बलबन ने सल्तनत को मजबूती देने के लिए विद्रोहियों एवं अपने विरोधियों को दण्ड देने में कोई संकोच नहीं किया। एक ओर तो उसने मुस्लिम अमीरों पर कड़ाई से शिकंजा कसा तो दूसरी ओर विद्रोही हिन्दू जनता का क्रूरता से दमन किया।
यद्यपि ई.1175 में मुहम्मद गौरी के भारत पर प्रथम आक्रमण से लेकर ई.1266 में बलबन के सुल्तान बनने तक गजनी के मुसलमानों द्वारा उत्तरी भारत के हिन्दू राजाओं का दमन करते हुए लगभग 100 साल का समय हो चुका था तथापि हिन्दू राजाओं, सरदारों तथा भूमिपतियों को नियन्त्रित रखना किसी समस्या से कम नहीं था। रजिया से लेकर नासिरुद्दीन के काल तक दो-आब, राजपूताना, बुन्देलखंड, बघेलखंड और मालवा में राजपूतों के कई स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गए थे।
जियाउद्दीन बरनी ने इस काल की दिल्ली सल्ततन की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा है कि- ‘सुल्तान शम्सुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् 30 वर्ष की संक्षिप्त अवधि में शम्सुद्दीन के पुत्रों की अनुभवशून्यता के कारण तथा शम्सी गुलामों द्वारा सुल्तान से प्रभुत्व छीन लिए जाने के कारण, सल्तनत में रहने वाले हिन्दू अभिमानी, अवज्ञाकारी एवं उद्दण्ड हो गए थे। जबकि सुल्तान शम्सुद्दीन के पुत्र इधर-उधर लोगों का सहारा ढूंढते, प्रत्येक सहायक का आश्रय लेते और अपने स्वार्थ के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। उलिल अम्री का भय जिसके आधार पर संसार तथा राज्य की शोभा निर्भर करती है, हिन्दुओं के हृदय से निकल चुका था।’
सल्तनत की सुरक्षा के लिए इन विद्रोही हिन्दू सरदारों एवं हिन्दू जनता का दमन करना नितान्त आवश्यक था। अतहर अब्बास रिजवी ने अपनी पु़स्तक ‘तुर्ककालीन भारत’ में जियाउद्दीन बरनी के हवाले से लिखा है- ‘बलबन ने राजपूताने तथा अन्य क्षेत्रों के शक्तिशाली हिन्दुओं से व्यर्थ में छेड़छाड़ न करने और उनके प्रति आक्रमण नीति की अपेक्षा अपने राज्य को मंगेालों से बचाने के प्रयत्न को ही श्रेयस्कर समझा।’
बलबन ने दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाले मेवों, दो-आब के हिन्दू विद्रोहियों, कटेहर के हिन्दुओं तथा अवध क्षेत्र के हिन्दुओं का बड़ी क्रूरता से दमन किया। बलबन की इस नीति के सबसे पहले शिकार मेव हुए। उस काल में भरतपुर, अलवर, मथुरा एवं गुड़गांव के क्षेत्र में हिन्दुओं की मेव जाति निवास करती थी। माना जाता है कि वे मीणों में से ही निकले थे किंतु विद्रोही प्रवृत्ति के होने के कारण उन्होंने दिल्ली के चारों ओर लूटमार मचा रखी थी। इस कारण व्यापारियांे का दिल्ली से बाहर निकलना असंभव सा हो गया था।
जियाउद्दीन बरनी (ई1285-1357) ने मेवों के विषय पर दिल्ली के सुल्तानों से नाराजगी व्यक्त करते हुए लिखा है- ‘सुल्तान शम्सुद्दीन के बड़े पुत्रों की युवा-अवस्था, असावधानी, मदिरापान और भोग विलासिता एवं सुल्तान शम्सुद्दीन के छोटे पुत्र नासिरुद्दीन की अयोग्यता के कारण दिल्ली के निकट के मेव बड़े शक्तिशाली बन बैठे थे। वे प्रायः रात्रि में नगर पर धावा बोल देते और घरों को तहस-नहस कर डालते। वे जन साधारण को बहुत कष्ट पहुंचाते।’
गियासुद्दीन बलबन (ई.1266-86) के शासनकाल में मेव हिन्दू थे और आगे चलकर फीरोजशाह तुगलक (ई.1351-88) के शासन काल में अर्थात् चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में मुसलमान बने। बलबन कालीन मुस्लिम लेखकों ने मेव लोगों के क्षेत्र को ‘मेव-कोहपाया’ लिखा है।
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उस काल में दिल्ली के नागरिकों को मेवों के उत्पात के भय से रात में नींद नहीं आती थी। दिल्ली के आसपास के मेवों की लूटमार के भय से पश्चिमी दिशा के द्वार शाम की नमाज के पश्चात् बंद कर लिए जाते था। किसी को इस बात का साहस नहीं होता था कि शाम की नमाज के बाद घर से बाहर निकल सके। बहुत से मेव शाम की नमाज के पश्चात् ही ‘हौजेरानी’ अर्थात् सुल्तान के महल के निकट पहुंच जाते। भिश्तियों, पानी भरने वाली दासियों को परेशान करते और उन्हें नंगा कर देते। उनके कपड़े छीन लेते। आस-पास के मेवों के कारण दिल्ली में हलचल मच गई थी।
जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- ‘मल्का नामक मेव के नेतृत्व में मेवों ने हांसी की तरफ से सेना के लिए ले जाए जाने वाले शाही गल्ले को भूतों के समान झपट कर ऊंटों एवं गुलामों को छीन लिया और उन्हें कोहपाया से लेकर रणथंभौर तक के हिन्दुओं में बांट दिया। उस काल में रसद सामग्री को गल्ला कहा जाता था।’
बलबन उस समय तो मेवों के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका क्योंकि वह मंगोलों से उलझा हुआ था किंतु जब मंगोल सिंध छोड़कर भाग गए तो बलबन ने 10 हजार सैनिकों के साथ कोहपाया के मेवों के विरुद्ध भयानक अभियान किया। बलबन की सेना में 3 हजार अफगान लड़ाके थे जिन्होंने तेजी से आगे बढ़कर मेवों को सफाया करना आरम्भ किया।
बलबन ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे मेवों के सिर काटकर लाएं, प्रत्येक सिर के बदले चांदी के दो टंके दिए जाएंगे। मिनहाज उस् सिराज ने लिखा है- ‘प्रत्येक अफगान सैनिक सौ-सौ मेवातियों के सिर काटकर लाया। मल्का को भी उसके परिवार के 250 सदस्यों के साथ बंदी बनाया गया। बलबन ने मल्का से 142 घोड़े तथा 30 हजार टंके छीन लिए।’
हौजेरानी के निकट बहुत से मेवातियों को हाथी के पैरों तले कुचला गया, कुछ को काट डाला गया तथा कुछ की खाल खिंचवा कर भूसा भरवा दिया गया। बलबन की सेना ने मेवों के नगरों तथा गाँवों को जलाकर उन जंगलों को साफ कर दिया जिनमें वे शरण लिया करते थे। इस प्रकार बलबन ने दिल्ली के चारों ओर के मार्ग निरापद कर दिए।
बलबन के अत्याचारों से भी मेवों का हौंसला नहीं टूटा तथा कुछ ही वर्षों में वे दिल्ली तक धावे मारने लगे। उस समय तक बलबन बहुत बूढ़ा हो चुका था और मेवों के विरुद्ध पहले जैसी कार्यवाही करने में सक्षम नहीं रहा था!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता