Tuesday, December 3, 2024
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78. बलबन का शहजादा सल्तनत छोड़कर भाग गया!

शरीर से कुरूप किंतु भाग्य से प्रबल गियासुद्दीन बलबन ने लड़खड़ाती हुई दिल्ली सल्तनत को अपनी बुद्धि, परिश्रम एवं लगन के बल पर मजबूत आधार प्रदान किया। बलबन ने जो नीतियां बनाईं, उसके भाग्य से उसके पक्ष में परिणाम देने वाली सिद्ध हुईं किंतु उसके जीवन के अंतिम दो वर्ष भयानक दुःखों से भर गए जिन्होंने उसे असीम कष्ट दिया। 

ई.1285 में मंगोलों ने तिमूर खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। शहजादे मुहम्मद ने मंगोलों का रास्ता रोका। मंगोल तो पराजित होकर भाग गए किंतु शहजादा मुहम्मद युद्ध में मारा गया। शहजादे की मृत्यु से बलबन को करारा आघात लगा। बलबन उसे सल्तनत के भावी और योग्य सुल्तान के रूप में देखता था किंतु जब शहजादा अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हुआ तो बलबन ने रोगशैय्या पकड़ ली और दो साल के भीतर ई.1287 के मध्य में बलबन इस असार संसार से चला गया।

बलबन की शासन व्यवस्था स्वेच्छाचारी एवं अत्यधिक केन्द्रीभूत थी जिसमें शासन की सारी शक्तियाँ सुल्तान में केन्द्रित थीं। सुल्तान कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य अपने राज्याधिकारियों अथवा पुत्रों पर पूर्ण रूप से नहीं छोड़ता था। इससे शासन के समस्त कार्यों में सुल्तान का परामर्श एवं आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक हो गया। ऐसा शासन सुल्तान के कठोर एवं दृढ़निश्चयी स्वभाव पर ही निर्भर करता है तथा योग्य सुल्तान के समय ही ढंग से चल पाता है किंतु जैसे ही अयोग्य सुल्तान का शासन होता है, ऐसी शासन व्यवस्था बिखरने लगती है तथा मंत्रियों एवं प्रांतीय गवर्नरों का नेतृत्व करने वालों का अभाव हो जाता है।

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बलबन के लिये सुल्तान तथा सल्तनत का हित सर्वोपरि था। इसलिये वह अपने सगे-सम्बन्धियों को दण्डित करने में भी संकोच नहीं करता था। वह किसी की भी मनमानी सहन नहीं करता था। बलबन ने बदायूं के सूबेदार मलिक बकबक और अवध के इक्तादार हैबात खाँ को उनके गुलामों के साथ दुर्व्यवहार करने के अपराध में कठोर दण्ड दिए। इससे लोगों में सुल्तान का भय बैठ गया। वे अपने गुलामों के साथ दुर्व्यवहार करने का साहस नहीं करते थे।

सल्तनत में अपराधों तथा अत्याचारों का पता लगाने के लिये बलबन ने एक मजबूत गुप्तचर विभाग का गठन किया। ये गुप्तचर सुल्तान को समस्त प्रकार के अत्याचारों तथा अन्यायों की सूचना देते थे। अपराध के सिद्ध हो जाने पर सुल्तान द्वारा अपराधी को बिना किसी पक्षपात के दण्ड दिया जाता था। बलबन ने समस्त प्रान्तों तथा जिलों में गुप्तचर रखे जिनके माध्यम से बलबन को राजधानी तथा अन्य प्रान्तों की महत्त्वपूर्ण घटनाओं, अमीरों के कुचक्रों, षड़यंत्रों एवं विद्राहों की सूचनाएँ मिलती थीं। गुप्तचरों को अच्छा वेतन मिलता था और उनकी निष्ठा का परीक्षण होता रहता था। कर्त्तव्य-भ्रष्ट गुप्तचर को कठोर दण्ड दिया जाता था।

बलबन का उत्कर्ष दिल्ली सल्तनत के लिए एक युगांतरकारी घटना थी जिसने न केवल भारत अपितु मध्यएशिया तक के राजनीतिक घटनाक्रम को प्रभावित किया था। उसने दिल्ली सल्तनत को स्थायित्व प्रदान किया। विद्रोहियों का दमन किया तथा सल्तनत में शांति व्यवस्था स्थापित की।

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जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि जब बलबन सुल्तान बना तब लोगों के हृदय से राज का भय निकल चुका था और देश की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। बलबन ने बड़ी दृढ़़ता से अंशाति तथा कलह को दबाकर विद्रोहियोें का दमन किया और सुल्तान की सत्ता तथा धाक को फिर से स्थापित किया। उसने अपराधियों, विरोधियों एवं षड़यंत्रकारियों को कठोर दण्ड देकर सल्तनत के प्रत्येक व्यक्ति को शाही-आज्ञाओं का पालन करने के लिए बाध्य किया।

बलबन ने भविष्य में आने वाले संकटों का सामना करने के लिए दूरदृष्टि से काम लिया। उसने सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा के लिये नए दुर्ग बनवाये एवं पुराने दुर्गों की मरम्मत करवाकर वहाँ सेनाएं नियुक्त कीं। उसने अयोग्य लोगों को सेवा से हटा दिया। बूढ़े अमीरों के स्थान पर उनके युवा-पुत्रों को सेवा में रखा।

बलबन ने अपने जीवन-काल में ही अपने योग्य पुत्र मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया परन्तु दुर्भाग्यवश बलबन के जीवन काल में ही शहजादे मुहम्मद की युद्धक्षेत्र में मृत्यु हो गई। इसके बाद बलबन ने अपने छोटे पुत्र बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहा किंतु वह अपने पिता के कठोर स्वभाव से डरकर लखनौती भाग गया। इस पर बलबन ने अपने बड़े पुत्र मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

बलबन के चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘बलबन का चालीस वर्षों का क्रियाशील जीवन मध्यकालीन भारत के इतिहास में अनूठा है। उसने राजपद के गौरव को बढ़ाया और लौह तथा रक्त की नीति का अनुसरण करके शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित की। बलबन ने अपनी वीरता तथा दूरदर्शिता से मुस्लिम राज्य को विपत्ति काल में नष्ट होने से बचाया, मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में वह सदैव एक महान् व्यक्तित्व रहेगा।’

प्रो. हबीबुल्ला का मत है- ‘बलबन ने बड़ी सीमा तक खिलजी राज्य-व्यवस्था की पृष्ठभूमि का निर्माण किया।’

अवध बिहारी पाण्डेय के अनुसार- ‘यदि हम बलबन के कार्य को एक शब्द में व्यक्त करना चाहें तो वह है-सुदृढ़ीकरण। यही उसकी नीति का मूल मंत्र था।’

डॉ. आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव में लिखा है- ‘बलबन ने तुर्की सल्तनत की रक्षा का सुचारु प्रबन्ध किया और उसे नया जीवन प्रदान किया। यही उसका सबसे महान् कार्य था। उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा का पुनरुत्थान किया। यह उसकी दूसरी सफलता थी। राज्य में सर्वत्र पूर्ण शांति और व्यवस्था की स्थापना करना उसका महत्त्वपूर्ण कार्य था। उस युग में तुर्की सल्तनत को जिन कठिनाइयों और संकटों का सामना करना पड़ा, उनको देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि बलबन की सफलताएं साधारण कोटि की नहीं थीं।’

वस्तुतः इतिहासकारों ने बलबन का मूल्यांकन मुस्लिम प्रजा एवं मुस्लिम शासन की दृष्टि से किया है। यदि भारत की हिन्दू जनंसख्या की दृष्टि से देखा जाए जो कि उस काल में 95 प्रतिशत थी, बलबन का शासन क्रूरताओं, मक्कारियों, हिंसक युद्धों और रक्तपात से परिपूर्ण था। उसके काल में हिन्दुओं को बुरी तरह से लूटा गया, मेवों को कुचला गया, गंगा-यमुना के दो-आब में हिन्दू परिवारों को बुरी तरह से सताया गया तथा अवध में हिन्दुओं की बड़ी संख्या में हत्याएं की गईं। जब हम बलबन के शासन का मूल्यांकन करते हैं तो हमें ये बातें भी निःसंकोच, निर्भय तथा पक्षपात रहित होकर लिखनी चाहिए किंतु दुर्भाग्य से साम्यवादी चिंतन से ग्रस्त भारतीय इतिहासकार ऐसा नहीं कर सके।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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