गियासुद्दीन बलबन ने सल्तनत को स्थाई, सुल्तान को प्रभावशाली तथा सरकार को मजबूत बनाने के लिये ‘राजत्व के सिद्धांत’ का निर्माण किया। यद्यपि बलबन एक खान के घर पैदा हुआ तथा उसका बचपन गुलाम के रूप में बीता तथापि बलबन का यौवन सुल्तानों के सान्निध्य में बीता था। इस कारण वह सुल्तान एवं सल्तनत की कमजोरियों एवं शक्तियों दोनों के बारे में अच्छी तरह जानता था। इसी कारण वह राजत्व के सिद्धांतों का निर्माण कर सका। बलबन ने राजत्व के सिद्धांतों की जानकारी अपने बड़े शहजादे मुहम्मद को एक आदेश के रूप में दी।
बलबन का विश्वास था कि सुल्तान इस पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतनिधि है और उसके कार्यों से सर्वशक्तिमान अल्लाह की मर्यादा दिखाई देनी चाहिये। उसका मानना था कि सुल्तान को रसूल की विशेष कृपा प्राप्त रहती है जिससे अन्य लोग वंचित रहते हैं। अल्लाह शासन का भार उच्च-वंशीय लोगों को ही प्रदान करता है। वह राजपद को अत्यन्त पवित्र समझता था। बलबन ने सुल्तान के पद को प्रतिष्ठित तथा गौरवान्वित करने के लिये कई कदम उठाए। उसका कहना था कि रसूल के अतिरिक्त अन्य कोई पद इतना गौरवपूर्ण तथा प्रतिष्ठित नहीं होता जितना सुल्तान का।
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बलबन में उच्च-वंशीय भावना इतनी प्रबल थी कि वह निम्न-वंश के व्यक्तियों को राज्य में कोई उच्च पद प्रदान नहीं करता था और न उनकी भेंट अथवा उपहार स्वीकार करता था। दिल्ली का जखरू नामक अत्यन्त समृद्धशाली व्यापारी लाखों टंक की भेंट के साथ सुल्तान के दर्शन करना चाहता था परन्तु सुल्तान उसे दर्शन देना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता था। फलतः सुल्तान ने उसकी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सुल्तान तथा उसके पद की मर्यादा को बढ़ाने के लिए बलबन ने अपने दरबार को ईरानी ढंग पर संगठित किया।
बलबन सुल्तान के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन में विश्वास करता था। उसकी दृढ़़ धारणा थी कि स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक ही राज्य को सुसंगठित एवं सुरक्षित करके अपनी रियाया को अनुशासन में रख सकता है। बलबन ने अपने सम्पूर्ण शासनकाल में इस सिद्धान्त का अनुसरण किया और अमीरों तथा उलेमाओं की शक्ति एवं प्रभाव को नष्ट करके स्वयं असीमित सत्ता का केन्द्र बन गया।
बलबन की यह धारणा थी कि प्रत्येक सुल्तान को अपना गौरव उन्नत बनाए रखना चाहिए। बलबन ने अपने जीवनकाल में इस सिद्धान्त का अनुसरण किया और स्वयं को गौरवान्वित बनाए रखा। उसने दरबार में मद्यपान करके आने तथा हँसी-मजाक करने पर रोक लगा दी। वह स्वयं भी अत्यन्त गम्भीर रहा करता था और साधारण लोगों से बात नहीं किया करता था।
बलबन की धारणा थी कि सुल्तान को कर्त्तव्य-परायण होना चाहिए और सदैव प्रजा-पालन का चिन्तन करना चाहिए। उस काल में प्रजा अर्थात् रियाया से आशय केवल मुस्लिम प्रजा से होता था, शेष लोग काफिर थे जिन्हें रियाया बनाए जाने की आवश्यकता थी!
बलबन का मानना था कि सुल्तान को आलसी अथवा अकर्मण्य नहीं होना चाहिए। उसे सदैव सतर्क तथा चैतन्य रहना चाहिए। बलबन अपने विरोधियों तथा विद्रोहियों का क्रूरता से दमन करने में विश्वास करता था। चालीसा मण्डल के अमीरों, विद्रोही हिन्दू सामन्तों, मेवातियों, बंगाल के शासक परिवार के सदस्यों, चोरों-डकैतों तथा षड़यंत्रकारियों के कुचक्रों को उसने कठोरता से कुचला।
बलबन उच्च नैतिक स्तर में विश्वास रखता था। उसे दुष्ट तथा अशिष्ट लोगों से घृणा थी। वह ऐसे लोगों की संगति कभी नहीं करता था। सुल्तान बनने क बाद उसने मद्यपान करना बंद कर दिया था और राज्य में मदिरा के क्रय-विक्रय पर रोक लगा दी। वह प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाना चाहता था और अपराधी का दमन बड़ी कठोरता से करता था इस काम में प्रायः क्रूरता भी हो जाती थी।
बलबन का दरबार सम्पूर्ण एशिया में अपने ऐश्वर्य एवं गौरव के लिए प्रसिद्ध था। बलबन के दरबार को विविध प्रकार से सजाया गया। सुल्तान महंगे एवं सुन्दर वस्त्र पहन कर दरबार में आता था। अमीर, मलिक एवं अन्य दरबारी भी करीने से वस्त्र पहनकर ही दरबार में आ सकते थे।
सुल्तान के अंगरक्षक प्रज्वलित अस्त्रों तथा आकर्षक वस्त्रों से अंलकृत होकर, पंक्तियाँ बनाकर सुल्तान के पीछे खड़े रहते थे। प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, दरबार में पूर्ण अनुशासन रखना पड़ता था। दरबार में हँसना, बातें करना तथा बिना अदब के खड़े होना मना था। सुल्तान स्वयं भी दरबार में नहीं हँसता था। इस कारण दूसरों को हँसने का साहस नहीं होता था।
दिल्ली में उन दिनों उलेमाओं का बोलबाला था। शक्तिशाली होने के कारण उनका चारित्रिक पतन हो गया था। जियाउद्दीन बरनी के अनुसार उलेमा न तो ईमानदार थे और न उनमें धार्मिकता रह गई थी। फिर भी बलबन इन उलेमाओं का आदर-सत्कार करता था और तब तक भोजन नहीं करता था जब तक कि कम से कम एक दर्जन उलेमा उसके पास नहीं बैठे हों परन्तु उसने उलेमाओं के दुर्गुणों के कारण उन्हें सल्तनत की राजनीति से अलग कर दिया।
प्रोफेसर हबीबुल्लाह ने इसे बलबन की सबसे बड़ी भूल माना है। उन्होंने लिखा है- ‘बलबन का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने मुसलमानों के प्रभाव को राजनीति और शासन में स्वीकार नहीं किया।’
बलबन को फारसी कला तथा फारसी साहित्य से प्रेम था। वह फारसी साहित्य एवं फारसी साहित्यकारों का आश्रयदाता था। कवि अमीर खुसरो को बलबन की विशेष कृपा प्राप्त थी। मंगोलों के अत्याचारों से आतंकित होकर दिल्ली आने वाले फारसी कवियों को बलबन का आश्रय प्राप्त होता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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