छब्बीस साल तक शासन करने के बाद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश बीमार पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसे कुतुबमीनार के पास दफना दिया गया। बुखारा के बाजार में अदने से गुलाम के रूप में बिकने के बाद अपनी जिंदगी आरम्भ करने वाले इल्तुतमिश ने अपने छोटे से जीवन काल में भारत जैसे पराए देश में न केवल नए सिरे से दिल्ली सल्तनत की स्थापना की थी अपितु उसे दूर-दूर तक फैलाकर मजबूत सैनिक एवं प्रशासनिक आधार भी प्रदान किया था। फिर भी इल्तुतमिश के मरते ही दिल्ली सल्तनत की नैया हिचकोले खाने लगी। सल्तनत की कमजोरी के दो बड़े कारण थे।
इनमें से पहला था इल्तुतमिश का दरबार जो परस्पर ईर्ष्या करने वाले, षड़यन्त्री, दगाबाज एवं ऐसे फरेबी तुर्की अमीरों से भरा पड़ा था जो पलक झपकते ही किसी की भी हत्या करने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे। प्रत्येक अमीर चाहता था कि वह अधिक से अधिक सत्ता हासिल करके सुल्तान का प्रिय बने और अपना घर सोने-चांदी के सिक्कों से भरे। स्वयं सुल्तान को भी कुछ अमीरों के साथ मिलकर दूसरे अमीरों के विरुद्ध षड़यंत्र रचने पड़ते थे और उनकी हत्याएं करवाकर उनका समस्त धन, सम्पत्ति तथा जागीर हड़पने पड़ते थे।
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सल्तनत की कमजोरी का दूसरा सबसे बड़ा कारण था इल्तुतमिश का हरम! उसके हरम में कई देशों की खूबसूरत औरतें शामिल थीं जिन्हें अपनी-अपनी खूबसूरती तथा अपने-अपने पिता की हैसियत की ठसक थी। वे अपने-अपने देश की संस्कृति लेकर आई थीं तथा एक-दूसरे की संस्कृति को हेय दृष्टि से देखती थीं। ये औरतें अपने-अपने पुत्र को सुल्तान का उत्तराधिकारी घोषित करवाना चाहती थीं जबकि सुल्तान अपने निकम्मे बेटों की बजाय अपनी बेटी रजिया को अगली सुल्तान बनाना चाहता था। इस कारण हरम की औरतों में वैमनस्य अपने चरम पर था।
तुर्कों में औरत को सुल्तान बनाने की परम्परा नहीं थी फिर भी यदि इल्तुतमिश अपनी पुत्री को सुल्तान बनाना चाहता था तो उसके कुछ कारण थे। तुर्क चीन से निकले थे किंतु इस्लाम स्वीकार करके अपनी संस्कृति खो बैठे थे। उन्होंने जो संस्कृति अपनाई थी, वह न पूरी तरह अरबी थी, न पूरी तरह अफगानी थी। तुर्कों की संस्कृति में चीन के खूनी कबीलों की कुछ परम्पराएं अब भी जीवित थीं। भारत में आने के बाद उनमें भारतीय संस्कृति के भी कुछ तत्व शामिल होने लगे थे।
तुर्कों में उत्तराधिकार के नियम निश्चित नहीं थे। सुल्तान के मरते ही सुल्तान के बेटों और सल्तनत के ताकतवर अमीरों में खूनी संघर्ष होता था और विजयी शहजादा अथवा विजयी अमीर सल्तनत पर अधिकार कर लेता था। इल्तुतमिश का योग्य एवं बड़ा पुत्र नासिरुद्दीन महमूद, इल्तुतमिश के जीवनकाल में ही मर गया था जबकि दूसरा पुत्र रुकुनुद्दीन निकम्मा और अयोग्य था। इल्तुतमिश के अन्य पुत्र अवयस्क थे। इसलिये इल्तुतमिश को अपने उत्तराधिकारी की चिंता रहती थी।
पाठकों को स्मरण होगा कि जब कुतुबुद्दीन ऐबक का ग्वालियर पर अधिकार स्थापित हो गया था तब कुतुबुद्दीन ऐबक ने इल्तुतमिश को वहाँ का अमीर नियुक्त किया था और उसके साथ अपनी पुत्री कुतुब बेगम का विवाह कर दिया था। इस दाम्पत्य से इल्तुतमिश को एक पुत्री प्राप्त हुई थी जिसका नाम रजिया रखा गया था। कुछ दिन बाद इल्तुतमिश को बदायूँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया।
चूंकि रजिया का जन्म कुतुबुद्दीन ऐबक की शहजादी के पेट से हुआ था, इसलिये न केवल इल्तुतमिश के हरम में अपितु कुतुबुद्दीन के हरम में भी शहजादी रजिया की विशेष स्थिति थी। उसे न केवल शाही हरम में बहुत लाड़-प्यार, नजाकत और शाही सम्मान से पाला गया था, अपितु सुल्तान के दरबार में भी निर्भय होकर जाने का अधिकार मिला था।
रजिया की इस गरिमामय स्थिति के विपरीत, रजिया के सौतेले भाइयों का जन्म साधारण समझी जाने वाली गुलाम औरतों के पेट से हुआ था। वे सुल्तान कुतुबुद्दीन के हरम अथवा दरबार में नहीं जा सकते थे। इस कारण उनका लालन-पालन राजकीय परम्पराओं और शानो-शौकत से दूर, साधारण लड़कों की तरह हुआ। जब रजिया पांच साल की हुई तब उसके नाना अर्थात् सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई तथा रजिया के पिता इल्तुतमिश को दिल्ली के तख्त पर बैठने का अवसर मिला। प्रकृति ने रजिया को जितना सुंदर चेहरा दिया था, उतना ही मजबूत मस्तिष्क भी दिया था। इासलिए वह अपने पिता के कार्यों में हाथ बंटाने लगी।
इल्तुतमिश भी अपनी इस पुत्री से बड़ा प्रेम करता था तथा उसकी योग्यता को कई बार परख चुका था। कुछ बड़ी होने पर रजिया इल्तुतमिश की अनुपस्थिति में राज्यकार्य करने लगी। इन सब बातों को देखते हुए इल्तुतमिश ने अपने अमीरों से रजिया को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की सहमति प्राप्त की तथा रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इल्तुतमिश के जीवन काल में ही रजिया का नाम, सुल्तान के नाम के साथ चांदी के टंक पर खुदवाया जाने लगा। इससे रजिया के सौतेले भाइयों की छाती पर सांप लोटने लगे।
जब इल्तुतमिश की मृत्यु हुई तो तुर्की अमीर, विशेषकर चालीसा समूह के अमीर एक औरत को सुल्तान के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। भारत में मुस्लिम सुल्तान अरब के खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। अरब वालों के रिवाजों के अनुसार औरत, मर्दों के द्वारा भोगे जाने के लिये बनाई गई है न कि शासन करने के लिये। इस कारण मर्द अमीरों को, औरत सुल्तान का अनुशासन मानना बड़े शर्म की बात थी।
इसलिए दिल्ली के तुर्की अमीरों ने रजिया को सुल्तान बनाने से मना कर दिया तथा वे इल्तुतमिश के पुत्रों में से किसी एक को सुल्तान बनाने का प्रयास करने लगे। उन्होंने इल्तुतमिश के सबसे बड़े जीवित पुत्र रुकुनुद्दीन फीरोजशाह को तख्त पर बैठा दिया।
तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार रुकुनुद्दीन रूपवान, दयालु तथा दानी सुल्तान था परन्तु उसमें दूरदृष्टि नहीं थी। वह प्रायः मद्यपान करके हाथी पर चढ़कर दिल्ली की सड़कों पर स्वर्ण-मुद्राएँ बाँटा करता था। वह अपने पिता इल्तुतमिश के जीवन काल में बदायूँ तथा लाहौर का गवर्नर रह चुका था परन्तु उसने सुल्तान बनने के बाद मिले अवसर से कोई लाभ नही उठाया।
मद्यपान में धुत्त रहने के कारण रुकुनुद्दीन राज्य कार्यों की उपेक्षा करता था। इसलिये उसकी माँ शाह तुर्कान ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। शाह तुर्कान बला की खूबसूरत औरत थी। उसका जन्म अभिजात्य तुर्कों में न होकर निम्न समझे जाने वाले वंश में हुआ था। वह अपने दैहिक सौन्दर्य के बल पर इल्तुतमिश जैसे प्रबल सुल्तान की बेगम बनी थी। बला की खूबसूरत होने के कारण वह सुल्तान की चहेती थी और अब रुकुनुद्दीन जैसे निकम्मे सुल्तान की राजमाता बन गई थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता