ई.1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक मुल्तान एवं गजनी के अभियान पर गया तो भारत के अन्य भू-भागों की तरह बंगाल से भी उसे बड़ी चुनौती मिली। इस चुनौती का इतिहास जानने से पहले हमें एक बार ई.1193 में लौटना होगा जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नामक एक सेनापति को बिहार की तरफ अभियान करने के लिए भेजा था।
बख्तियार खिलजी बड़ी तेजी से बिहार की ओर बढ़ा। उसने मार्ग में पड़ने वाले नगरों, गांवों और कस्बों को उजाड़कर वीरान बना दिया। देखते ही देखते उसने बिहार पर भी अधिकार कर लिया। उन दिनों बिहार में नालंदा एवं विक्रमशिला के विश्वविद्यालय अपने चरम पर थे। ये दोनों विश्वविद्यालय भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित तक्षशिला विश्वविद्यालय तथा गुजरात के वलभी विश्वविद्यालय की तरह विश्व-विख्यात थे तथा सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में भारतीय ज्ञान के प्रकाश-स्तंभ की तरह कार्य करते थे।
बख्तियार खिलजी जानता था कि उसकी सेना द्वारा किए गए युद्ध-अभियान तब तक अधूरे हैं जब तक कि भारतीय संस्कृति की जड़ों पर चोट नहीं की जाए। वह यह भी जानता था कि उत्तरी भारत में स्थित हिन्दुओं एवं बौद्धों के मंदिर, मठ, उपाश्रय तो भारतीय संस्कृति को सुशोभित करने वाले पुष्प मात्र हैं। इनके टूटने से भारतीय संस्कृति की चमक-दमक भले ही कुछ कम हो जाए किंतु इससे संस्कृति की जड़ों को कुछ नहीं होगा।
बख्तियार खिलजी अच्छी तरह जानता था कि भारतीय संस्कृति की जड़ें भारत भर में फैले गुरुकुलों, विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों से निकलती हैं। अतः बख्तियार खिलजी ने अपने मार्ग में पड़ने वाले शिक्षा के समस्त केन्द्रों को प्रमुख रूप से निशाने पर लिया। उसने नालंदा एवं विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर दिया। इन विश्वविद्यालयों में चीन, तिब्बत तथा लंका आदि देशों के हजारों विद्यार्थी एवं शिक्षक पढ़ने-पढ़ाने के लिए आया करते थे।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
ये दोनों विश्वविद्यालय पहले वैदिक शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे किंतु बाद में इनमें बौद्ध शिक्षा का बोलबाला हो जाने से इन दोनों विश्वविद्यालयों में बौद्ध भिक्षुओं की प्रमुखता हो गई थी। चूंकि पिछले कई सौ सालों से भारतीय राजाओं में बौद्धधर्म को राजधर्म बनाने का प्रचलन समाप्त हो गया था इसलिए दोनों ही विश्वविद्यालयों में बौद्धधर्म के साथ-साथ वैदिक धर्म के आचार्य एवं स्नातक भी पठन-पाठन करते थे।
बख्तियार खिलजी की क्रूर सेनाएं इन विश्वविद्यालयों में घुस गईं तथा शिक्षकों, स्नातकों, बटुकों एवं बौद्ध भिक्षुओं को बड़ी निर्ममता से मारने लगीं। विश्वविद्यालयों में स्थित आचार्यों एवं विद्यार्थियों के आवास, विहार, पुस्तकालय, यज्ञशालाएं एवं भोजनशालाएं नष्ट कर दिए गए। बख्तियार खिलजी ने नालंदा एवं विक्रमशिला में निहत्थे आचार्यों, बटुकों, बौद्ध भिक्षुओं तथा स्नातकों के साथ उसी निर्दयता, नृशंसता एवं क्रूरता का प्रदर्शन किया जो मुहम्मद गौरी ने अजमेर में चौहानों के साथ एवं कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली में तोमरों के साथ किया था। कई हजार आचार्यों, बटुकों, बौद्ध भिक्षुओं तथा स्नातकों के सिर धड़ से काटकर धरती पर फैंक दिए गए। महीनों तक उनके शव सड़ते रहे।
इनमें से हजारों विद्यार्थी चीन, तिब्बत, लंका, बर्मा, स्याम, जावा, सुमात्रा, बाली आदि सैंकड़ों देशों एवं द्वीपों से आए हुए थे जो भारत की संस्कृति को सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में प्रसारित करने का काम करते थे। विश्वविद्यालयों की जिन वाटिकाओं एवं कक्षों से वेदमंत्र एवं बौद्ध-सूत्र गूंजा करते थे, वहाँ अब चील, कौए, गिद्ध, सियार एवं श्वान चीखा करते थे।
विश्वविद्यालयों में स्थित संसार के दुर्लभ ग्रंथों के पुस्तकालय आग के हवाले कर दिए गए जिसके कारण मीलों दूर तक धुआं फैल गया। विश्वविद्यालयों के जिन परिसरों में स्थित यज्ञकुण्डों से हवन के सुवासित वलय उठा करते थे, अब वहाँ से मौत का काला धुआं उठ रहा था। ये दोनों विश्वविद्यालय फिर कभी अस्तित्व में नहीं आ सके।
ई.1203 में ऐबक के आदेश पर बख्तियार खिलजी ने बंगाल के शासक लक्ष्मण सेन पर आक्रमण किया। इस युद्ध में लक्ष्मण सेन परास्त हो गया तथा बंगाल का काफी बड़ा हिस्सा बख्तियार खिलजी के अधीन हो गया। उन दिनों बंगाल में देवकोट नामक अत्यंत प्राचीन नगर हुआ करता था। इसे कोटिवर्ष भी कहते थे। यह स्थान इतना पुराना था कि इसका नाम वायु पुराण आदि ग्रंथों में भी मिलता है। इख्तियारुद्दीन ने इसी देवकोट को अपनी राजधानी बनाया। अब यह नगर अस्तित्व में नहीं है किंतु इस नगर के ध्वंसावशेष बंगाल के दिनाजपुर जिले में मिले हैं।
बख्तियार खिलजी से परास्त होने के बाद बंगाल के सेन-वंशी शासक पश्चिमी बंगाल के हिस्सों को खाली करके बंगाल के पूर्वी भाग में चले गये परन्तु वे अपने राज्य के खोए हुए हिस्सों को प्राप्त करने के लिए निरंतर सचेष्ट बने रहे।
ई.1206 में इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के उपरान्त बंगाल तथा बिहार के मुस्लिम सेनापतियों ने दिल्ली से अपने सम्बन्ध-विच्छेद करने के प्रयत्न किए। अलीमर्दा खाँ नामक एक अफगान सरदार ने लखनौती को अपनी राजधानी बनाकर स्वतंत्रता पूर्वक शासन करना आरम्भ कर दिया। कुछ समय बाद खिलजी अमीरों ने उसे कैद कर लिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को बंगाल और बिहार का शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा। उसने दिल्ली पहुँच कर कुतुबुद्दीन ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने अलीमर्दा खाँ के पुराने अपराध माफ करके उसे बिहार एवं बंगाल का गवर्नर बना दिया। इस प्रकार बिहार एवं बंगाल फिर से दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गए और रावी के तट से लेकर ब्रह्मपुत्र की घाटी तक कुतुबुद्दीन ऐबक की तलवार की धाक जम गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता