीछे लेकर चलना चाहते हैं।
ई.1526 में भारत के मुगलों का पूर्वपुरुष बाबर बड़ी हसरतें लेकर भारत में आया था ताकि वह अपने वंशजों को एक बड़ी तथा सुरक्षित सल्तनत सौंपकर जा सके और उसके वंशज इस सल्तनत में सुख से रह सकें। उसकी नसों में चगताई शहजादों का रक्त जोर मारता था।
बाबर की इच्छा के अनुसार विगत दो सौ सालों से बाबर के वंशज अपनी सल्तनत का विस्तार करते आ रहे थे और उनका राज्य दिल्ली तथा आगरा से बढ़कर ऊपर कश्मीर तक तथा नीचे दक्षिण तक जा पहुंचा था किंतु अपने वंशजों के लिए बाबर ने जिस सुख की कामना की थी, वह उसके वंशजों को नसीब नहीं हो सका। वे एक-दूसरे को बुरी तरह मारते जा रहे थे। उन्हें शत्रुओं की आवश्यकता ही नहीं थी।
मुगल बादशाह एवं शहजादों के लिए अपने पिता, चाचा, भाई, बहिन, पुत्र-पुत्री तथा पोते-पोती तक के सिर कटवा देना, उन्हें जेल में बंद करके अफीम पिला-पिला कर मार देना, उनकी आंखें फोड़कर अंधा कर देना, उन्हें देश से भाग जाने के लिए विवश कर देना आदि बर्बरताएं उनके लिए बहुत साधारण बात थी। इन बर्बरताओं के चलते वे एक दूसरे का ही नहीं अपितु अपना सुख भी नष्ट करते जा रहे थे।
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बाबर को उसके चाचाओं एवं मामाओं ने उजबेकिस्तान से मारकर भगाया था जिसके कारण वह भारत आया था। बाबर के चार पुत्र थे- हुमायूं, कामरान, हिन्दाल, तथा अस्करी। ई.1530 में जब बाबर की मृत्यु हुई तो उसने मरने से पहले अपने बड़े बेटे हुमायूँ को शपथ दिलवाई थी कि वह अपने छोटे भाइयों को नहीं मारेगा किंतु छोटे भाइयों ने हुमायूँ को इतना तंग किया कि हुमायूँ का जीवन और राज्य दोनों बर्बाद हो गए।
कामरान ने हुमायूँ के पांच वर्षीय पुत्र अकबर को तोपों के सामने टांग कर उस पर गोले बरसाने के आदेश दिए किंतु शाही परिवार के लोगों ने किसी तरह अकबर को बचा लिया। चगताई शहजादों का रक्त एक दूसरे को माफ करने की परम्परा नहीं रखता था।
अंत में हुमायूँ ने लोहे की सलाइयां गर्म करवाकर कामरान की आंखें फुड़वाईं तथा अपने दूसरे छोटे भाई मिर्जा अस्करी को इस शर्त पर जीवित छोड़ा कि वह अंधे भाई कामरान को लेकर भारत से मक्का चला जाएगा तथा शेष जीवन वहीं पर व्यतीत करेगा। वे दोनों मक्का चले गए और वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुए। हुमायूँ का तीसरा भाई हिन्दाल भी हुमायूँ से छिपता फिरा और एक दिन किसी अफगान सिपाही द्वारा छुरा भौंक कर मार डाला गया।
हुमायूँ के चार पुत्र हुए थे जिनमें से दो बाल्यकाल में ही मर गए थे। हुमायूँ की मृत्यु के समय चौदह साल का जलालुद्दीन अकबर और पांच साल का मिर्जा हकीम नामक दो पुत्र जीवित थे। ई.1556 में जब हुमायूँ की मृत्यु हुई तो हुमायूँ की पत्नी चूचक बेगम ने अपने पुत्र मिर्जा हकीम को तथा हुमायूँ के संरक्षक बैराम खाँ ने अकबर को भारत का बादशाह घोषित किया। दोनों भाईयों के बीच हुए खूनी संघर्ष के बाद अकबर को भारत का तथा मिर्जा हकीम को काबुल का शासक मान लिया गया। ई.1605 में जब अकबर की मृत्यु हुई तो उसका एक ही पुत्र जीवित था जिसका नाम सलीम था। सलीम राज्य का इतना भूखा था कि उसने अपने पिता अकबर से कई बार विद्रोह किया तथा अकबर के कई मित्रों एवं विश्वसनीय सेनापतियों को मार डाला।
सलीम ने अपनी पत्नी मानीबाई को शराब पीकर कोड़ों से मार डाला क्योंकि मानीबाई अकबर के मित्र मानसिंह कच्छवाहे की बहिन थी। सलीम ने ओरछा के बुंदेलों के हाथों अपने पिता अकबर के मित्र अबुल फजल की हत्या करवा दी जो अपने समय का माना हुआ इतिहासकार एवं लेखक था।
एक दिन सलीम को अपने पिता अकबर का एक निजी सेवक अकेला मिल गया। सलीम ने उसी समय तलवार निकालकर उस सेवक की हत्या कर दी। इन सब कारणों से अकबर ने सलीम को बंदी बना लिया और सलीम तथा मानीबाई के पुत्र खुसरो को बादशाह बनाने का निर्णय लिया किंतु जब अकबर मर रहा था तो एक दिन सलीम किसी तरह बंदीगृह से छूटकर अकबर के महल में जा पहुंचा और उसके पलंग के पास लटक रही हुमायूँ की तलवार तथा अकबर की पगड़ी उठा ली। इस पर अकबर ने सलीम को ही बादशाह बना दिया।
सलीम ने बादशाह बनते ही अपने पुत्र खुसरो को ढुंढवाया किंतु खुसरो अपने पिता के भय से सिक्खों के गुरु अर्जुन देव के पास भाग गया। सलीम ने खुसरो को पकड़कर मंगावा। खुसरो ने अपने पिता के पैरों में गिरकर अपने प्राणों की भीख मांगी चाही किंतु उसे सीधे खड़े रहने के लिए कहा गया।
इसके बाद खुसरो के मित्रों को जीवित ही गधे और बैलों की खालों में सिल दिया गया और पूंछ की तरफ मुंह करके गधे पर बैठाया गया तथा लाहौर की सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद सलीम को दिल्ली लाया गया तथा उसके सहयोगियों को मारकर चंादनी चौक की संकरी गलियों में भालों की नोकों पर लटका दिया गया। खुसरो को एक हाथी पर बैठाकर उनके बीच से गुजारा गया। खुसरो से कहा गया कि वह अपने मित्रों की सलामी कुबूल करता हुआ चले।
इसके बाद खुसरो की आंखें फोड़कर उसे जेल में बंद कर दिया गया। खुसरो को आशीर्वाद देने के अपराध में गुरु अर्जुनदेव की भी हत्या कर दी गई। ई.1622 में जब जहांगीर ने अपने अन्य पुत्र खुर्रम को किसी युद्ध के मोर्चे पर भेजना चाहा तो खुर्रम ने अपने पिता जहांगीर के समक्ष शर्त रखी कि वह युद्ध में तभी जाएगा जब उसे खुसरो सौंप दिया जाएगा। जहांगीर ने उसकी यह शर्त मान ली तथा अंधे शहजादे खुसरो को उसके छोटे भाई खुर्रम के हाथों में सौंप दिया।
खुर्रम ने अपने बड़े भाई खुसरो की हत्या कर दी, उसके बाद ही वह अपने पिता के आदेश पर सल्तनत के शत्रुओं से लड़ने के लिए गया। ताकि जब कभी भी मुगलिया तख्त पर बैठने का अवसर आए तो खुसरो, खुर्रम की राह का कांटा न बन सके। कुछ दिन बाद खुर्रम ने अपने बाप जहांगीर से बगावत की किंतु उसे खुर्रम के बड़े भाई परवेज द्वारा दबा दिया गया।
जब ई.1628 में जहांगीर मरने लगा तो जहांगीर के पुत्र खुर्रम ने गद्दी पर बैठने से पहले अपने भाई शहरयार तथा अपने मरहूम भाई खुसरो के इकलौते पुत्र दावरबख्श सहित कई मुगल शहजादों की हत्याएं करवाई। अपने बड़े भाई खुसरो को तो वह पहले ही मार चुका था। खुर्रम के लिए मारवाड़ में एक दोहा कहा जाता है-
सबळ सगाई ना गिने, सबळां में नीं सीर।
खुर्रम अठारा मारिया, कै काका कै बीर।
अर्थात्- सामर्थ्यवान किसी से अपना सम्बन्ध नहीं मानता, न उसकी सामर्थ्य में किसी की हिस्सेदारी होती है। बादशाह बनने पर खुर्रम ने अठारह लोगों की हत्या की थी जो या तो उसके भाई थे, या फिर उसके भाई! कहने का अर्थ ये कि चगताई शहजादों का रक्त बहुतायत से उपलब्ध था और उसे बड़े आराम से बहाया जा सकता था।
इस हत्याकाण्ड के बाद खुर्रम शाहजहाँ के नाम से बादशाह हुआ। वह ई.1658 में बीमार पड़ा तो उसके चारों पुत्रों दारा शिकोह, शाहशुजा, औरंगजेब तथा मुरादबक्श में मुगल सल्तनत पर कब्जा करने को लेकर भीषण रक्तपात हुआ।
शाहजहाँ की चारों पुत्रियां जहानआरा, रौशनआरा, पुरहुनार बेगम तथा गौहरा बेगम भी इस रक्तपात में कूद पड़ीं। इसका परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद कर लिया तथा अपने तीनों भाइयों को मार डाला। शाहजहाँ पूरे आठ साल तक लाल किले में बंदी बनकर रहा।
औरंगजेब ने अपने बड़ी बहिन जहानआरा को आठ साल तक कैद में रखा तथा दूसरे नम्बर की बहिन रौशनआरा को जहर देकर मरवाया। इसके बाद औरंगजेब ने अपने पुत्र-पुत्रियों तथा पौत्र आदि का जो बुरा हाल किया वह सारा इतिहास हम अपनी पूर्ववर्ती कड़ियों में बता आए हैं।
ई.1707 में औरंगजेब मर गया किंतु चगताई शहजादों का रक्त भारत में और भी बुरा इतिहास लिखने को आतुर था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता