गंगा-यमुना के दो-आब क्षेत्र के लोग युगों से स्वातंत्र्यप्रिय थे। इस क्षेत्र के राजा भले ही गजनी के आक्रांताओं से युद्धों में हार गए थे किंतु इस क्षेत्र की हिन्दू प्रजा अपेक्षाकृत सम्पन्न होने के कारण मुस्लिम सैनिकों का विरोध करती थी और कर चुकाने से मना करती थी। दिल्ली के सुल्तानों ने दो-आब के विद्रोहों को दबाने के कई प्रयास किए थे किंतु ये लोग अवसर पाते ही सिर उठा लेते थे।
बलबन ने दो-आब के विद्रोहियों को दण्ड देने के लिए मेवात में की गई कार्यवाही से भिन्न प्रकार की नीति अपनाई। इसका कारण यह था कि मेवात के लोग लुटेरी प्रवृत्ति के थे जबकि गंगा-यमुना के लोग सम्पन्न थे। इस कारण गंगा-यमुना के लोगों को दबाना आसान नहीं था। इसलिए बलबन उनके स्त्री-बच्चों को पकड़कर दिल्ली ले आया। सुल्तान द्वारा की गई इस कार्यवाही के कारण दो-आब के अधिकांश लोग स्वतः ही शांत होकर बैठ गए। बलबन ने दो-आब को कई खण्डों में विभक्त करके इन खण्डों में अफगान सैनिकों की छावनियाँ स्थापित कर दीं।
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जिस समय बलबन दो-आब में विद्रोहियों का दमन कर रहा था, उन्हीं दिनों कटेहर (रूहेलखण्ड) में उत्पात आरम्भ हो गया। बदायूं तथा अमरोहा के मुस्लिम गवर्नर कटेहर के हिन्दुओं का दमन करने में विफल रहे। इस पर बलबन स्वयं एक विशाल सेना लेकर कटेहर गया। उसने दिल्ली से रवाना होते समय सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया कि वह शिकार खेलने के लिए जा रहा है। इसके बाद वह दो रात और तीन दिन में तेजी से चलता हुआ गंगा नदी पार करके अचानक ही कटेहर में प्रविष्ट हुआ।
बलबन ने पांच हजार धनुर्धारी अश्वारोहियों को आगे करके कटेहर को घेर लिया। इन धनुर्धारियों ने कटेहर-वासियों पर अंधाधुंध तीरों की बरसात कर दी जिससे बड़ी संख्या में नागरिक मारे गए। बलबन ने नागरिक बस्तियों में आग लगवा कर उन्हें नष्ट कर दिया। उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को बन्दी बना लिया और 7 वर्ष से अधिक आयु वाले लड़कों एवं पुरुषों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। डॉ. अशोकुमार सिंह ने लिखा है कि- ‘इस भीषण नरसंहार के आगे तैमूर एवं नादिरशाह की रक्तपिपासु तलवार की चमक भी फीकी पड़ जाए।’ इस भीषण नरमेध से कटेहर का विद्रोह शान्त हो गया तथा जब तक दिल्ली सल्तनत अस्तित्व में रही, कटेहर (रूहेलखण्ड) में विद्रोह नहीं हुआ।
अब बलबन अवध के हिन्दू विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए रवाना हुआ। बलबन ने अपनी सेना के साथ कम्पिल तथा पटियाली में छः-छः महीने तक अपना शिविर लगाया। उसने कम्पिल, पटियाली, भोजपुर तथा जलाली में नए किले एवं मस्जिदें बनवाईं। इन किलों में अफगानी सैनिकों को नियुक्त कर दिया और उन्हें उन्हीं क्षेत्रों में बड़े भूखण्ड दे दिए ताकि इन अफगानी सैनिकों के परिवार वहीं पर रहकर हिन्दू विद्रोहियों का मुकाबला कर सकें।
इस कार्यवाही के बाद इस क्षेत्र में कुछ समय के लिए शांति हो गई। बलबन की इस कार्यवाही की प्रशंसा करते हुए जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- ‘हिन्दुस्तान के मार्ग खुले हैं तथा लुटेरे डाकुओं का अंत हो चुका है।’ बरनी के विपरीत बरनी के ही समकालीन विदेशी यात्री इब्नबतूता ने इन प्रदेशों में की गई यात्राओं के संस्मरणों में जलाली के खतरनाक मार्ग और वहाँ के हिन्दू लुटेरों के बारे में भयाक्रांत वर्णन किया है। इससे स्पष्ट होता है कि बलबन द्वारा अवध के क्षेत्र में जो शांति स्थापित की गई थी, वह अल्पकालिक सिद्ध हुई।
जिन दिनों बलबन भारत के हिन्दुओं को कुचलने में लगा हुआ था, उस काल में मंगोलों ने अवसर पाकर सिन्धु नदी के पूर्वी प्रदेश पर अधिकार कर लिया। पंजाब का अधिकांश भाग भी उन्हीं के अधीन चला गया।
जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि व्यास नदी ही अब दिल्ली सल्तनत की पश्चिमी सीमा थी और नदी के उस-पार का सम्पूर्ण प्रदेश मंगोलों के अधिकार में था। बलबन के लिये यह संभव नहीं था कि वह पंजाब से मंगोलों को निष्कासित कर सके। इसलिये उसने मंगोलों को व्यास-रावी के दो-आब में रोके रखने की व्यवस्था की।
बलबन ने लाहौर के दुर्ग की मरम्मत करवा कर उसमें एक बड़ी सेना रख दी। ई.1271 में बलबन स्वयं लाहौर गया और उसने उन किलों की मरम्मत करवाई जिन्हें मंगोलों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था।
बलबन ने सीमान्त प्रदेश को तीन भागों में विभक्त कर दिया और प्रत्येक भाग में एक अधिकारी नियुक्त किया। एक क्षेत्र में तातार खाँ को, दूसरे में शहजादे मुहम्मद को और तीसरे में शहजादे बुगरा खाँ को नियुक्त किया। इन समस्त क्षेत्रों में चुने हुए सैनिक रखे गए। राजधानी दिल्ली में भी एक विशाल सेना सदैव विद्यमान रहती थी। मंगोलों ने कई बार व्यास को पार करके आगे बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु बलबन के सेनापतियों ने उनके समस्त प्रयत्न निष्फल कर दिए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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