ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने यज्ञकुण्ड में आहुति देकर अपने विशाल नेत्र खोले। आज दीर्घकाल के पश्चात् असुरों के भय से पूर्णतः मुक्त होकर आर्य-जन पुनः प्रातः कालीन अग्निहोत्र में उपस्थित है। ‘तृत्सु,-जन’ के नाम से विख्यात इस जन के साथ-साथ भरत, जह्नु अनु और भृगु जनों के राजन् ऋषिगण एवं प्रजाजन भी उपस्थित हैं। सबके लिये यथेष्ट बलिभाग की व्यवस्था की गयी है। दीर्घकाल के पश्चात् यह सब पुनः देखने को मिला है। यद्यपि आर्य सोम को पुनः प्राप्त नहीं कर सके हैं किंतु आर्य चतुरंगिणी द्वारा चारों दिशाओं में विजय पताका फहराने के कारण आर्यों के मुखमण्डल पर दिव्य आभा विराजमान है।
– ‘हे राजन्! आपके उद्यम से सम्पूर्ण सप्तसिंधु क्षेत्र में आर्य प्रजा स्थापित हो गयी है। प्रजापति मनु ने प्रजा को संगठित करने का जो कार्य आरंभ किया था उसे हमने आपके नेतृत्व में पूरा किया है। सेना एवं प्रजा को सन्मार्ग पर चलाने वाले राजन्! आपका सैन्य बलशाली एवं ज्ञानवान् है, वह शत्रु को नष्ट करने में समर्थ है। उसके सहयोग से आप ऐश्वर्यवान होकर खूब चमकें।’ [1] ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने राजन् को संबोधित किया।
– ‘ऋषिश्रेष्ठ! शत्रु पर विजय राजा प्राप्त नहीं करता। जिस राजा का सैन्यबल प्रबल होता है, वह सैन्यबल राजा से सहयोग कर राजा की कीर्ति को प्रदीप्त करता है। अतः इस सफलता का श्रेय आर्यों की प्रबल चतुरंगिणी को जाता है न कि मुझे।’
– ‘हे राजन्। हमें ऐसे व्यक्ति को अपना राजा बनाना चाहिये जो महान् तेजस्वी, सम्मानित, शत्रुहंता एवं संग्राम में रथ को संभालने में प्रवीण हो। संग्राम में शस्त्रविहीन होने पर शत्रु को वैसे ही पछाड़े जैसे सिंह भैंसों को पछाड़ देता है। आप में ये सब गुण विद्यमान हैं। अतः आप ही इस श्रेय को प्राप्त करने के अधिकारी हैं।’ [2]
– ‘महात्मन्! मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ।’
– ‘हे मनुपुत्र! तृत्सु, भरत, जह्नु अनु और भृगु नामक पाँच जनों से निर्मित यह आर्य जनपद आपको चक्रवर्तिन की उपाधि प्रदान करता है। हे आर्य! आज से आपको इस सम्पूर्ण जनपद की रक्षा करनी है। पवित्र नदियों का जल हाथ में लेकर संकल्प लीजिये कि मैं चक्रवर्ती सम्राट बन कर आर्यों की रक्षा उसी प्रकार करूंगा जैसे एक पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है।’ ऋषिश्रेष्ठ ने कुछ जलबिन्दु राजन् के करतल पर रखे।
– ‘ऋषिश्रेष्ठ आपकी और पंचजन की आज्ञा से मैं आर्यों का चक्रवर्ती सम्राट होना स्वीकार करता हूँ।’
– ‘हे राजन्। सम्पूर्ण आर्य क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली नदियाँ हमारे लिये पूज्य हैं। अतः अग्नि पूजन के साथ हमें इन पवित्र सरिताओं की भी स्तुति करनी चाहिये।’
पवित्र सरिताओं का जल करतल में लेकर राजन् सुरथ ने नेत्र बंद कर लिये तथा उच्च स्वर में उच्चारित किया- ‘हे गंगे, यमुने, सरस्वति, शुतुद्रि, परुष्णि! मैं आपकी स्तुति करता हूँ। आप इसे स्वीकार करें। असिक्नी के साथ मरुद्वृधे, वितस्ता, आर्जिकीये तथा सुषोमा इसे सुनें। हे सिंधु ! आप अपने प्रवाह के प्रथम चरण में तृष्टामा, सुसर्तु रसा, श्वेत्या तथा कुभा के साथ गोमती से मिलने तथा मेहत्नु के साथ क्रुमु से मिलने के लिये एक ही रथ में जाती हैं। आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें।[3]
चक्रवर्ती सम्राट सुरथ जिस नदी का नाम उच्चारित करते जाते थे, उस नदी-तट का दृश्य उनके नेत्रों के समक्ष घूम जाता था। आर्यों की विशाल चतुरंगिणी के साथ की गयी नदी तटों की प्रत्येक यात्रा उनके स्मृति-पटल पर उभर आयीं। कितनी-कितनी स्मृतियाँ एक-एक सरिता के साथ जुड़ी हुईं थीं! ये नदियाँ ही उनके संघर्ष की साक्षी रही हैं। इन नदियों ने ही धरित्री पर जीवन को रचा है। इन्हीं ने मनष्य को संघर्ष करने का बल दिया है। सचमुच ये नदियाँ ही हैं जिनके जल से मनुष्य जन्म लेता है और फिर अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
जैसे ही उन्होंने सिंधु का नाम उच्चारित किया, उनके नेत्रों में शिल्पी प्रतनु की छवि प्रकट हुई। उसके साथ ही प्रकट हुआ मेलुह्ह और वह विलक्षण-खण्डित प्रतिमा। उन्हें लगा वे सिंधु की स्तुति नहीं कर रहे, वे तो शिल्पी प्रतनु को अघ्र्य दे रहे हैं जो नृत्यांगना रोमा के साथ सिंधु तट पर बिछे इतिहास के मणिपर्यंक पर सदा-सर्वदा के लिये शैय्यासीन हो गया है। आर्य सुरथ ने नेत्र खोले, ऋषिश्रेष्ठ अग्नि को पूर्णाहुति अर्पित कर रहे थे- ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते। [4]
[1] यत्ते मनुर्यदनीकं सुमित्रः समीधे अग्ने तदिदं नवीयः । स रेवच्छोच स गिरो जुषस्व स वाजेदर्षि स इह श्रवो धाः।। (ऋ. 10. 69. 3)
[2] असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम्। भजे रथस्य सत्यतिम्।। यो जनान्महिषाँ इवातितस्थौ पवीरवान्। उतापवीरवान्युधा।। (ऋ. 10. 61. 2- 3)
[3] इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या। असिक्न्या मरुद्वृधेविस्तयाऽऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया। तृष्टामया प्रथमंयातत्रे सजूःसुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या। त्वं सिंधो कुभया गामतीं क्रुभुं मेहल्वा सरथं याभिरीयसे। (ऋ. 10. 75. 5-6)।
[4] वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकलता है किंतु इस पूर्ण के उस पूर्ण में से निकलने के पश्चात् भी जो कुछशेष बचता है वह भी पूर्ण ही है ( बृहदारण्यक प्प् . 3 . 19 )।