हुमायूँ के भय से मिर्जा कामरान बीहसूद से निकल कर हिन्दूकुश पर्वत को पार करके भारत चला आया। इस समय कामरान के पास केवल 12 अनुचर थे जिनमें अमीर तथा सेवक दोनों ही शामिल थे।
भारत आकर मिर्जा कामरान को ज्ञात हुआ कि इस समय दिल्ली का शासक इस्लामशाह सूरी पंजाब के बान नामक गांव में ठहरा हुआ है। पाठकों को स्मरण होगा कि ईस्वी 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूँ से भारत का राज्य छीना था किंतु इसके बाद शेरशाह सूरी केवल पांच साल ही जीवित रहा और एक दिन कालिंजर दुर्ग पर अभियान के समय अपनी ही तोप के फट जाने से मृत्यु को प्राप्त हुआ था।
शेरशाह के बाद उसका पुत्र जलाल खाँ इस्लामशाह सूरी के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। गुलबदन बेगम तथा अबुल फजल दोनों ने इस्लामशाह को सलीमशाह कहकर सम्बोधित किया है। इससे प्रतीत होता है कि जलाल खाँ को सुल्तान बनने के बाद इन दोनों नामों से जाना जाता था।
शाह बुदाग नामक एक अमीर ने मिर्जा कामरान को सलाह दी कि हमें इस्लामशाह सूरी से सम्पर्क करना चाहिए। कामरान को यह सलाह अच्छी लगी और उसने शाह बुदाग को अपना दूत बनाकर इस्लामशाह के पास भेजा। अबुल फजल ने लिखा है कि सलीम खाँ को बाबर के बेटे पर दया आ गई तथा उसने शाह बुदाग के हाथों कुछ रुपया कामरान के लिए भिजवाया। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि सलीमशाह ने कामरान के लिए एक हजार रुपए भिजवाए।
कामरान एक उतावला व्यक्ति था। इसलिए इससे पहले कि शाह बुदाग लौट कर आता, मिर्जा कामरान स्वयं ही इस्लामशाह से मिलने चल पड़ा। जब मिर्जा कामरान के आदमियों ने सुल्तान इस्लामशाह को सूचना दी कि मिर्जा कामरान सुल्तान से मिलने के लिए आ रहा है तो इस्लामशाह ने अपने तीन अमीरों को कामरान का स्वागत करने के लिए भेजा। उन अमीरों ने चार कोस आगे जाकर कामरान का स्वागत किया तथा बड़े आदर के साथ कामरान को इस्लामशाह के पास ले आए।
सुल्तान इस्लामशाह ने कामरान पर दया करके उसे रुपए भिजवाए थे तथा शाही तौर-तरीकों की पालना करते हुए अपने अमीरों को कामरान का स्वागत करने भेजा था किंतु इस्लामशाह यह नहीं भूला था कि यह शत्रु का पुत्र है। इसलिए इस्लामशाह ने कामरान के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया जैसा कि किसी महत्वपूर्ण शहजादे के साथ उन दिनों किया जाता था।
इस्लामशाह के इस रूखे व्यवहार से कामरान को बहुत धक्का लगा किंतु इस समय वह हुमायूँ का भगोड़ा और इस्लामशाह का शरणागत था। इसलिए कामरान इस अपमान को सह गया। इस्लामशाह ने कामरान से कहा कि वह शाही लश्कर के साथ हमारा मेहमान बनकर रहे तथा हमारे साथ दिल्ली चले। इस्लामशाह की योजना थी कि वह कामरान को दिल्ली ले जाकर किसी दुर्ग में बंद कर दे।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि सलीमशाह ने प्रकट रूप से तो कामरान से कुछ नहीं कहा किंतु जब कामरान कक्ष से बाहर जा रहा था, तब सलीमशाह ने कहा कि जिस इंसान ने अपने भाई मिर्जा हिंदाल को मारा है, मैं उसकी सहायता किस प्रकार कर सकता हूँ? ऐसे मनुष्य को तो नष्ट करना उचित है।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब कामरान ने सुना कि सलीमशाह कामरान के बारे में बुरे विचार रखता है तो वह किसी से कुछ कहे-सुने बिना ही वहाँ से भाग गया। जब सलीमशाह को पता लगा तो उसने कामरान के साथियों को पकड़कर बंदी बना लिया। मिर्जा कामरान भीरा और खुशआब होते हुए गक्खरों की तरफ गया। अभी वह गक्खरों की सीमा पर ही था कि गक्खरों ने उसे पकड़ लिया तथा बादशाह हुमायूँ के पास भेज दिया।
हालांकि गुलबदन बेगम तथा अबुल फजल दोनों ही अकबर के समकालीन थे तथापि उन दोनों द्वारा लिखे गए विवरणों में पर्याप्त अंतर है। अबुल फजल ने लिखा है कि कामरान ने अपने अमीर जोगी खाँ को माचीवाड़ा के निकटवर्ती क्षेत्र के राजा बक्कू से सहायता मांगने के लिए भेजा। राजा बक्कू ने कामरान की सहायता करने का वचन दिया।
जब इस्लामशाह ने पंजाब से दिल्ली जाने के लिए माचीवाड़ा की नदी पार की तो कामरान ने युसूफ आफ ताबंची को अपने कपड़े पहनाकर अपने बिस्तर पर सुला दिया तथा बाबा सईद से कहा कि बैठे-बैठे कुछ गुनगुनाता रहे ताकि देखने वाले को लगे कि मिर्जा सो रहा है। इसके बाद कामरान वेश बदल कर अपने डेरे से निकला तथा माचीवाड़ा के राजा बक्कू के पास चला गया।
कुछ दिन बाद जब इस्लामशाह की सेना कामरान को ढूंढती हुई माचीवाड़ा पहुंची तो माचीवाड़ा के राजा बक्कू ने कामरान को कहलूर के राजा के पास भेज दिया। कहलूर के राजा ने मिर्जा को जम्मू के राजा के पास भिजवा दिया। जम्मू के राजा ने कामरान को अपने राज्य में नहीं घुसने दिया। इस पर मिर्जा कामरान मानकोट चला गया। मानकोट व्यास नदी के तट पर स्थित एक पहाड़ी किला था और इसका पुराना नाम रामकोट था, वहाँ एक हिंदू राजा राज्य करता था।
मानकोट के राजा ने मिर्जा कामरान को पकड़कर इस्लामशाह को सौंपने की योजना बनाई। जब मानकोट के सैनिक कामरान के पास पहुंचकर उसके सेवकों से बात करने लगे तो कामरान को अनुमान हो गया कि मानकोट के राजा ने अपने आदमियों को किस उद्देश्य से भेजा है। इसलिए कामरान ने मानकोट के सैनिकों से बचने के लिए स्त्री का वेश बनाया तथा एक अफगान घुड़सौदागर के साथ गक्खर प्रदेश के लिए रवाना हो गया।
तत्कालीन ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर यह अनुमान होता है कि अपने शत्रुओं से बचने के लिए कामरान प्रायः वेश बदलकर रहता था, कभी अपने सेवकों के वेश में तो कभी स्त्री के वेश में ताकि संकट-काल में तुरंत प्राण बचा कर भागा जा सके।
ई.1525 में बाबर इन्हीं गक्खरों को परास्त करके पंजाब होता हुआ दिल्ली, आगरा और चंदेरी तक पहुंचा था। आज उसी बाबर का बेटा गक्खरों का शरणार्थी था। इस प्रकार इतिहास की धारा एक बार फिर से घूमकर उसी बिंदु पर लौट आई थी!
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता